मात्र 23 साल की उम्र में जिसने ब्रिटिश गुलामी के विरुध्द आज़ादी की लड़ाई छेड़ अपनी प्राणों की आहुति दी उस झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति आज़ाद भारत की राजधानी में ही नहीं लगने दी गयी |
हाल ही में, रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति की स्थापना का विरोध करने के लिए सैकड़ों प्रदर्शनकारी दिल्ली के एक पार्क में एकत्र हुए। उन्होंने झूठा दावा किया कि जमीन वक्फ बोर्ड की है। यह निराधार आरोप भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कथा को फिर से लिखने के एक और प्रयास का प्रतिनिधित्व करता है।
इस विरोध का बेतुकापन भूमि स्वामित्व विवादों से परे है। प्रदर्शनकारियों ने तर्क दिया कि प्रतिमा को हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि वे पास में नमाज अदा करते हैं, खासकर ईद के दौरान जब पार्क प्रार्थना सभा स्थल के रूप में कार्य करता है। यह मांग पात्रता के एक चौंकाने वाले स्तर को उजागर करती है।
इसके अलावा, धार्मिक प्रथाओं के आधार पर मूर्ति को हटाने का यह आह्वान एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति का संकेत देता है। लोग सार्वजनिक स्थानों को निजी धार्मिक क्षेत्रों के विस्तार के रूप में देखने लगे हैं। यदि समाज इस तरह के तर्क को स्वीकार करता है, तो हम भविष्य में और अधिक अपमानजनक मांगों की उम्मीद कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए, मस्जिदों के पास स्थित मूर्तियों या मंदिरों को हटाना अगला कदम हो सकता है। अंततः, इससे मुस्लिम आवासों के पास के मंदिरों को हटाने की मांग उठ सकती है क्योंकि वे घर पर प्रार्थना करते हैं।
सार्वजनिक स्थानों पर अधिकार शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा नहीं देता, वरन इसका लक्ष्य प्रभुत्व स्थापित करना है |
यह अधिकार एक खतरनाक मिसाल कायम करता है। आज, यह एक मूर्ति है; कल, यह संपूर्ण मंदिर हो सकता है। अंतिम लक्ष्य हिंदू मूर्तियों और मंदिरों से मुक्त भारत की मांग करना प्रतीत होता है। इस तरह की कार्रवाइयां शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा नहीं देती हैं।’ इसके बजाय, उनका लक्ष्य प्रभुत्व स्थापित करना और एक समुदाय पर अत्याचार करना है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो हिंदू सांस्कृतिक प्रतीक सार्वजनिक स्थानों से पूरी तरह गायब हो सकते हैं |
रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति के विरोध में कोर्ट में खुला झूठ बोला गया। प्रदर्शनकारियों ने अदालत में झूठा दावा किया कि ज़मीन वक्फ बोर्ड की है, और अपने दावे के समर्थन में कोई सबूत नहीं दिया। इसके अलावा, उन्होंने कानून और व्यवस्था में व्यवधान की धमकी देने की अपनी सामान्य रणनीति का सहारा लिया। उनका तात्पर्य यह था कि यदि प्रतिमा स्थापित की गई, तो सार्वजनिक शांति खतरे में पड़ जाएगी और बर्बरता हो सकती है।
यदि अदालत हमारे पक्ष में फैसला नहीं देती है, तो कानून और व्यवस्था की समस्या होगी।
अदालती फैसलों को प्रभावित करने के लिए धमकियों का इस्तेमाल करने की यह रणनीति बहुत आम हो गई है। लगभग हर मामले में हम एक ही बात सुनते हैं: “यदि अदालत हमारे पक्ष में फैसला नहीं देती है, तो कानून और व्यवस्था की समस्या होगी।”
यह जबरदस्ती की रणनीति कानून के शासन को कमजोर करती है और न्याय का मजाक बनाती है। यदि अदालतें ऐसी धमकियों के आगे झुक जाएंगी तो न्याय स्वयं भय का बंधक बनकर रह जाएगा। शुक्र है, इस मामले में, न्यायाधीश ने झुकने से इनकार कर दिया। अशांति की धमकियों के बावजूद, अदालत दृढ़ रही और एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की कि न्याय को खरीदा या धमकाया नहीं जा सकता।
क्या यह सांस्कृतिक उन्मूलन एजेंडा है ?
