प्रयागराज में संगम पर स्नान के बाद वाराणसी में भगवान शंकर के साक्षात दर्शन
मुसलमानों को ज्ञानवापी मस्जिद पर अपना हक छोड़ देना चाहिए, क्योंकि मस्जिद की इमारत मंदिर के मलबे से बनी है
महाकुंभ की मेरी सपत्नीक यात्रा पर अब तक मैंने चार ब्लॉग लिखे हैं। जो 27 जनवरी से लगातार पोस्ट हो रहे है। मुझे खुशी है कि महाकुंभ यात्रा का वृतांत पाठक उत्सुकता के साथ पढ़ रहे हैं। मेरे साथ अजमेर से गए सभी सदस्यों ने 25 जनवरी की सुबह पांच बजे प्रयागराज में संगम घाट पर स्नान किया और फिर वापस अपने शिविर में आकर यज्ञ किया। कोई तीन बजे हमारा दल वाराणसी के लिए रवाना हुआ जो रात 9 बजे गंगा नदी के किनारे बने 80 घाटों पर पहुंच गया। रात को ही हमने मोटर बोट के जरिए 80 घाटों का नजारा देखा।
नमो घाट से लेकर राजा हरीश चंद्र और मणिकर्णिका घाट तक की दूरी करीब 8 किलोमीटर की है। बोट चालक संदीप ने बताया कि हरीशचंद्र घाट पर चौबीस घंटे दो तीन चिताएं जलती रहती है। वाराणसी ही नहीं आसपास के क्षेत्रों में के परिजन अपने परिवार के मृत सदस्य का अंतिम संस्कार इसी घाट पर करते हैं। ऐसा कभी नहीं हुआ जब घाट पर कोई चिता की अग्नि नजर न आए। देश भर के अनेक शव अंतिम संस्कार के लिए इस घाट पर लाए जाते हैं।
मान्यता है कि इस घाट पर अंतिम संस्कार होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। घाटों का रहस्यमयी और आकर्षक नजारा देखने के बाद हमारा दल पूर्व निर्धारित होटल पहुंच गया। रवाना होने से पहले बताया गया कि जिस गंगा नदी के पानी पर हमारी मोटर बोट चली वह पानी महाकुंभ का ही है। यानी वाराणसी में गंगा नदी प्रयागराज से आ रही है। 26 जनवरी को सुबह 6 बजे हमने काशी विश्वनाथ के मंदिर में भगवान शंकर के साक्षात दर्शन किए।
साक्षात दर्शन को लिखने से पहले मैं यह बताना जरूरी समझता हंू कि मंदिर परिसर में सुगम प्रवेश के लिए उत्तर प्रदेश के पत्रकार सचिन मुदगल और वाराणसी जोन के एडीजी पीयूष मोडिया का सहयोग रहा। यहां खासतौर से उल्लेखनीय है कि मोडिया अजमेर के नामा मदार क्षेत्र के निवासी है। उत्तर प्रदेश के पुलिस प्रशासन में मोडिया का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है, इसलिए वाराणसी पुलिस के कई अधिकारियों ने मुझसे अनेक बार सेवा की ताकि मंदिर दर्शन में कोई परेशानी न हो।
मैंने काशी विश्वनाथ मंदिर प्रबंधन के नियमों के अनुरूप प्रति व्यक्ति 250 रुपए का प्रवेश शुल्क भी जमा करवाया। मैं चाहता तो मंदिर परिसर में नि:शुल्क प्रवेश कर सकता था, लेकिन मैंने मंदिर प्रबंधन के जरूरी नियमों का पालन किया। महाकुंभ के श्रद्धालुओं के कारण काशी मंदिर में भी जबरदस्त भीड़ थी। यही वजह रही कि मंदिर परिसर में लंबा मार्ग तय कर हमें शिवलिंग तक पहुंचना पड़ा। एक आम श्रद्धालु की तरह मैंने भी शिवलिंग पर पूजा सामग्री के साथ साथ दूध अर्पित किया। जब मैं अपनी पत्नी अचला मित्तल के साथ दूध समर्पित कर रहा था, तब मुझे आभास हुआ कि भगवान शंकर साक्षात खड़े हैं। मुझे शिवलिंग के सामने जो अनुभूति हुई उसे मैं कभी नहीं भुला सकता।
हक छोड़ देना चाहिए
देश के जिन सनातनियों ने काशी विश्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद मंदिर में दर्शन किए हैं उन्होंने देखा कि मंदिर और निकट ही बनी ज्ञानवापी मस्जिद के बीच लोहे के सरिए की दीवार बनी हुई है। ताकि मंदिर में आने वाले लोग मस्जिद परिसर में न जा सके। इसी प्रकार मस्जिद परिसर में आने वाले लोग मंदिर में न आ सके, लेकिन जो लोग मंदिर परिसर में पहुंचते हैं, उन्हें साफ दिखता है कि मस्जिद की इमारत में मंदिर के मलबे का उपयोग हुआ है।
मस्जिद के गुंबद और अन्य स्थानों पर सनातन धर्म के चिह्न साफ देखे जा सकते हैं। मैंने यह भी देखा कि मस्जिद के नीचे एक स्थान पर सनातन धर्म के देवी देवताओं की मूर्तियां रखी हुई है और पुजारी नियमित पूजा पाठ कर रहा है। मस्जिद के नीचे बैठकर ही पुजारी श्रद्धालुओं के माथे पर तिलक लगाकर प्रसाद दे रहा है। इतिहास गवाह है कि 1669 ईस्वी में क्रूर मुगल शासक औरंगजेब ने काशी के मंदिर को तोड़कर ही मस्जिद का निर्माण करवाया था और इसलिए आज तक भी इस मस्जिद को ज्ञानवापी मस्जिद ही कहा जाता है। वापी शब्द उर्दू का नहीं संस्कृत भाषा का है, जिसका मतलब ज्ञान से है। इस्लाम धर्म में मस्जिद की पवित्रता के अनेक नियम बताए गए है। इन नियमों के तहत ही किसी मस्जिद का निर्माण किसी दूसरे धर्म की सामग्री से नहीं हो सकता और नहीं मस्जिद परिसर में किसी दूसरे धर्म की पूजा अर्चना हो सकती है।
यह माना कि प्लेस आॅफ द वर्शिप एक्ट को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में हुए सर्वे को सार्वजनिक करने पर रोक लगा दी है। हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद वर्षों तक यथास्थिति बनी रहे, लेकिन मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधियों को आगे आकर ज्ञानवापी मस्जिद पर अपना हक छोड़ देना चाहिए। इससे पूरे देश में सद्भावना का मजबूत संदेश जाएगा। सवाल किसी कानून और नियम का नहीं है, सवाल धार्मिक आस्था का है।
मुझे बताया गया कि ज्ञानवापी मस्जिद में नमाज के लिए बहुत कम मुसलमान आते हैं। संभवत: इसका कारण मस्जिद के निर्माण में काम में लगाई गई सामग्री है, जब मस्जिद के नीचे तहखाने में पूजा पाठ हो रही है, तब मस्जिद में नमाज का कितना धार्मिक महत्व है, इसके बारे में इस्लामिक विद्वान ही बता सकते हैं। वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद पर मुस्लिम विद्वानों को पुनर्विचार करना चाहिए।