कब तक पत्रकारों की लाश सेफ़्टी टैंक में मिलती रहेंगी?
कब सरकार की खुलेंगी आँखे?
……और फिर एक जांबाज पत्रकार की हत्या कर दी गई। बीजापुर के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की लाश को हत्या के बाद सेफ़्टी टैंक में दफ़्न कर दिया गया। हत्या का मास्टरमाइंड फरार है। यह सनसनी खेज हत्या देश में पहली नहीं है।
मेरे शोध के मुताबिक विश्व में 1997 से लेकर 2025 के बीच 2000 से जिÞयादा पत्रकारों की हत्या हुई हैं। इसमें भारत में 1997 से 2024 के बीच कुल 104 पत्रकारों की हत्या हुई है। भारत में 2014 से 2020 के बीच 27 पत्रकार मारे गए। जबकि 2009 से 2013 के बीच 22 पत्रकारों की हत्या हुई ।
भारत में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर कोई देश व्यापी कानून नहीं। विश्व में सबसे असुरक्षित पत्रकार भारत में ही हैं। विदेशों में इनकी सुरक्षा के कठोर कानून बने हुए हैं लेकिन भारत में पत्रकारों को बचाने के लिए किसी तरह का कोई प्रावधान नहीं। अपराधी! राजनेता! माफिया! सब पत्रकारों के लिए दुश्मन हैं।जरा किसी का मुखौटा उतारने पर पत्रकार की जान पर बन आती है। आए रोज देश में पत्रकारों पर हमले होते रहते हैं।
सच्चाई उजागर करने का मतलब ही हत्या या हमला है। खान माफिया! भूमाफिया! शराब माफिया! दवा माफिया! तस्करों के गिरोह! जो देश की जड़ों को खोखला कर रहे हैं! समाज को अंधेरी सुरंगों में धकेल रहे हैं ! उनके विरुद्ध न तो कोई बिका हुआ राजनेता बोलता है न किस्तों में बिके हुए अधिकारी! सरकार तो जैसे पत्रकारिता के सुरक्षा के लिए बनी ही नहीं है।
बेचारा सच्चाई के लिए जान जोखिम में डाल कर चलने वाला पत्रकार ही है जो जुबान खोलता है।कलम चलाता है और वही जान से हाथ धो बैठता है। उसकी मौत के बाद उसके परिवार को पूछने वाला भी कोई नहीं बचता।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कह कर पत्रकारिता को सम्मान तो दे दिया जाता है लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आता। कभी कभी तो लगता है कि इस देश को सच बोलने वाले पत्रकारों की जरूरत ही नहीं!
क्या कोई जवाब देगा कि समाज को पत्रकारों की जरुरत है भी या नही?
समाज को मजबूत बनाने वाला पत्रकार आज सबसे कमजोर है।
मुझे याद आता है अजमेर का वो ब्लैक मेल कांड जिसे उजागर करने के कारण कुंदन नगर में घर जाते समय मुझ पर जान लेवा हमला हुआ था। मुझे लगभग मरा हुआ मान कर हमलावर फरार हो गए जो आज तक पुलिस की पकड़ से बाहर हैं।
आप ताज्जुब करेंगे कि देश मे जितने भी पत्रकारों की हत्या हुई उनमें से किसी के भी हत्यारों को सजा नहीं हुई। हमलवारों को खुला छोड़ दिया गया।
दुख की बात तो यह है कि जब किसी अबोध बालिका को बलात्कार के बाद मार दिया जाता है तो समाज उद्वेलित हो जाता है। कैंडल मार्च निकाले जाते है! संवेदनाएं व्यक्त की जाती हैं मगर पत्रकारों की हत्या के बाद उनके लिए समाज इतना भी नहीं करता। यह दुखद आश्चर्य की बात नहीं तो और क्या है।
दोस्तों! यही वजह है कि कुछ बड़े हो गए शातिर पत्रकार सच्चाई से समझौता कर चुके हैं। उनको आत्मबोध हो चुका है कि सच्चाई और समाज को सुरक्षित करने का मतलब बेकार में जान जोखिम में डालना है। उन्होंने भी अन्य लोगों की तरह सत्ता और माफियायों से हाथ मिला लिए हैं। देश के कुछ ऊँचा दबदबा रखने वाले पत्रकार तो इतने ऊंचे हो गए हैं कि उनको सच्चाई उजागर करने की बीमारी ही नहीं लगी।
ऐसे पत्रकार चाहे मुठ्ठी भर ही हों लेकिन हैं।पत्रकारिता के ऐसे कलंक आपको प्रधानमंत्री और अन्य राजनेताओं के साथ विदेश यात्राओं पर मौज मस्ती करते दिख जाएंगे।
राजस्थान के ऐसे दर्ज़न भर अखबार के मालिकों को मैं जानता हूँ जो अखबार निकालते है इसलिए ही पत्रकार कहलाते हैं। जिनको पत्रकारिता का “प” अक्षर नहीं आता मगर सरकार उनके लिए जो हुक़्म मेरे आका के अंदाज में खड़ी नजर आती है।
पत्रकार विजय त्रिवेदी के शब्दों में कहूँ तो इन दिनों पत्रकारिता का भक्ति काल चल रहा है।भक्ति कालीन पत्रकार मौज उड़ा रहे हैं और जान जोखिम में डाल कर पत्रकारिता करने वालों की लाशें सेफ़्टी टैंकों में मिल रही हैं।
महानगरों में तो हाल यह है कि कुछ पत्रकारों की गोद में राजनेता बैठे हैं तो कुछ पत्रकार राजनेताओं की गोद में बैठे हैं।
मुझ पर सच बोलने का भूत सवार है। राजनेताओं और माफियायों के मैं हमेशा नेजे पर रहता हूँ। अब तक जानलेवा हमले के अलावा दर्जन भर मुकदमे मुझ पर ठोके गए। आज भी क्रम जारी है।
यहाँ अंत में मेरे ईमानदार पत्रकार साथियों से मैं आग्रह करना चाहूँगा कि एक हो जाएं! पत्रकारिता हमारे लिए सूली पर चढ़ने का शौक नहीं! हम यदि समाज को सुरक्षा दे रहे रहे हैं तो समाज को भी हमारी सुरक्षा के लिए सोचना होगा। सरकार को भी इसके लिए कठोर कदम उठाने होंगे।
पत्रकार दोस्तो! हम अगर बंटेंगे! तो हंड्रेड परसेंट कटेंगे। एक हो जाओ। कहीं किसी भी पत्रकार पर किसी भी तरह का वार हो उसका मिलकर सामना करो। यही एक रास्ता बचा है वरना सेफ़्टी टैंक में हमारी भी लाश किसी दिन बरामद होगी।