नमाज स्थलों से निकटता के आधार पर रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति को हटाने की मांग स्थानीय विरोध से परे है। यह भारत की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने के व्यापक एजेंडे का संकेत देता है। रानी लक्ष्मीबाई सिर्फ हिंदू वीरता का प्रतीक नहीं हैं; वह एक राष्ट्रीय नायक हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। उनकी प्रतिमा का विरोध करने का कोई तार्किक आधार नहीं है, जब तक कि लक्ष्य में हिंदू विरासत के प्रतीकों को मिटाना शामिल न हो। इसके अतिरिक्त, यह आंदोलन केवल “संघी” लोगों को लक्षित नहीं करता है। इसके बजाय, इसका उद्देश्य संकीर्ण धार्मिक दृष्टिकोण के अनुरूप भारत के सार्वजनिक स्थानों को नया आकार देना है। अधिकार की यह भावना, जैसे कि देश उनका कुछ ऋणी है, अंततः बहुसंख्यकों पर अत्याचार करने का काम करती है। यह हिंदुओं को अपनी ही भूमि में बाहरी लोगों जैसा महसूस कराता है।
हड़प नीति ( जिसकी लाठी उसकी भैंस ) ने ही 1857 की क्रांति की नींव रखी थी
अंग्रेजों की हड़प नीति के चलते कंपनी के गवर्नर जनरलों ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से कई नियम बनाए। उदाहरण के लिये, किसी राजा के निःसंतान होने पर उसका राज्य ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बन जाता था। राज्य हड़प नीति के कारण भारतीय नरेशों में बहुत असंतोष पैदा हुआ था। 1857 में हुए ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध को जन्म देने में इस नीति की महत्वपूर्ण भूमिका थी।डलहौजी ने इस सिद्धान्त पर कार्य किया कि जिस प्रकार भी संभव हो सके,ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया जाए |
हिन्दू कानून के अनुसार, कोई व्यक्ति या शासक, जिसका स्वाभाविक उत्तराधिकारी नहीं है, किसी व्यक्ति को गोद ले सकता है, जिसे उसके बाद पुत्र के सभी व्यक्तिगत और राजनीतिक अधिकार मिल जाएँगे। लॉर्ड डलहौजी ने ऐसे दत्तक ग्रहण को मंजूरी देने एवं आश्रित राज्यों के मामले में दत्तक की अनुपस्थिति में अपने विवेकानुसार कार्यवाई करने के परम अधिकारों पर ज़ोर दिया। व्यावहारिक तौर पर इसका मतलब अंतिम क्षण के दत्तक ग्रहण को अस्वीकृत करना तथा स्वाभाविक या दत्तक उत्तराधिकारी न होने पर राज्यों का विलय था, क्योंकि लॉर्ड डलहौजी का मानना था कि पूर्वी के बजाय पश्चिमी शासन बेहतर है और जहां संभव हो इन्हें लागू करना चाहिए।
हड़प नीति के अनुसार विलय किया गया प्रथम राज्य सतारा था। सतारा के राजा अप्पा साहब ने अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी की अनुमति के बिना एक ‘दत्तक पुत्र’ बना लिया था। लॉर्ड डलहौज़ी ने इसे आश्रित राज्य घोषित कर इसका विलय कर लिया। ‘कामन्स सभा’ में जोसेफ़ ह्नूम ने इस विलय को ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की संज्ञा दी थी। इसी प्रकार संभलपुर के राजा नारायण सिंह, झांसी के राजा गंगाधर राव और नागपुर के राजा रघुजी तृतीय के राज्यों का विलय क्रमशः 1849 ई., 1853 ई. एवं 1854 ई. में उनके पुत्र या उत्तराधिकारी के अभाव में किया गया। उन्हें दत्तक पुत्र की अनुमति नहीं दी गयी |
लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा हड़पे गए राज्य सतारा -1848 ई., जैतपुर, संभलपुर – 1849 ई., बघाट-1850 ई.,उदयपुर-1852 ई.,झाँसी-1853 ई.,नागपुर-1854 ई.,करौली-1855 ई.,अवध-1856 ई.
