फिर नए अंदाज में कलम
जंगल में रहने वाले पैंथर आदमियों का शिकार कर रहे हैं। उनको पता नहीं कि घात लगाकर मारने में चीते आदमी से आगे नहीं निकल सकते। चीतों को घात लगाकर मारने का हुनर जन्म जात मिला होता है जबकि आदमी धीरे धीरे यह हुनर सीखता है और चीतों से कहीं आगे निकल जाता है।
पैंथर्स जंगल छोड़ कर शहरों की तरफ आ रहे हैं। मवेशियों और लोगों का शिकार करने! हाल ही में 7 लोगों को। मौत के घाट उतारने वाले पैंथर ने खौफनाक तहलका मचाया। अलग बात है आदमियों ने उसको भी निर्ममता से मार दिया।
आज का विषय फिर एक बार बिल्कुल अलग है। पैंथर से बात शुरू जरूर की है मगर इसे पैंथर से कहीं आगे कुत्ते बिल्लियों और बन्दर तक ले जाऊँगा। बात को कहीं से कहीं ले जाने की मेरी आदत बहुत पुरानी है।
पैंथर जंगल और पहाड़ों में रहते हैं। जंगल हमने काट दिए हैं। पहाड़ों पर हमने सीमेंट की आलीशान गुफाएँ बना ली हैं। बेचारे जंगली जानवर शहर की तरफ रुख न करें तो कहां जाएं?
जानवरों का भोजन जानवर होते हैं। वही उनका फास्ट फूड होता है मगर हम भी उनसे बेहतरीन शिकारी हो चुके हैं। उनके भोजन को छीन कर खाने में हमारा कोई मुकाबला नहीं। हमने जंगल को जानवरों से खाली कर दिया है। अब वे शहर की तरफ आ रहे हैं।विभुक्षितम किम न करोति पापम? भूखा क्या पाप नहीं करता?
हम जब पैंथर मार देते हैं तो हमको कोई गोली नहीं मारता। पैंथर हमको मार दे तो हम उसके खून के प्यासे हो जाते हैं। चैन से नहीं बैठते जब तक पैंथर को मार नहीं देते।
सड़कों पर गाय भैंस! गलियों में। अनाप शनाप कुत्ते! घरों में बंदरों का आतंक! मुझे तो लगता है कि हम शहरों में नहीं जंगलों में रह रहे हैं। अजगर कोबरा और न जाने कितनी प्रजातियों के सर्प हमारे घरों के आसपास अंदर बाहर विचरण करते नजर आ जाते हैं।
आखिर यह हो क्या रहा है। हमारे अंदर जितने पैंथर! सूअर! हिरण! साँप! कुत्ते! बिल्ली! बन्दर रह रहे हैं और समय समय पर बाहर आकर अपने करतब दिखा जाते हैं क्या उनसे हमारा काम नहीं चलता?
क्या इन जानवरों को हम अंदर की जगह बाहर से मार कर भगा देना चाहते हैं?
और लीजिए! लंबी भूमिका के बाद मेरा असली आर पार! असली ब्लॉग।
देश की राजधानी दिल्ली में बंदरों के बढ़ते आतंक पर दिल्ली हाई कोर्ट ने साफ आदेश दिए हैं। कोर्ट ने कहा है कि कुत्तों और बंदरों को शहर पर कब्जा नहीं करने दिया जा सकता है। लोगों के भी मौलिक अधिकार हैं। हम आवारा जानवरों के साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार करेंगे लेकिन इंसानों के साथ भी सम्मानपूर्वक व्यवहार करने की आवश्यकता है। इसके लिए तंत्र विकसित करना होगा।
कोर्ट ने सभी बंदरों को असोला वन्य जीव अभ्यारण्य में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने दिल्ली के मुख्य सचिव को नई दिल्ली नगर पालिका! परिषद दिल्ली !नगर निगम दिल्ली! छावनी बोर्ड और वन विभाग के प्रमुखों को बुलाकर दो टूक निर्देश दिए है।
मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्याय मूर्ति तुषार राव गडेला की पीठ ने कहा कि समाज में दिव्यांगों से लेकर विभिन्न समूह के लोग रहते हैं। दुनिया में कहीं भी नहीं पाएंगे कि शहर पर बंदर और कुत्तों ने कब्जा कर लिया हो। पीठ ने निर्देश दिया कि बंदरों को दिल्ली के असोला भारती वन्य जीव अभ्यारण्य में स्थानांतरित किया जाए।
धनंजय संयोगिता फाउंडेशन की तरफ से पेश हुए प्रवक्ता राहुल बजाज ने कहा कि दृष्टिबाधितों की छड़ी को जानवर खतरा मानते हैं और इसलिए उन पर हमला कर देते हैं। पीठ ने कहा दिव्यांगों को शहर में सड़कों पर चलने का मौलिक अधिकार है।
अब अदालत को कौन समझाए कि जिस दिल्ली में शेर, चीते, भेड़िए, लक्कड़बग्गे! संसद से सड़कों तक भेष बदल बदल कर घूम रहे हों वहां बंदरों को अभ्यारण्य में छोड़े जाने से क्या होगा?
