अब प्रोफेशन मानकर ही राजनीति आ रहे हैं लोग,सेवाभाव समझकर नहीं
मशहूर फिल्म अभिनेता अमोल पालेकर ने रविवार को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में राजनीति को लेकर दो कटाक्ष किए। पहला राजनीति में बढ़ रहे भ्रष्टाचार पर और दूसरा दल बदलकर राजनीतिक लाभ उठाते अवसरवादी नेताओं की निष्ठा पर। उन्होंने कहा कि देश के नेता सामने आकर ये बोलने की हिम्मत दिखाएं कि राजनीति मेरा प्रोफेशन है। मैं राजनीति में पैसा कमाने आया हूं,ना कि जन सेवा करने के लिए। पालेकर के कटाक्ष ही आज की राजनीति की सच्चाई है। अब ये गुजरे जमाने की बात हैा जब राजनीति को जनसेवा का जरिया माना जाता था।
लोगों में राजनीतिज्ञों का सम्मान होता था। वह अपनी विचारधारा के प्रति समर्पित होते थे। खुद का लोगों से जुड़ाव रखते थे। लेकिन अब राजनीति विशुद्ध रूप से प्रोफेशन यानी व्यवसाय ही है। व्यवसाय भी ऐसा जिसमें कमाई की रफ्तार दिन दूनी और रात चौगुनी गति से होती है। जिसमें व्यक्ति कुछ दिन में फर्श से अर्श पर जा पहुंचता है। जिसमें किसी न्यूनतम योग्यता या डिग्री की जरूरत नहीं होती। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए भी ग्रेजुएट होना जरूरी है। लेकिन कोई अनपढ़ भी मंत्री बन सकता है। बस एक ही योग्यता चाहिए, जब तक खुद राजनीति में किसी मुकाम तक नहीं पहुंच जाओ, किसी बड़े राजनीतिज्ञ के चरण चुंबक बनकर रहो। उसकी जी हुजुरी करके और हां में हां मिलाकर अपना रास्ता बनाते जाओ।
बीस साल पहले का एक किस्सा है। अजमेर नगर निगम के चुनावों में एक पार्टी के उम्मीदवार ने अपने नामांकन पत्र में व्यवसाय के कालम मेऔ राजनीति लिखा था। नादानी में ही सही,पार्षद बनने से पहले ही उसने लोगों को अपनी नीयत बता दी थी कि वह राजनीति में उनकी सेवा करने के लिए नहीं,बल्कि खुद खाने- कमाने के लिए आ रहा है। राजनीति ऐसा क्षेत्र हो गया है,जहां कामयाब होने के लिए जनसेवा की भावना और ईमानदारी कम कुटिलता,मौकापरस्ती,झूठ बोलने और लोगों को बेवकूफ बनाने की कला ज्यादा चाहिए। जिसने यह सब सीख लिया वह उतना ही कामयाब नेता बन गया।
राजनीति में पैसों और जातिवाद का असर बढ़ने के कारण यह और ज्यादा कलुषित होती जा रही है। अब ऐसे लोगों के कद्र राजनीति में नहीं है, जो ईमानदार और योग्य हैं। क्योंकि ऐसे लोगों को पार्टियां भी टिकट देना पसंद नहीं करती है। उसे ऐसे लोग पसंद है,जो खुद चुनावों में खुलकर पैसा खर्च कर सकें हैं और जिसकी खुद का जाति का मोटा वोट बैंक हो। इसलिए ऐसे कई लोग पार्षद, विधायक और सांसद बन जाते हैं ,जो इस योग्य नहीं होते। जाहिर है ऐसे लोग जीतने पर सबसे पहले तो खर्च किए गए पैसों की वसूली करते हैं। इसके बाद भविष्य के लिए व्यवस्था करते हैं। क्योंकि अब राजनीति में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। इसलिए ऐसे नेताओं को लगता है पता नहीं पार्टी अगली बार टिकट दे या ना दे, इसलिए जितना कमाना है, एक बार में कमा लो। और मौका मिलेगा तो और लूट लेंगे।
विधायकों और सांसदों की बात तो छोड़िए। पंच, सरपंच और पार्षद भी जिस गति से राजनीति के व्यवसाय में जिस तेजी से तरक्की करते हैं, वह चौंकाने वाली होती है। आपने भी अपने गांवों-शहरों ऐसे कई नेताओं को देखा होगा, जो सरपंच- पार्षद बनने से पहले साइकिल या दुपहिया वाहन पर चलते हैं। लेकिन कुछ महीनों में उनके पास लाखों रूपए के चारपहिया वाहन आ जाते हैं। जमीन-मकानों के मालिक बन जाते हैं। आप भी ऐसे कहीं राजनीतिग्यों को जानते होंगे, जिनकी आय का कोई ज्ञात स्रोत नहीं होता,लेकिन उनका रहन-सहन आलीशान होता है। इतना आलीशान की जनप्रतिनिधि के रूप में उन्हें मिलने वाले वेतन-भत्तों से तो वह इसे मेंटेन नहीं कर सकते हैं।
विधायक और सांसदों की तो बहुत ही छोड़िए। जाहिर है,इसके लिए जो तरीके अपनाए जाते हैं वह ईमानदार तो नहीं हो सकते। सत्ता में बने रहने के लिए या सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनीतिक दल भी ऐसे नेताओं को प्रोत्साहन देते हैं जो भ्रष्टाचार और बेईमानी के आरोप झेल रहे होते हैं। चुनाव से पहले हवा का रूख देखकर ऐसे नेता पाला बदल लेते हैं यानी उन्हें विचारधारा से कोई लेना देना नहीं होता सिर्फ अपनी राजनीति और कुर्सी से मतलब होता है।
ऐसे में देश में अब राजनीति विशुद्ध व्यवसाय और अवसरवाद का नाम हो गई। अब राजनीति में आने वाले भी इसे धंधा मानकर ही आते हैं। इसलिए चुनावों में टिकटों की मारामारी बढ़ती जा रही है और दावेदार बढ़ते जा रहे हैं। तभी तो पैसे लेकर टिकट देने की चर्चा भी चुनावों में होती हैं और ऐसी राजनीति के मामले में सभी राजनीतिक दल हमाम में नंगे हैं।*