घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने

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अपने विधानसभा क्षेत्रों में दो-दो, तीन-तीन चुनाव हारने वाले नेता आखिर दूसरे राज्यों में प्रचार करके कैसे वोट दिलाते होंगे

महेश कुमार अपने विधानसभा इलाके से लगातार दो बार विधानसभा का चुनाव एक राष्ट्रीय पार्टी के टिकट पर हार चुके हैं। इसी प्रकार श्रीमती कृष्णा एक ही विधानसभा क्षेत्र से लगातार तीन चुनाव हार चुकी हैं। दोनों ही नाम प्रतीकात्मक है। लेकिन राजस्थान में ऐसे कई नेता हैं, जो लगातार दो या तीन चुनाव अपने क्षेत्र से हार चुके हैं, लेकिन फिर भी इन दिनों दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के प्रत्याशियों का प्रचार करने वहां गए हुए हैं। इनमें कांग्रेस के नेता ज्यादा हैं। दिल्ली ही नहीं, दोनों पार्टियां यानि कांग्रेस और भाजपा अपने-अपने नेताओं को उन राज्यों में प्रचार करने के लिए भेजती है, जहां चुनाव होते हैं।

लेकिन सवाल ये है कि जो नेता अपने इलाके में ही लगातार चुनाव हारते हो, वह किसी दूसरे राज्य में जाकर मतदाताओं को अपनी पार्टी के पक्ष में वोट डालने के लिए कैसे प्रभावित कर पाते होंगे? चलिए, विधायक का चुनाव हारने वालों की छोड़िए, कई बार तो ऐसे नेताओं को प्रचार के लिए भेज दिया जाता है, जो अपने वार्डों का चुनाव यानी पार्षद चुनाव में भी पराजित हो चुके होते हैं और बड़े नेताओं की चंपी और चरणवंदना करके मनोनीत पार्षद या फिर संगठन के पदाधिकारी बनते हैं। लेकिन ये नेता (अगर आप मानो तो) वहां जाकर अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर ऐसे अपलोड करते हैं, मानो उनके जाने से चुनाव की हवा ही बदल गई हो। अपने अजमेर जिले के भी ऐसे कई नेताओं की तस्वीरें इन दिनों दिल्ली चुनाव में प्रचार करते हुए सोशल मीडिया पर देखी जा सकती है।

कोई उम्मीदवार जीत जाता है,तो उसके प्रचार में अजमेर से गए नेता बाद में सोशल मीडिया ये पोस्ट भी डालते हैं कि उसने भी वहां प्रचार किया था। मानो वो नहीं जाता तो पार्टी हार ही जाती। कैसी विडंबना है कि जिनका अपने इलाकों में कोई जनाधार नहीं है, वह दूसरे इलाकों में जाकर प्रचार करते हैं।

अक्सर राजनीतिक दल ऐसे नेताओं को उस विधानसभा क्षेत्र प्रचार को भेजते हैं, जहां उनके जातिगत मतदाता ज्यादा होते हैं। जैसे मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में मुस्लिम नेताओं को, वैश्य, जाट, राजपूत, गुर्जर को उनके बाहुल्य वाले इलाकों में या एससी, एसटी दलित नेताओं को उनके मतदाता बाहुल्य क्षेत्रों में। लेकिन सवाल फिर वही है कि ऐसे नेताओं को यह पार्टियां भी टिकट उनके जातिगत वोट बैंक के आधार पर ही तो देती है। लेकिन जब वह अपने क्षेत्रों में धराशाही हो जाते हैं, तो दूसरे राज्यों में जाकर क्या किसी को वोट दिला सकते हैं। जहां उन्हें कोई जानता-पहचानता तक नहीं है।

कांग्रेस के एक नेता से इसका कारण पूछा,जो खुद कभी चुनाव नहीं जीता, लेकिन जिस राज्य में भी चुनाव होते हैं, प्रचार को जाते हैं। बोला, इसका फायदा भले ही चुनाव में लड़ रहे प्रत्याशी को नहीं मिलता हो, लेकिन हमें तो मिल जाता है। इससे दूसरे नेताओं और कार्यकतार्ओं को पार्टी में हमारे महत्व अहसास होता है। (जबकि ऐसे नेताओं की जमीनी हैसियत सब जानते हैं)। फिर वहां रहकर पार्टी की ओर से आने वाले बड़े नेताओं से भी सम्पर्क हो जाता है।

आपको पता है ऐसे प्रचारक नेताओं को अपनी जेब से पैसा खर्च करना पड़ता है। पार्टी संगठन इन्हें प्रचार के लिए भेजती जरूर है, खर्चा नहीं देती। ऐसे में जो सयाने नेतख होते हैं,वो तो उम्मीदवार के माथे पड़ जातज हैं। लेकिन अधिकांश जेब से पैसा फूंकते हैं। जिसे ये अपने राजनीतिक भविष्य के लिए इन्वेस्टमेंट मानते हैं। जो हकीकत में पहले ही उनकी हार में वेस्ट हो चुका होता है। पार्टी उन्हीं नेताओं का खर्च उठाती है,जो स्टार प्रचारक की सूची में शामिल होते हैं। ऐसे नेताओं के लिए यह कहावत क्या खूब है कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने।

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