पितृपक्ष एवं श्राद्घ का पुराणों मे महत्त्व

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श्राद्ध कर्म करते हुए मन को बहुत ही पवित्र एवं पितरों के प्रति समर्पित होना चाहिए। कोई भार समझकर श्राद्ध कर्म कदापि न किया जाय क्योंकि श्राद्ध करते समय मन का शांत होना बहुत आवश्यक है। यदि मन में कोई हलचल हुई तो श्राद्ध करने का फल नहीं प्राप्त होता। जैसा कि कहा गया है:-

“यो$नेन विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानस:!
व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुन:!” (यमस्मृति)

अथार्त: जो प्राणी विधिपूर्वक शांत मन होकर श्राद्ध करता है वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है, तथा फिर संसार चक्र में नहीं आता। अत: प्राणी को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिए भी शांत मन से श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। इस संसार में श्राद्ध करने वाले के लिए श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारी उपाय नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहा गया है:-

“श्राद्धात परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम!
तस्मात सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षण:!” (कूर्मपुराण)

अर्थात- इस संसार में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नहीं है अत: बुद्धिमान मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। श्राद्धकर्म सिर्फ पितरों के लिए किया गया कर्म नहीं मानना चाहिए। यह स्वयं के कल्याण के लिए भी करना चाहिए। किये गये श्राद्धकर्म से जब पितर संतुष्ट होते हैं तो उनके आशीर्वाद से परिजन सुखी तो होते ही हैं साथ ही उनको आयु, बल, ऐश्वर्य भी प्राप्त होता है। यथा:?

“आयु: पुत्रान यश: स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम !
पशून सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात पितृपूजनात!” (गरुड़ पुराण)

अर्थात: श्राद्ध अपने अनुष्ठाता अर्थात श्राद्ध करने वालों की आयु को बढ़ा देता है, पुत्र प्रदान कर कुल परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखता है, धन – धान्य का अंबार लगा देता है, शरीर में बल – पौरुष का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार के सुख प्रदान करता है इन सभी शुभ अवसरों को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को अपने पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। इतना ही नहीं बल्कि श्राद्ध सांसारिक जीवन को तो सुखमय बनाता ही है इसके साथ ही परलोक को भी सुधार देता है और अंत में श्राद्ध करने वाले को मुक्ति भी प्रदान करता है जैसा कि कहा गया है-

“आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च!
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितर: श्राद्धतर्पिता:! (मार्कण्डेय पुराण)

अर्थात- श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीघार्यु, संतति, धन, विद्या, राज्य, सुख, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं यदि सच्चे मन से अपने पितरों का श्राद्ध किया जाय तो पितरों की कृपा से मनुष्य मोक्ष से भी आगे बढ़कर परमगति को भी प्राप्त किया जा सकता है।

“पुत्रो व भ्रातरो वापि दौहित्र: पौत्रकस्तथा!
पितृकार्ये प्रसक्ता ये ते यान्ति परमां गतिम!” (अत्रिसंहिता)

अर्थात- जो पुत्र, भ्राता, पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकार्य (श्राद्ध अनुष्ठान) में संलग्न रहते हैं वे निश्चय ही परम गति को प्राप्त होते हैं। मात्र श्राद्ध करने ही वाले ही नहीं बल्कि और किसे श्राद्ध का फल मिलता है यह बताते हुए कहा गया है।

“उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलौ स्मृतौ” (बृहस्पति संहिता)

अर्थात- जो श्राद्ध करता है, जो उसके विधि-विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है इन सभी को श्राद्ध का पुण्य फल मिल जाता है।

