संसार ही समुद्र है, जीवन मंथन ही समुद्र मंथन है, संसार समुद्र का मंथन करके ज्ञान और भक्तिरुपी अमृत का पान करने वाला अमर हो जाता है, मन मंदराचल एवं प्रेम डोर वासुकि नाग है, जीवन के सोलहवें वर्ष मे मनोमंथन शुरू होता है, युवावस्था में पूर्वजन्म के संस्कार जागृत होने लगते हैं, उस समय अपने मन को मंदराचल की भाँति स्थिर करना चाहिए।
जब मंदराचल डूबने लगा तो भगवान ने कूर्मावतार लेकर अपनी पीठ पर उसे धारण कर लिया,अपने मन को भी ठाकुरजी के किसी स्वरुप में स्थिर करना चाहिए, मन स्वभावत: साकार वस्तु का ही दर्शन कर पाता है, जब सगुण का साक्षात्कार भली भाँति हो जाता है तभी निर्गुण में मन स्थिर हो पाता है। निराधार मन (मंदराचल) स्थिर नहीं हो पाता अत: उसे भगवत स्वरुप (कच्छप), भगवन्नाम के आधार की आवश्यकता है, समुद्र मंथन के समय समुद्र में अनेक औषधियाँ डाली गयी़।
औषधि का एक अर्थ है दवा, दूसरा अर्थ है अन्न, जल एवं अन्न औषधि ही है, शरीर में इनको आवश्यकतानुसार ही देना चाहिए, भूख और प्यास को रोग मानकर इन्हें सहन करने की आदत डालनी चाहिए, जिस प्रकार रोग मिटाने के लिए औषधि ली जाती है, उसी प्रकार अन्न जल का प्रमाणानुसार ही सेवन करना चाहिए, शरीर हलका रहने पर ही भजन ठीक से हो सकेगा।
समुद्र का मंथन करते समय प्रथम विष निकला और अन्त में अमृत, मन को स्थिर करके प्रभू के पीछे लगने पर वे पहले विष ही देते हैं, किन्तु उसे सहन कर लेने पर अमृत भी देगें, महापुरुषों ने विविध कष्टरुपी विष का पान किया था, दु:खों को सहन किया था अत: उन्हें ज्ञानामृत मिला।
जीवन मंथन के आरम्भ मे विष ही मिलेगा, मंथन यौवन से ही शुरू हो जाता है, पहले विषय मिलेंगे जो विष जैसे ही हैं,क्षनिंदा और कर्कश वाणी विष ही हैं,निंदा रुपी विष सहन करने पर ही अमृत मिलेगा, प्रतिकूल परिस्थिति भी विष ही है, दु:ख भी विष ही है, विष की दुर्गन्धि देवों से सही न गयी तो प्रभू ने विषपान के लिए शंकर को बुलाया, जिसके सिर पर ज्ञानगंगा होती है, वही विष को पचा सकता है, संसार का विष सभी को जलाता है, किन्तु ज्ञानगंगाधारी को नहीं जला सकता।
भगवान शंकर की भाँति ज्ञानगंगा को सिर पर धारण करने पर विष सहन करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है। शिवजी की पूजा करने से कर्कश वाणी एवं निंदा रुपी विष सहन करने की शक्ति मिलती है, निंदा शब्द रुप होने के कारण उसका सम्बन्ध आकाश के साथ होता है , आत्मा के साथ नहीं ऐसा मानकर निंदा सह लेनी चाहिए।
अन्य को सुखी करने के लिए जो स्वयं दु:ख सह ले, वही शिव है, स्वयं को सुखी करने के लिए दूसरों को दु:खी करे वह जीव है, दूसरों का हित करने हेतु जो अपना स्वार्थ छोड़ दे वह शिव है।
शिवजी ने भगवत स्मरण करते विषपान किया, विष को गले में ही रखा पेट में नहीं उतारा, किसी को कटु शब्द सुनाने की इच्छा हो जाए तो उसे गले में रोक लेना चाहिए मुख पर न आने दें, विष गले में रखा जाता है, इसे न तो बाहर निकालना है और न पेट में उतारना है, निंदा की ओर ध्यान ही न दें, किसी द्वेष को याद न करें, विष को पेट में कभी मत रखें कर्कश वाणी विष ही है।शिवजी ने विष को कंठ में ही रखा हुआ है, संसार में विष भी है और अमृत भी, जो विष को पचा सकेगा उसे अमृत मिलेगा, कृष्ण कीर्तन ही अमृत है।
सोलवें वर्ष से जीवन में मंथन शुरू होता है, मन में वासना का विष उत्पन्न होता है, उस समय मन को मंदराचल सा स्थिर कर लेने पर संसार से भक्ति और ज्ञानरुपी अमृत प्राप्त होगा,फिर मानव अमर हो जायेगा, इस तरह जिसे भक्ति और ज्ञान मिलेगें, उसकी मृत्यु नहीं होगी।