पितरों को अन्न प्राप्ति का प्रकार

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पुत्रआदि; पिता माता के उद्देश से श्राद्ध को करें तो नाम, गोत्र, और मंत्र; उस अन्न को उन पितरों के समीप पहुंचाते हैं। उसमें भी पितर देवरूप हों तो वह अन्न उनको अमृतरूप होकर मिलता है। गंधर्व हो तो भोग्यरूप से; पशु हों तो तृणरूप से, सर्प होय तो वायुरूप से यक्ष होंय तो पानरूप से, दानव हों तो मांसरूप से, प्रेत हों तो रुधिर रूप से, मनुष्य हों तो अन्न आदिरूप से; वह अन्न प्राप्त होता है । यह अन्य ग्रंथों में लिखा है।

क्योंकि यह वचत है कि उस मनुष्य के वे पितर आये हुये श्राद्धकाल को सुनकर और परस्पर मन से ध्यान करके मन के समान वेग से आते हैं। और उन ब्राह्मणों के संग वायुरूप होकर भोजन करते हैं। इसी से श्रीरामचंद्रजी ने जब श्राद्ध किया था सीताजी ने ब्राह्मणों में दशरथादि को को देखा यह कथा सुनी जाती है। यमराज प्रेत और पितरों को अपने पुर में प्रविष्ट करते हैं और अपने पुर को शून्य करके यमालय से भूलोक को विसर्जन करते हैं। और वे पुत्र आदि के मधुसहित पायस की आकांक्षा करते हैं। कन्या के सूर्य में पितर पुत्रों के यहां जाते हैं अमावस्या आदि दिन की प्राप्ति के समय घर के द्वार पर टिकते हैं और श्राद्ध न होय तो अपने भुवन को; वे शापदेकर चले जाते हैं। इससे मूल, फल, वा जल के तर्पण से उनकी तृप्ति को करें।

श्राद्ध का त्याग न करें और श्राद्ध से; ब्रह्मा से स्तम्बपर्यंत सबकी तृप्ति सुनी जाती है। उनमें पिशाचादि पितरों की तृप्ति विकिर आदि से; वृक्ष आदि रूपों की स्नान के वस्त्र के जल आदि से; और किन्हीं की उच्छिष्ट पिंड आदि से तृप्ति होती है। इससे जिसके पितर ब्रह्मरूप हैं उसको भी श्राद्ध करना उसमें पिता, पिता-मह, प्रपितामह; आदि रूप एक एक पार्वणों में क्रम से वसु, रुद्र, आदित्य, रूप पितरों का ध्यान करना। और एकोद्दिष्ट में वो वसुरूप से सबका ध्यान करना कोई तो यह कहते हैं कि अनिरुद्धरूप कर्ता; प्रद्युम्न, संकर्षण, वासुदेव रूप पिता पितामह, प्रपितामह का ध्यान करें।

इसी प्रकार कहीं वरुण प्रजापति रूप से ध्यान कहा है। और कहीं मास, ऋतु, वत्सर, रूप से उनमें कुलाचार के अनसार, सबका वा एक एक रूप का ध्यान करने की व्यवस्था है। जहां पिता आदि का पार्वण श्राद्ध हो वहां सर्वत्र मातामह आदि करने वार्षिक और मासिक में नहीं, मासिक और वार्षिक में तीन देवताओं का पार्वण होता है। वृद्धि, तीर्थ, अन्वष्ट का, गया और महालय में तीन का पार्वण और शेष श्राद्धों में छ: पुरुषों का पार्वण जानना चाहिये। सपत्नीक पिता आदि तीन और सपत्नीक मातामह आदि तीन ये छ: (६) पुरुष होते हैं। एक क्षाय के दिन को छोडकर स्त्रियों का पृथक् श्राद्ध नहीं होता और अन्वष्टका, वृद्धि, गया, क्षायिका दिन; इनमें माता का पृथक श्राद्ध होता है और अन्यत्र पति के संग होता है।

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