बन्दरों को अभयारण्य में सिर्फ छोड़ देने से होगा क्या?क्या भूख प्यास के शिकार होकर वे फिर शहर में नहीं आ जाएंगे?
दूसरी बात जो जिÞयादा महत्वपूर्ण है वह यह कि क्या दिल्ली में ही बन्दरों से लोगों को खतरा है? क्या दिव्यांग सिर्फ दिल्ली में ही रहते हैं?
यह तो पूरे देश की समस्या है। बन्दरों और कुत्तों का आतंक तो पूरे देश में व्याप्त है। सरकार और सर्वोच्च न्यायालय इनको किसी अभ्यारण्य या हिमालय पर छोड़ने के आदेश क्यों जारी नहीं करता?
एक और मजेदार बात! अजमेर के एक शख्स भूपेन्द्र चतुवेर्दी (मेरा छोटा भाई) ने अयोध्या में नवनिर्मित राम भवन के उद्यान को विकसित करने और रखरखाव करने का काम ठेके पर लिया। शर्त यह लगाई कि उद्यान में बंदरों की टोलियों को आने से नहीं रोका जाएगा। उनको भगाया नहीं जाएगा। वे हनुमान जी की सेना के फौजी हैं। जरा सोचिए कि फल फूल वाले उद्यान में बंदरों के उत्पात को रोके बिना उसे विकसित करना कितना असंभव काम है मगर भाई कर रहा है।
क्या अयोध्या और दिल्ली अलग अलग देश में हैं?
दिल्ली के न्यायालय क्या देश से अलग हैं?
मित्रों! हिंसक भीड़ में तब्दील हो गए इस देश को जानवरों से बचाने की जितनी जरूरत है उतनी बेचारे जंगली जानवरों को नहीं! बाकी अदालतें जानें। विद्वान योर आनर जानें!
सुरेंद्र चतुर्वेदी
सुरेन्द्र चतुर्वेदी की साहित्य की कई विधाओं में पचास के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं | फिल्मी दुनिया से भी सुरेन्द्र चतुर्वेदी का गहरा जुड़ाव रहा है ,जिसके चलते उन्होंने लाहौर, तेरा क्या होगा जानी, कुछ लोग, अनवर, कहीं नहीं, नूरजहां और अन्य तमाम फिल्मों में गीत लिखे, पटकथा लिखीं. पंजाबी, हिंदी, उर्दू आदि कई भाषाओं पर अधिकार रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी अपने ऊपर सूफी प्रभावों के कारण धीरे-धीरे सूफी सुरेन्द्र चतुर्वेदी के रूप में पहचाने जाने लगे. यों तो उन्होंने अनेक विधाएं आजमाईं पर ग़ज़ल में उनकी शख्सियत परवान चढ़ी. आज वे किसी भी मुशायरे की कामयाबी की वजह माने जाते हैं.उनकी शायरी को नीरज, गुलज़ार, मुनव्वर राणा जैसे शायरों ने मुक्तकंठ से सराहा है. गुल़जार साहब ने तो जैसे उन्हें अपने हृदय में पनाह दी है. वे राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान एवं अन्य कई सम्मानों से नवाजे गए हैं | कानपुर विश्वविद्यालय से मानद डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित चतुर्वेदी इन दिनों अजमेर में रह रहे हैं |
चौथी कक्षा में जिंदगी की पहली कविता लिखी | कॉलेज़ तक आते-आते लेख और कविताएं तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगीं. जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, दिनमान, सारिका, इंडिया टुडे आदि |