तिलक की महिमा

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वैदिक सभ्यता के अनुसार सनातन धर्मी माथे पर कुछ चिन्ह लगाते हैं, जिसे तिलक कहा जाता है। तिलक अनेक प्रकार के होते हैं, कुछ राख द्वारा बनाये हुए, कुछ मिट्टी से, कुछ कुम-कुम आदि से।

माथे पर राख द्वारा चिन्हित तीन आड़ी रेखाऐं दशार्ती हैं कि लगाने वाला शिव-भक्त है। नाक पर तिकोन और उसके ऊपर चिन्ह यह दशार्ता है कि लगाने वाला विष्णु-भक्त है।

तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। इस तिलक को हम स्वयं देखें या कोई और देखे तो उसे स्वत: ही श्री कृष्ण का स्मरण हो आता है।

अगर कोई वैष्णव जो उर्धव-पुन्ड्र लगा कर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के २० पीढ़ियों को मैं (परम पुरुषोत्तम भगवान) घोर नरकों से निकाल लेता हूँ। (हरी-भक्तिविलास ४.२०३, ब्रह्माण्ड पुराण से उद्धृत)…

हे पक्षीराज! (गरुड़) जिसके माथे पर गोपी-चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई गृह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प आदि हानि नहीं पहुंचा सकते। (हरी-भक्ति विलास ४.२३८, गरुड़ पुराण से उद्धृत)

जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिन्हित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं। पद्म पुराण

किसी भी स्थिति में, तिलक का परम उद्देश्य अपने आप को पवित्र और भगवान के मंदिर के रूप में शरीर को चिन्हित करने के लिए है । शास्त्र विस्तार से यह निर्दिष्ट नहीं करते कि तिलक किस ढंग से किये जाने चाहिए। यह अधिकतर आचार्यों द्वारा शास्त्रों में वर्णित सामान्य प्रक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए बनायीं गयी हैं।

पद्मपुराण के उत्तर खंड में भगवान शिव, पार्वती जी से कहते हैं कि वैष्णवों के तिलक के बीच में जो स्थान है उसमे लक्ष्मी एवं नारायण का वास है। इसलिए जो भी शरीर इन तिलकों से सजा होगा उसे श्री विष्णु के मंदिर के समान समझना चाहिए ।

पद्म पुराण में एक और स्थान पर

वाम-पार्श्वे स्थितो ब्रह्मा दक्षिणे च सदाशिव: ।
मध्ये विष्णुम विजनियात तस्मान् मध्यम न लेपयेत ।।

तिलक के बायीं ओर ब्रह्मा जी विराजमान हैं, दाहिनी ओर सदाशिव परन्तु सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि मध्य में श्री विष्णु का स्थान है। इसलिए मध्य भाग में कुछ लेपना नहीं चाहिए।

तिलक कैसे लगाया जाए…

बायीं हथेली पर थोड़ा सा जल लेकर उस पर गोपी-चन्दन को रगड़ें। तिलक बनाते समय पद्म पुराण में वर्णित निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें:

ललाटे केशवं ध्यायेन, नारायणम् अथोदरे, वक्ष-स्थले माधवम् तु, गोविन्दम कंठ-कुपके, विष्णुम् च दक्षिणे कुक्षौ, बहौ च मधुसूदनम्, त्रिविक्रमम् कन्धरे तु, वामनम् वाम्-पार्श्वके, श्रीधरम वाम्-बहौ तु, ऋषिकेशम् च कंधरे, पृष्ठे-तु पद्मनाभम च, कत्यम् दमोदरम् न्यसेत्,
तत प्रक्षालन-तोयं तु, वसुदेवेति मूर्धनि…

माथे पर झ्र ॐ केशवाय नम:
नाभि के ऊपर झ्र ॐ नारायणाय नम:
वक्ष-स्थल झ्र ॐ माधवाय नम:
कंठ झ्र ॐ गोविन्दाय नम:
उदर के दाहिनी ओर झ्र ॐ विष्णवे नम:
दाहिनी भुजा झ्र ॐ मधुसूदनाय नम:
दाहिना कन्धा झ्र ॐ त्रिविक्रमाय नम:
उदर के बायीं ओर झ्र ॐ वामनाय नम:
बायीं भुजा झ्र ॐ श्रीधराय नम:
बायां कन्धा झ्र ॐ ऋषिकेशाय नम:
पीठ का ऊपरी भाग झ्र ॐ पद्मनाभाय नम:
पीठ का निचला भाग झ्र ॐ दामोदराय नम:

अंत में जो भी गोपी-चन्दन बचे उसे ॐ वासुदेवाय नम: का उच्चारण करते हुए शिखा में पोंछ लेना चाहिए।

सुदेश चंद्र शर्मा

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