नागा साधु अपना अंतिम संस्कार स्वयं करते हैं

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प्रयागराज। खुद का पिंडदान…जीवन की हर मोह माया से मुक्ति। शिव में रहना, शिव में जीना, शिव के रूप में सांस लेना और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाना। एक नागा साधु की जिंदगी का बस यही लक्ष्य होता है। संन्यासी अपना अंतिम संस्कार स्वयं करते हैं, ऐसे में मन में सवाल आता है कि जब इनकी मृत्यु होती है तो उसके बाद क्या होता है? क्योंकि संन्यासियों को तो जलाया नहीं जाता।

महाकुंभ की गलियां मुक्ति के मार्ग की ओर भी ले जाती हैं। आपको यहां बहुत सारे ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना चाहते हैं। यहां साधना के ऐसे माध्यमों को खोजने की कोशिश होती है, जिससे 84 लाख योनियों में जन्म लेने के चक्र से मुक्ति पाई जा सके। महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित पद्म पुराण में 84 लाख योनियों का वर्णन मिलता है। इसमें यह भी बताया गया है कि 30 लाख योनियां धरती पर रहने वाले जीव-जंतुओं की हैं।

20 लाख योनियां पेड़ पौधों पर रहने वाले जीव जंतु की। 11 लाख योनियां कीड़े-मकोड़ों की और 9 लाख योनियां जल में रहने वाले जीव जंतुओं की हैं। इसके साथ ही 10 लाख योनियां आकाश में उड़ने वाले पक्षियों की हैं और बाकी 4 लाख योनियां मनुष्य की होती हैं। आमतौर पर माना जाता है कि मुक्ति के लिए अंतिम संस्कार की प्रक्रिया से गुजरना होता है, तो ऐसे में मन में सवाल उठता है कि नागा संन्यासियों का जब अंतिम संस्कार नहीं होता तो वो मुक्ति कैसे प्राप्त करते हैं?

इन सब सवालों को लेकर जूना अखाड़ा के श्री वैभव गिरी से संपर्क किया गया। उन्होंने बताया कि यह बात सही है कि नागा संन्यासियों को जलाया नहीं जाता। नागा संन्यासी को या तो जल समाधि दी जाती है या फिर उन्हें फिर उन्हें भू-समाधि दी जाती है। कई बार नागा संन्यासी खुद भी इस बात की इच्छा जाहिर कर देते हैं कि उनके शरीर को त्यागने के बाद उनके साथ इन दोनों प्रक्रियाओं में से कौन सी की जाए। लेकिन उससे पहले नागा को विधिवत एक प्रक्रिया से गुजारा जाता है।

नागा साधु अपनी मां गंगा से मिलने के पहले 21 शृंगार करते हैं, लेकिन जब वो शरीर को त्याग देते हैं तो फिर उनके 17 शृंगार किए जाते हैं। 21 शृंगार में प्रवचन और मुधुर वाणी भी है जो मृत्यु के शृंगार में शामिल नहीं होते हैं। इसके साथ ही साधना और सेवा नाम के दो शृंगार को भी हटा दिया जाता है।

इसके बाद होने वाले शृंगार इस प्रकार हैं-
भभूत : क्षणभंगुर जीवन की सत्यता का आभास कराती है भभूत। इसे मौत के बाद भी नागा साधु के शरीर पर मलते हैं।
चंदन : हलाहल का पान करने वाले भगवान शिव को चंदन अर्पित किया जाता है। नागा साधु भी हाथ, माथे और गले में चंदन का लेप लगाते हैं।
रुद्राक्ष : रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई है। नागा साधु सिर, गले और बाजुओं में रुद्राक्ष की माला धारण करते हैं।
तिलक : माथे पर लंबा तिलक भक्ति का प्रतीक होता है।
सूरमा : नागा साधु आंखों का शृंगार सूरमा से करते हैं।
कड़ा : नागा साधु हाथों व पैरों में कड़ा पीतल, तांबें, सोने या चांदी के अलावा लोहे का कड़ा पहनते हैं। मान्यता है कि भगवान शिव भी पैरों में कड़ा धारण करते हैं।
चिमटा : चिमटा एक तरह से नागा साधुओं का अस्त्र भी माना जाता है। नागा साधु हमेशा हाथ में चिमटा रखते हैं।
डमरू : भगवान शिव का सबसे प्रिय वाद्य डमरू भी नागा साधुओं के शृंगार का हिस्सा है।
कमंडल : जल लेकर चलने के लिए नागा साधु अपने साथ कमंडल भी धारण करते हैं।
जटा : नागा साधुओं की जटाएं भी एकदम अनोखी होती हैं। प्राकृतिक तरीके से गुथी हुई जटाओं को पांच बार लपेटकर पंचकेश शृंगार किया जाता है।
लंगोट : भगवा रंग की लंगोट को नागा साधु धारण करते हैं।
अंगूठी : नागा साधु हाथों में कई प्रकार की अंगूठियां धारण करते हैं। हर एक अंगूठी किसी न किसी बात का प्रतीक होती है।
रोली : नागा साधु के माथे पर भभूत के अलावा रोली का लेप भी लगाया जाता है।
कुंडल : नागा साधु कानों में चांदी या सोने के बड़े-बड़े कुंडल धारण करते हैं, जो सूर्य और चंद्रमा के प्रतीक माने जाते हैं।
माला : नागा साधुओं की कमर में माला भी उनके शृंगार का हिस्सा होती है।

सिंहासन पर बैठाकर दी जाती है समाधि

इसके बाद उन्हें सिंहासन पर बैठाया जाता है, चूंकि मृत शरीर को बैठने में दिक्कत होती है तो उन्हें सिंहासन के साथ बांध दिया जाता है। अंत में नागा संन्यासी की जैसी इच्छा होती है उसके अनुसार उन्हें जल समाधि या भू-समाधि दे दी जाती है। एक बार सिंहासन पर बैठाने के बाद उन्हें उतारा नहीं जाता बल्कि सिंहासन के साथ ही समाधि दे दी जाती है।

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