लॉर्ड डलहौज़ी ने उपाधियों तथा पेंशनों पर प्रहार करते हुए 1853 ई. में कर्नाटक के नवाब की पेंशन बंद करवा दी। 1855 ई. में तंजौर के राजा की मृत्यु होने पर उसकी उपाधि छीन ली। डलहौज़ी मुग़ल सम्राट की भी उपाधि छीनना चाहता था, परन्तु सफल नहीं हो सका। उसने पेशवा बाजीराव द्वितीय की 1853 ई. में मृत्यु होने पर उसके दत्तक पुत्र नाना साहब को पेंशन देने से मना कर दिया। उसका कहना था कि पेंशन पेशवा को नहीं, बल्कि बाजीराव द्वितीय को व्यक्तिगत रूप से दी गयी थी। हैदराबाद के निज़ाम का कर्ज़ अदा करने में अपने को असमर्थ पाकर 1853 ई. में बरार का अंग्रेज़ी राज्य में विलय कर लिया गया। 1856 ई. में अवध पर कुशासन का आरोप लगाकर लखनऊ के रेजीडेन्ट आउट्रम ने अवध का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में करवा दिया, उस समय अवध का नवाब ‘वाजिद अली शाह’ था।
सन 1849 में लार्ड डलहोजी की घोषणा के अनुसार बहादुर शाह ज़फ़र के उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक लाल किला छोड़ना पडेगा और शहर के बाहर जाना होगा और सन 1856 में लार्ड कैन्निग की घोषणा कि बहादुर शाह ज़फ़र के उत्तराधिकारी राजा नहीं कहलायेंगे ने मुगलों को कंपनी के विद्रोह में खडा कर दिया।
जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झांसी की झलकारी थी । गोरों से लडना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित पंक्तियाँ आपको उस वक्त की जातिगत तानेबाने की अवधारणा समझने में मदद करेंगे | लेकिन आज के फुट डालो राज करो मानसिकता वाले नेता आपको कभी झलकारी बाई की गाथाएं नहीं बताएँगे | झलकारी बाई के सिर पर न रानी का ताज था न ही झांसी की सत्ता। लेकिन फिर भी अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहूति दे दी। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हमशक्ल कोली परिवार की झलकारी बाई झाँसी सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं |
झलकारी बाई बचपन से ही साहसी थीं। जब वो छोटी थी तभी उनकी मां का देहान्त हो गया। पिता ने उन्हें घुड़सवारी और हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया। कहा जाता है कि एक बार जंगल में एक तेंदुए ने उनपर हमला कर दिया। लेकिन झलकारी ने कुल्हाड़ी से उसे मार दिया। इतना ही नहीं एक बार कुछ डकैतों ने उनके गांव के व्यापारी के घर पर धाबा बोला, तो झलकारी ने उनका मुंहतोड़ जवाब देते हुए गांव से भागने पर मजबूर कर दिया। झलकारी के साहस से प्रभावित होकर उनकी शादी झांसी की सेना के सैनिक पूरन कोली से कर दी।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई का पहली बार आमना सामना एक पूजा के दौरान हुआ। झांसी की परंपरा के अनुसार गौरी पूजा के मौके पर राज्य की महिलाएं किले में रानी का सम्मान करने गईं। इनमें झलकारी भी शामिल थीं। जब लक्ष्मीबाई ने झलकारी को देखा तो वो हैरान रह गईं। क्योंकि झलकारी बिल्कुल लक्ष्मीबाई जैसी दिखती थीं। जब उन्हें झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनने को मिले तो उन्हें सेना में शामिल कर लिया। झांसी की सेना में शामिल होने के बाद झलकारी ने बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी का प्रशिक्षण लिया।
डलहौजी की नीति के तहत झांसी को हड़पने के लिए ब्रिटिश सेना ने किले पर हमला कर दिया। इस दौरान पूरी झांसी की सेना ने लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंग्रेजों को मुंहतोड़ जवाब दिया। अप्रैल 1858 में झांसी की रानी ने अपने बहादुर सैनिकों के साथ मिलकर कई दिनों तक अंग्रेजों को किले के भीतर नहीं घुसने दिया। लेकिन सेना के एक सैनिक दूल्हेराव ने महारानी को धोखा दे दिया। उसने अंग्रेजों के लिए किले का एक द्वार खोल कर अंदर घुसने दिया। ऐसे में जब किले पर अंग्रेजों का अधिकार तय हो गया तो झांसी के सेनापतियों ने लक्ष्मीबाई को किले से दूर जाने की सलाह ही। इसके बाद वो कुछ विश्ववसनीय सैनिकों के साथ किले से दूर चली गईं।
किले के भीतर हुए इस युद्ध में झलकारी बाई के पति शहीद हो गए। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने अंग्रेजों को खिलाफ एक योजना बनाई। उन्होंने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और सेना की कमान अपने हाथ ली। इतना ही नहीं अंग्रेजों को इस बात की भनक न पड़ पाए कि लक्ष्मीबाई किले से जा चुकी हैं ये सोचकर वो अंग्रेजों को चकमा देने के लिए किले से निकलकर ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज के कैंप में पहुंच गईं। जब तक अंग्रेज उन्हें पहचान पाते तब तक लक्ष्मीबाई को पर्याप्त समय मिल गया।
इस घटना का जिक्र मशहूर साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास ‘झांसी की रानी-लक्ष्मीबाई’ में भी है। उन्होंने लिखा है, “झलकारी ने अपना श्रृंगार किया। बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने, ठीक उसी तरह जैसे लक्ष्मीबाई पहनती थीं। गले के लिए हार न था, परंतु कांच के गुरियों का कण्ठ था। उसको गले में डाल दिया। प्रात:काल के पहले ही हाथ मुंह धोकर तैयार हो गईं। पौ फटते ही घोड़े पर बैठीं और ऐठ के साथ अंग्रेजी छावनी की ओर चल दिया। साथ में कोई हथियार न लिया। चोली में केवल एक छुरी रख ली। थोड़ी ही दूर पर गोरों का पहरा मिला। टोकी गई। झलकारी को अपने भीतर भाषा और शब्दों की कमी पहले-पहल जान पड़ी। परंतु वह जानती थी कि गोरों के साथ चाहे जैसा भी बोलने में कोई हानि नहीं होगी। झलकारी ने टोकने के उत्तर में कहा, ‘हम तुम्हारे जडैल के पास जाउता है।’ यदि कोई हिन्दुस्तानी इस भाषा को सुनता तो उसकी हंसी बिना आये न रहती। एक गोरा हिन्दी के कुछ शब्द जानता था। बोला, ‘कौन?’
