राजमाता विजयाराजे अपने इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया से चिढ़ती थीं?

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हाथी से कुचलवाने का था मन

30 सितंबर 2001 उस दिन रविवार था। दोपहर के करीब एक बजे रहे थे। मौसम खराब था और आसमान में काले बादल मंडरा रहे थे। कांग्रेस के कद्दावर नेता माधवराव सिंधिया उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में एक रैली को संबोधित करने जा रहे थे। जब उनका सेसना सी-90 विमान मैनपुरी के करीब पहुंचा तो अचानक उसका संतुलन बिगड़ गया और फिर चंद सेकेंड के अंदर जहाज हवा में लहराते हुए जमीन पर आ गिरा। जहाज में आग लग गई। आसपास के गांव वाले कीचड़ में सने जहाज की तरफ लपके। जब तक आग बुझा पाते, तब तक सबकुछ खत्म हो गया था। विमान में सवार माधवराव सिंधिया की मौके पर ही मौत हो गई। उस वक्त उनकी उम्र महज 56 साल थी।

आक्सफोर्ड से लौटे तो राजनीति में उतरे

10 मार्च 1945 को मुंबई (तब बंबई) में जन्मे माधवराव सिंधिया की शुरूआती पढ़ाई लिखाई ग्वालियर में हुई। इसके बाद आॅक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चले गए। वहां से लौटे तब तक राजशाही खत्म हो चुकी थी। सिंधिया भी सियासी अखाड़े में उतर गए। उन्होंने साल 1971 में पहली बार चुनाव लड़ा और जनसंघ के समर्थन से लोकसभा में पहुंचे। हालांकि साल 1979 में माधवराव ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। कांग्रेस वही पार्टी थी, जिससे कभी उनकी मां और ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी सियासत शुरू की थी। बाद में राजमाता ने कांग्रेस से किनारा कर लिया और फिर भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक बनीं।

माधवराव की मां विजयाराजे से तल्खी कैसे शुरू हुई

माधवराव सिंधिया ने जब कांग्रेस का हाथ थामा तो उनकी विजयाराजे खासा नाराज हुईं। उन्होंने बेटे को हर तरीके से मनाने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। फिर मां-बेटे के संबंध तल्ख होते चले गए। हालांकि माधवराव और राजमाता के संबंधों में तल्खी की शुरूआत 1972 के आसपास ही शुरू हो गई थी। 30 सितंबर 1991 के इंडिया टुडे के अंक में वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह लिखते हैं कि माधवराव सिंधिया ने खुद उनसे बताया कि 1972 में जब वह जनसंघ छोड़कर कांग्रेस की सदस्यता लेना चाह रहे थे तब उनकी मां ने इसका तीखा विरोध किया और फिर दोनों के बीच बातचीत कम हो गई।

हालांकि मां-बेटे के संबंध कभी बहुत अच्छे थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि उनकी और माधवराव के संबंध कभी बहुत दोस्ताना थे। इतने कि माधवराव अपनी मां से अपनी महिला मित्रों तक की चर्चा किया करते थे।

सरदार आंग्रे से करीबी पर चिढ़ते थे माधवराव

तमाम इतिहासकार माधवराव और विजयाराजे सिंधिया के रिश्तों में खटास के पीछे सरदार आंग्रे को भी जिम्मेदार ठहराते हैं, जो राजमाता के के दाहिने हाथ की तरह थे। आंग्रे का परिवार लंबे समय से सिंधिया राजघराने का करीबी रहा था। वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई अपनी किताब द हाउस आॅफ सिंधियाज में लिखते हैं कि माधवराव सिंधिया को अपनी मां पर सरदार आंग्रे का प्रभाव कतई पसंद नहीं था। माधवराव को लगता था कि सरदार आंग्रे के कहने पर राजमाता उनके परिवार के पैसे को ऊलजलूल खर्च कर रही हैं। यहां तक कि आंग्रे का परिवार भी उनके पैसों का फायदा उठा रहा है।

बेटे को हाथी के नीचे कुचलवाना चाहती थीं राजमाता

राजमाता ने सिंधिया परिवार की तमाम जमीनें और दूसरी संपत्ति औने-पौने दाम पर बेच दी और कहा गया कि इन सौदों में भी सरदार आंग्रे शामिल थे और उन्हें कमीशन मिला था। वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल बीबीसी हिंदी पर एनके सिंह के हवाले से लिखते हैं कि राजमाता को एक और बात बहुत खराब लगी थी। वह यह कि इमरजेंसी के दिनों में जब राजामाता जेल गईं तब उनका बेटा उन्हें छोड़कर नेपाल भाग गया।

इससे उनके दिल को गहरी ठेस पहुंची थी। एनके सिंह कहते हैं कि एक दफा माधवराव सिंधिया ने खुद उनसे बताया कि उनकी मां उनसे इतनी नाराज थीं कि यहां तक कह दिया कि उन्हें हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया जाना चाहिए।

माधवराव सिंधिया ने जब 1971 में पहली बार चुनाव लड़ा तब वह 26 साल के थे। इसके बाद वो लगातार नौ बार सांसद रहे। एक भी चुनाव नहीं हारे। साल 1984 में उन्होंने भाजपा के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से चुनाव हराया था। माधवराव सिंधिया 1990 से 1993 तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष भी रहे थे।

वसीयत में छीन लिया अग्नि देने का अधिकार

वीर सांघवी अपनी किताब अ लाइफ: माधवराव सिंधिया में लिखते हैं कि मां-बेटे के बीच जब तल्खी हद से ज्यादा बढ़ गई तो माधवराव ने अपनी मां से कहा कि उन्हें सरदार आंग्रे और उनके बीच किसी एक को चुनना होगा। राजमाता कुछ मिनट चुप रहीं और फिर उन्होंने कहा कि सरदार आंग्रे को छोड़ना मुश्किल है। फैसला हो चुका था और वह माधवराव सिंधिया के खिलाफ था। माधवराव अपनी मां के कमरे से तमतमाते हुए निकल गए। राजमाता विजयराज सिंधिया की अपने बेटे माधवराव से खटास जीवन के आखिरी दिनों तक कायम रही। राजमाता विजयाराजे ने हाथ से 12 पन्नों की अपनी एक वसीयत लिखी, जिसमें उन्होंने अपने इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया से अपने अंतिम संस्कार का अधिकार तक छीन लिया। हालांकि राजमाता के निधन पर माधवराव ने ही उनकी चिता को अग्नि दी।

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