आस्था से खिलवाड़ के दोषी हम भी तो हैं

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सिर्फ पूजा के लिए देशी घी सालों से बिक रहा है, किसने इस पर ध्यान दिया

ये पूजा के लिए ही है। खाने या दवाई में उपयोग करने के लिए नहीं। इसका क्या मतलब? देशी घी के नाम पर जानवरों की चर्बी से घी बना निमार्ता कंपनियां डंके की चोट पर सालों से बेच रही है और हम इसी से मंदिर-घरों में ज्योत जला रहे हैं। पूजा-अनुष्ठान कर रहे है। हमारी आस्था से खिलवाड़ हो रहा है, तो ये मौका भी तो हम ही दे रहे है। देशी घी तो देशी घी होता है। पूजा का अलग और खाने का अलग कैसे होगा?

दरअसल, हम भी तो भगवान के प्रति आस्था दिखाकर भी उन्हें धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं,जो अंतयार्मी हैं। ये तो तिरूपति मंदिर के प्रसाद के लड्डुओं के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले घी के नमूनों से पता चल गया कि उसमें क्या-क्या मिलावट की जा रही है, वरना हमें ये तो हमें सालों से पता है कि केवल पूजा के उपयोग की हिदायत से देशी घी के नाम पर देश के सभी शहरों में बिक रहा घी घटिया और अशुद्ध है। क्या कभी किसी सरकार ने, किसी मंदिर कमेटी ने, संत समाज ने, धमार्चार्यों ने, किसी संगठन ने ये जानने की कोशिश की कि पूजा वाले देशी घी के नाम पर क्या बेचा जा रहा है? इसमें दूध की कुछ मात्रा भी है या पूरा ही चर्बी से बना है। जबकि बड़े-बड़े मंदिरों में श्रद्धालु यही घी चढ़ा रहे हैं।

हमारे यहां तो वाशिंग पाउडर, शैंपू, ग्लूकोस, सफेद फेब्रिक कलर से दूध तैयार कर लिया जाता है, तो फिर घी के लिए भी दूध की जरूरत क्या है। पूजा वाला देशी घी आज भी बाजारों में धड़ल्ले से बिक रहा है। कैसी विडंबना है कि जो पूजा वाला घी दौ सौ-ढाई सौ रूपए किलो मिल रहा है, उसे ही हम देशी घी मानकर भगवान को अर्पण कर रहे हैं। जबकि आज डालडा घी ही सवा सौ-सवा सौ रूपए किलो है। डेयरी उद्ममियों का कहना है कि गाय के दूध का देशी घी डेढ़ हजार रूपए किलो के आसपास मिलता है। जबकि बाजार में बिकने वाले देशी घी के सभी ब्रांड की कीमत चार सौ से आठ सौ रूपए किलो तक है।

जाहिर है शुद्धता की उम्मीद ही मत कीजिए। तिरूपति और उस जैसे बड़े मंदिरों में सालाना हजारों-लाख किलो घी की खपत है, तो भी इसे कोई कंपनी आधी कीमत यानि सात-आठ सौ रूपए किलो से कम पर क्या घी देगी। लेकिन जानवरों की चर्बी, मछली के तेल की मिलावट वाला देशी घी 320 रूपए प्रतिकिलो सप्लाई कर आस्था से खिलवाड़ किया गया।

देश भर में न सिर्फ बड़े मंदिरों, बल्कि हजारों-लाखों मंदिरों के बाहर प्रसाद बेचने वाली मिठाई की दुकानों पर गुणवत्ता की जांच की जाए, तो इस बात की गारंटी है कि कोई भी मिठाई बिना मिलावट वाली नहीं मिलेगी। लेकिन इनसे ही लड्डू, मावा और अन्य मिठाई का प्रसाद लेकर हम रोजाना भगवान को अर्पण कर रहे हैं और घर ला रहे हैं। क्या शहरों के स्थानीय प्रशासन को यह पता नहीं होगा कि मिठाई विक्रेता कितनी मिलावट कर रहे होंगे? कई बार जांच होती है। मिठाई की नमूने लिए जाते हैं। होली, दीवाली, राखी जैसे त्यौहारों पर जांच अभियान चलाए जाते हैं।

लेकिन उनके नतीजे क्या निकलते है और किसमें कितनी मिलावट है और कितने मिठाई विक्रेताओं पर कार्रवाई होती है यह कभी पता ही नहीं लगता। मिलावट रूके भी त़ो कैसे। नीचे से लेकर ऊपर तक सिस्टम बना हुआ है कि कहां बिना मिलावट के कितने पैसों का कितने अधिकारियों को साप्ताहिक या मासिक भोग लगेगा। बस यह भोग नियमित लगता रहता है और आमजन मिलावट की चक्की में पिसता जाता है। मिठाई ही क्यों,देश में ऐसी कौन सी चीज है जिसमें मिलावट नहीं हो रही है। अब तो लोग भी मिलावटी खाद्य सामग्री खाने के इतने आदी हो गए हैं कि अगर उन्हें शुद्ध सामग्री खाने को मिल जाए, तो वह शायद बीमार ही पड़ जाएंगे।

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