नौ जिले और तीन संभाग खत्म करने का असर चुनाव में ही दिखेगा और वह लंबे समय तक वह नहीं होने,तब तक भाजपा इस मुद्दे को गौण करने में हो सकती है कामयाब
कांग्रेस के लिए आंदोलन लम्बा खींचना होगा मुश्किल
क्या भजनलाल सरकार के 9 जिले और तीन संभाग खत्म करने का फैसला लेने में राजनीतिक और रणनीतिक तौर पर पूरी समझदारी दिखाई गई है? जिले समाप्त करने से जाहिर है कांग्रेस को बड़ा मुद्दा मिल गया है और वह एक जनवरी से राज्यव्यापी आंदोलन करने की घोषणा कर चुकी है, साथ ही कई जिलों में भी लोग और खुद भाजपा कार्यकर्ता विरोध पर उतर गए हैं? लेकिन भाजपा को पता है कि ऐसे फैसलों का नुकसान चुनावों में होता है और फिलहाल निकट भविष्य में पंचायत से लेकर लोकसभा तक के चुनाव नहीं है।
एक राज्य एक चुनाव पर काम कर रही भजनलाल सरकार को फिलहाल राजनीतिक रूप से नुकसान की आशंका नहीं है। इस फैसले की पहली परीक्षा पंचायत चुनावों में होगी और उसमें अभी वक्त है। 6759 ग्राम पंचायत का जनवरी तथा 704 ग्राम पंचायतों का कार्यकाल मार्च में खत्म हो जाएगा। लेकिन सरकार ने पंचायतों, पंचायत समितियों, जिला परिषदों के पुर्नगठन की घोषणा कर दी है। पंचायत चुनावों के बाद नगर निकायों के चुनाव होंगे।
यानी अगले साल के मध्य या अंत तक कोई राजनीतिक चुनौती नहीं मिलेगी। तब तक सरकार जिले समाप्त करने के फैसले को कवर करने के लिए इन इलाकों के विधायकों एवं बड़े भाजपा नेताओं को सत्ता और संगठन में भागीदारी देने के साथ ही बजट में इनके लिए नई योजनाएं घोषित कर जख्मों पर मरहम लगा सकती है। एक सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस आंदोलन को इतना लंबा खींच सकती है? जबकि वह संगठनात्मक स्तर पर बुरी तरह से बिखरी है।
विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने जो वादे किए थे,उनमें से एक गहलोत सरकार द्वारा चुनाव से एन पहले बनाए गए जिलों और संभागों की समीक्षा बड़ा वादा था। साल भर में पूरा करके भजनलाल शर्मा ने खुद को पर्ची वाले मुख्यमंत्री से बड़ा फैसला लेने वाला मुख्यमंत्री साबित किया है। जिस तरह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को नए जिले बनाने का कांग्रेस को राजनीतिक लाभ नहीं मिला था,वैसे ही भाजपा को जिले समाप्त करने का राजनीतिक नुकसान होने की उम्मीद नहीं है।
गहलोत को उम्मीद थी कि नए जिले बनने से वहां के मतदाता कांग्रेस को वापस सत्ता मिलने में अपनी भागीदारी निभाएंगे।लेकिन जिन 9 जिलों को खत्म किया गया है। उनमें ही कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा है। गहलोत ने जो 17 नए जिले बनाए थे, उनमें 51 विधानसभा सीटें थी। लेकिन पिछले साल हुए चुनावों में कांग्रेस बीस सीटें ही जीत सकी। जबकि भाजपा ने 29 जीती। जबकि 2018 में जिले बनाने से पहले कांग्रेस ने इन 51 में से 21और भाजपा ने सिर्फ 12 सीटें जीती थी।
गहलोत ने रामलुभाय कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर नए जिले बनाए थे। लेकिन वह आधार क्या थे, यह गहलोत सरकार ने नहीं बताया था। इसी प्रकार भजनलाल सरकार ने ललित पवार कमेटी की सिफारिश के आधार पर नौ जिलों का समाप्त किया है। लेकिन सिफारिशों का आधार क्या है, क्या है उन्होंने सार्वजनिक नहीं किया है। यानी ना तो नए जिले बनाते समय और ना ही खत्म करते समय उनकी रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया।
इसमें कोई शक नहीं की प्रशासनिक कार्य कुशलता एवं लोगों को करीब जिला मुख्यालय उपलब्ध कराने के लिए नए जिलों का गठन होना चाहिए। राजस्थान के क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटे होते हुए भी मध्य प्रदेश, गुजरात में यहां से ज्यादा जिले हैं। लेकिन सवाल ये है कि गहलोत ने 5 साल सरकार में रहने के बावजूद एक भी नया जिला नहीं बनाया। लेकिन चुनाव से कुछ महीने पहले ही 17 जिलों की घोषणा कर डाली। इनमें कुछ तो ऐसे भी थे, जहां के लोग इसकी मांग ही नहीं कर रहे थे और जब उनके शहरों को जिला बनाया गया, तो वे खुद चौंक पड़े।
और तो और आचार संहिता लगने के कुछ दिन पहले ही मालपुरा, सुजानगढ़ और कुचामन सिटी को भी जिला बनाने का फैसला किया गया। प्रशासनिक ढांचा तैयार किए बिना और वित्तीय तथा अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराए बिना बनाए गए इन जिलों का मकसद साफ तौर पर राजनीतिक लाभ लेना ही था। लेकिन कांग्रेस इसमें नाकाम रही।