अब श्राद्ध करने से क्या फल मिलता है यह भी पढ़ें।

सनातन ग्रन्थों में श्राद्ध न करने से होने वाली जो हानि बताई गई है उसे सुनकर या जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अत: श्राद्धतत्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठान के लिए तत्पर रहना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य बन जाता है। यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रा में अपना स्थूल शरीर भी साथ में नहीं ले जा सकता। तब वह पाथेय (अन्न जल) कैसे ले जा सकता है? उस समय उसके सगे संबंधी श्राद्ध विधि से उसे जो कुछ देते हैं वही उसे मिलता है।

शास्त्र ने मरणोपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है। सर्वप्रथम शव यात्रा के अंतर्गत 6 पिण्ड दिए जाते हैं जिनसे भूमि की अधिष्ठातृ देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत पिसाचों द्वारा होने वाली बाधाओं का निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही दसगात्र में दिए जाने वाले 10 पिण्डों के द्वारा जीव को आतिवाहिक सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है। यह मृत व्यक्ति की महायात्रा के प्रारंभ की बातें हुई। अब आगे उसके रास्ते के भोजन अन्न जल की आवश्यकता पड़ती है जो उत्तमषोडशी में दिए जाने वाले पिंडदान से उसे प्राप्त होता है। यदि परिजनों के द्वारा उपरोक्त श्राद्धक्रिया नहीं की जाती है तो

“लोकान्तरेषु ये तोयं लभन्ते नान्नमेव च।
दत्तं न वंशजैयेर्षां ते व्यथां यान्ति दारुणम!” (कूर्मपुराण)

अर्थात- यदि सगे – संबंधी पुत्र – पौत्र आदि उपरोक्त कर्म नहीं करते हैं, मृतक का पिंडदान अन्न – जल से नहीं करते हैं तो आत्मा को भूख प्यास से बहुत दारुण दुख होता है।

यह तो रही मृत आत्मा की बात कि उसे कितना कष्ट होता है और अब यह जान लिया जाए कि मृतक के परिजन यदि मृत आत्मा का श्राद्ध नहीं करते हैं तो परिजनों को क्या कष्ट होता है।

श्राद्ध न करने वाले को भी पग पग पर कष्ट का सामना करना पड़ता है। मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे संबंधियों का रक्त चूसने लगता है यथा

“श्राद्धं न कुरुते मोहात तस्य रक्तं पिबन्ति ते” (ब्रह्मपुराण)

इतना ही नहीं पितर अपने ही परिजनों को श्राप भी देते हैं ! यथा:

“पितरस्तस्य शापं दत्वा प्रयान्ति च”
(नागरखण्ड)

पितरों के श्राप से श्रापित होकर अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट ही कष्ट झेलना पड़ता है?

“न तत्र वीरा जायन्ते नारोग्यं न शतायुष: !
न च श्रेयोधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम !!” (हारीतस्मृति)

अर्थात: उस परिवार में पुत्र नहीं उत्पन्न होते, कोई निरोग नहीं रहता, किसी की लंबी आयु नहीं होती। कहने का तात्पर्य है कि किसी भी प्रकार से उस परिवार का कल्याण नहीं होता। सिर्फ इतना ही नहीं।

“श्राद्धमेतन्न कुवार्णो नरकं प्रतिपद्यते”
त्रविष्णुस्मृति)

अर्थात: पितरों का श्राद्ध न करने वाले परिजनों को नरक भी जाना पड़ता है इसलिए सभी को समयानुसार अपने पितरों के लिए श्राद्घकर्म करते रहना चाहिए। उपनिषद में कहा गया है।

देवपितृकार्याभ्यां न प्रमादितव्यम”
(तैत्तरीय उपनिषद)

अथार्त: किसी भी मनुष्य को देवता तथा पितरों के कार्यों में प्रमाद कदापि नहीं करना चाहिए क्योंकि प्रमाद से प्रत्यवाय होता है। इसलिए यह सब का कर्तव्य बनता है कि हम जिन पूर्वजों की संपत्तियों पर ऐश्वर्य भोग रहे हैं उनके लिए पितृयज्ञ अर्थात श्राद्ध कर्म अवश्य करें।

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