रानी -झांसी की रानी, लक्ष्मीबाई, झलकारी ने बड़ी हेकड़ी के साथ जवाब दिया। गोरों ने उसको घेर लिया। उन लोगों ने आपस में तुरंत सलाह की, ‘जनरल रोज के पास अविलम्ब ले चलना चाहिए।’ उसको घेरकर गोरे अपनी छावनी की ओर बढ़े। शहर भर के गोरों में हल्ला फैल गया कि झांसी की रानी पकड़ ली गई. गोरे सिपाही खुशी में पागल हो गये। उनसे बढ़कर पागल झलकारी थी. उसको विश्वास था कि मेरी जांच – पड़ताल और हत्या में जब तक अंग्रेज उलझेंगे तब तक रानी को इतना समय मिल जावेगा कि काफी दूर निकल जावेगी और बच जावेगी।” झलकारी रोज के समीप पहुंचाई गई। वह घोड़े से नहीं उतरी। रानियों की सी शान, वैसा ही अभिमान, वही हेकड़ी- रोज भी कुछ देर के लिए धोखे में आ गया।”
अगर भारत की 1 फीसदी महिलाएं भी झलकारी बाई जैसी हो जाएं तो अंग्रेजों को जल्दी ही भारत छोड़ना पड़ेगा ‘। : जनरल रोज
वृंदावनलाल वर्मा ने आगे लिखा है कि दूल्हेराव ने जनरल रोज को बता दिया कि ये असली रानी नहीं है। इसके बाद रोज ने पूछा कि तुम्हें गोली मार देनी चाहिए। इस पर झलकारी ने कहा कि मार दो, इतने सैनिकों की तरह मैं भी मर जाऊंगी। झलकारी के इस रूप को अंग्रेज सैनिक स्टुअर्ट बोला कि ये महिला पागल है। इस पर जनरल रोज ने कहा नहीं स्टुअर्ट अगर भारत की 1 फीसदी महिलाएं भी इस जैसी हो जाएं तो अंग्रेजों को जल्दी ही भारत छोड़ना पड़ेगा ‘। रोज ने झलकारी को नहीं मारा। झलकारी को जेल में डाल दिया गया और एक हफ्ते बाद छोड़ दिया गया। आज भी झलकारी बाई की वीरता की कहानियां देशभर में पढ़ी जाती हैं।
लेख लम्बा है लेकिन रानी लक्ष्मीबाई के चरित्र के सामने छोटा है | आज़ादी की लड़ाई में इनकी महत्वपूंर्ण भूमिका को देखते हुए इनकी मूर्ति का विरोध अनुचित है |
यह घटना भारत के लिए चेतावनी का काम करती है |
यदि न्याय प्रणाली धमकियों के आगे झुकती रही और रानी लक्ष्मीबाई जैसे ऐतिहासिक प्रतीकों को हटाने का लक्ष्य रखती रही, तो हम बहुत बड़े सांस्कृतिक क्षरण को देखेंगे। आज यह एक मूर्ति है; कल, यह संपूर्ण मंदिर, त्यौहार या यहां तक कि पाठ्यपुस्तकें भी मिटने का सामना कर सकती हैं। भारत को अपने इतिहास और विरासत को संरक्षित करने के लिए सतर्क रहना चाहिए। अशांति के खतरों को निर्णय लेने की अनुमति देने से राष्ट्र के सांस्कृतिक ताने-बाने के छिन्न-भिन्न होने का खतरा है। भारत केवल भूमि से कहीं अधिक है; यह एक समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है जिसे कुछ लोगों की सनक की भेंट नहीं चढ़ाया जाना चाहिए।