*आसानी से मैं ग़लती नहीं करता! अंजाने में तो बिल्कुल भी नहीं। जब भी मुझसे ग़लती होती है जान बूझ कर ही होती है। यही वज़ह है माफ़ी मांगने में मुझे विश्वास नहीं। ज़रूरत पड़ने पर माफ़ी माँगूँ और सामने वाला माफ़ करने को तय्यार न हो तो मैं साम दाम दंड भेद कोई भी तरीका अपना कर माफ़ी पाकर ही दम लेता हूँ। इस चक्कर में कई बार ज़िद्दी दोस्त दुश्मन मुझसे मार खा कर अस्पताल दाख़िल हो चुके हैं।*😱
*मित्रो यह मेरे निजी विचार नहीं! यह आज ही मुझे मेरे एक मित्र ने भेजे हैं। मित्र ने शायद क्षमा पर्व पर मेरे भेजे गए संदेश के जवाब में यह प्रतिक्रिया व्यक्त की है। क्षमा बडन को चाहिए ,छोटन को उत्पात! कभी किसी से सुन लिया था इसलिए मित्र को कुछ कहना उचित नहीं समझा। वैसे भी क्षमा जैसा मखमली शब्द मित्र जैसे बेवकूफ़ लोगों के लिए नहीं बना। समाज में ऐसे लोग बहुतायत में मिल जाते हैं जो माफ़ी मांगने में अपना अपमान महसूस करते हैं। जो यह कहते हैं कि मैंने कभी अपने बाप से माफ़ी नहीं मांगी किसी और से क्या माँगूँ?*🥺
*समाज में ऐसे भी लोग हैं जो हर ग़लती की सज़ा मुक़र्रर करने में यक़ीन रखते हैं। उनकी नज़र में सज़ा माफ़ी से बेहतर शब्द होता है।*🤨
*मेरे पिता जी पुलिस में काम करते थे इसलिए उनकी मान्यता भी सज़ा पर ही विश्वास करती थी। बचपन से ही हमारी आदत सज़ा पाने की हो गई। सभी भाई बहन ग़लती होते ही सज़ा भुगतने की तैयारी कर लेते थे। माफ़ी मांगने का विचार भी हमारे दिलो ज़हन में नहीं आता था। यही वज़ह रही कि हमारे संस्कारों में माफ़ी शब्द ने प्रवेश ही नहीं किया।*😨
*स्कूल में पहली बार इस शब्द से हमारा पाला पड़ा। जहां तक अध्यापकों की मानसिकता का सवाल है वे भी हमारी ग़लतियाँ होने पर लगभग कसाईनुमा व्यवहार ही करते थे। ग़लती हुई नहीं कि लपक के दबोचना और फिर दे धन्ना की! दे पन्ना की! वहाँ भी माफ़ी नाम का शब्द निरर्थक सिद्ध होता था। कई बार तो ग़लती न होने पर भी सूताई हो जाती थी। कई बार ग़लती कोई और करता और पिटाई हमारी हो जाती। घर जाकर पिता जी से मास्टर जी की शिक़ायत करने की हिम्मत नहीं होती थी। सर्वविदित था कि मास्टर जी की ग़लती पर भी कम्बल परेड तो हमारी ही होगी।*😱
*यह मेरा दुर्भाग्य है कि स्कूल और कॉलेज दोनों ही स्तर पर मुझे मुआफ़ी देने वाले टीचर नहीं मिले।*🙄
*मुझे याद है दसवीं कक्षा में फुटबाल खेलते समय एक सीनियर खिलाड़ी ने मेरे निचले नाज़ुक हिस्से पर किक मार दी। अस्पताल दाख़िल होना पड़ा। खेल को खेल बताते हुए बात आई गई हो गयी। किसी ने मुझसे माफ़ी नहीं मांगी और सज़ा मैं दे नहीं पाया। घटना के बीस साल बाद, अजमेर स्टेशन पर अचानक वह खिलाड़ी आगे होकर मिल लिया। परिचय दिया तो मेरे अंदर की “सज़ा” ज़िन्दा हो गई। सोया हुआ कसाई जागा तो माफ़ी मुर्दा हो गई। मैंने लपक कर उसके उसी हिस्से में किक मार दी। वो बात अलग है कि उसे अस्पताल ले जाकर सेवा करने का धर्म मैंने ही निभाया।*🙋♂️
*आज कल माफ़ी मांगने और माफ़ करने की बेहतरीन प्रथा जैन समाज से हमारे बीच आ चुकी है। वास्तव में यह स्वागत योग्य परम्परा है। ग़लती को माफ़ करना बड़ी बात होती है। बदला तो कोई भी ले सकता है मगर बदले की जगह माफ़ी देकर दुश्मन का भी दिल जीता जा सकता है। महात्मा गांधी ने तो माफ़ी करने की परंपरा में चार चांद ही लगा दिए थे। कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। माफ़ी का इससे बड़ा उदाहरण तो विश्व में दूसरा हो ही नहीं सकता।*❌
*विश्व शान्ति के लिये माफ़ करने वाला कृत्य बहुत ही कारगर है मगर सवाल फिर वही कि क्या हम दिल से माफ़ी मांगते हैं या किसी को दिल से माफ़ करते हैं❓शायद नहीं। माफ़ी मांगना और माफ़ी देना दोनों ही अक्सर नक़ली होते हैं। सतही और सिर्फ़ दिखावटी। मौक़ा मिलते ही हम माफ़ी की धज़्ज़ियाँ उड़ा देते हैं।*😣
*मित्रों! अंत में आप सभी से माफ़ी मांगता हूँ। कुछ ग़लत लिख दिया हो कभी। ग़लत कह दिया हो कभी। ग़लत कर दिया हो कभी। भूलवश हुए किसी भी कृत्य की क्षमा! मिच्छामि दुक्कड़म!!*