जमानत मिलते ही इस्तीफे की घोषणा कर खुद को राजनीति का शातिर खिलाड़ी साबित किया
भारतीय जनता पार्टी ने जितना सोचा था अरविंद केजरीवाल राजनीति के उससे ज्यादा शातिर खिलाड़ी निकले। दिल्ली शराब नीति केस में गिरफ्तारी के 177 दिन बाद 13 सितंबर को जमानत मिलने के बाद उन्होंने दो दिन यानि 17 सितंबर को इस्तीफा देने का ऐलान करके एक तीर से कई शिकार कर लिए।
सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देते हुए में जो शर्तें लगाई गई है, उन्हें देखते हुए केजरीवाल सिर्फ नाम के ही मुख्यमंत्री रह सकते थे। क्योंकि ना उन्हें सीएम दफ्तर जाने की इजाजत है और ना ही किसी फाइल पर साइन करने की। ऐसे में दिल्ली में फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए वो कोई भी फैसला नहीं ले सकते थे। इसलिए जरूरी था कि चुनावी लोक-लुभावन फैसले लेने के लिए किसी और को मुख्यमंत्री बनाया जाए। वरना, जिन केजरीवाल ने 6 महीने तक जेल में रहने के बाद भी सीएम का पद नहीं छोड़ा और इतिहास के पहले ऐसे सीएम बने, जिन्होंने जेल में रहने बावजूद सीएम पद नहीं छोड़ा। वह इतने भोले नहीं हैं कि जमानत पर छूटने के 2 दिन बाद ही इस्तीफे की घोषणा कर देते।
भले ही बीजेपी उन्हें कट्टर बेईमान कहती रहे। लेकिन केजरीवाल खुद कट्टर ईमानदार ही मानते हैं और शराब घोटाले में खुद सहित मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को फंसाने का आरोप केंद्र सरकार पर लगाते रहे हैं। इसीलिए जेल से बाहर आने के साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा कर दी कि अब वह तभी मुख्यमंत्री कुर्सी पर तब ही बैठेंगे, जब जनता उन्हें ही ईमानदार मानते हुए वोट देगी। अब जनता ही तय करेगी की वह ईमानदार है या बेईमान। उन्हें खुद पर इतना भरोसा है कि वह फरवरी में होने वाले दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी नवम्बर में ही कराने की चुनौती दे रहे हैं।
केजरीवाल ने ये घोषणा करके भाजपा से ये मुद्दा भी छीन लिया कि वह जेल में जाने के बाद भी पद नहीं छोड़ रहे हैं। भाजपा उनसे लगातार इस्तीफा मांगती रही है। लेकिन अब उनके इस्तीफा देने की औचक घोषणा से हतप्रभ वह सवाल उठा रही है कि इस्तीफा देने के लिए 2 दिन का समय क्यों ले रहे हैं? आखिर वह क्या सैटल करना चाहते हैं। इस्तीफे के बाद अब भाजपा उन पर सीधा नहीं कर सकेगी। जो उनके सीएम रहते ज्यादा असरदार होते।
इसमें कोई शक नहीं की दिल्ली में एक बड़ा मतदाता वर्ग है, जो केजरीवाल को पसंद करता है और इसी के बूते वह 2013 से अब तक तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। जिसमें से दो बार यानी 2015 उन्होंने 70 में से 67 और 2020 में 70 में से 62 सीटों की बम्पर जीत शामिल है। ये भी सच है कि जब से केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते भाजपा की केंद्र सरकार उनके कामकाज में अडंगा लगाती रही है। उन पर शराब घोटाले से पहले भी कई आरोप लगा चुकी।
शायद भाजपाई है बर्दाश्त नहीं कर पा रही है कि केंद्र में सरकार होने के बावजूद वह दिल्ली में लगातार नाकाम हो रही है। भले ही लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी 7 सीटें लगातार जीत रही है, लेकिन विधानसभा चुनाव में वह दिल्ली में आप का असर कम नहीं कर सकी। आरोपों के बीच ही आप ने एक और राज्य पंजाब में भी सरकार बना ली थी। ऐसे में शायद केजरीवाल को उम्मीद है कि उनका ईमानदारी का पत्ता एक बार फिर दिल्ली के जनता पर तुरूप का इक्का साबित होगा।
केजरीवाल की घोषणा के बाद से कई नामों पर कयास लगाए जा रहे हैं। जिनमें कैलाश गहलोत, सौरभ भारद्वाज, गोपाल राय,आतिशी और खुद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल शामिल है। लेकिन क्या केजरीवाल अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाएंगे? शायद नहीं। क्योंकि इससे भाजपा के हाथ में फिर वह मुद्दा जाएगा,जिससे केजरीवाल बचना चाहते हैं। तब भाजपा ये मुद्दा उठा सकती है कि एक बेईमान मुख्यमंत्री ने खुद पद छोड़ दिया, लेकिन अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनवा कर सारी ताकत परदे के पीछे से अपने हाथ में ले ली।
पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने से केजरीवाल को जनता की वह सहानुभूति भी नहीं मिल सकती, जिसकी उम्मीद वह खुद पद छोड़ने के बाद कर रहे हैं। केजरीवाल कह चुके हैं कि मनीष सिसोदिया भी शराब कांड के आरोपी होने के कारण सीएम नहीं बनेंगे. ऐसे में आप जिसे भी मुख्यमंत्री चुनेगी, उसका इतना आधार ना तो जनता में है, ना पार्टी में कि वह अगले विधानसभा चुनाव में केजरीवाल के लिए चुनौती बन सके और वह केजरीवाल के इशारों पर ही काम करेगा।
बहरहाल, दिल्ली से भी पहले केजरीवाल की ईमानदारी की परीक्षा हरियाणा में होगी। जहां उनकी आम आदमी पार्टी सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, क्योंकि उसका कांग्रेस से गठबंधन नहीं हो सका। माना जा रहा है कि आप के प्रत्याशियों से कांग्रेस को नुकसान हो सकता है। हरियाणा में भाजपा की हालत पहले ही ठीक नहीं है। वहां उसमें जबरदस्त अंतरकलह तो है ही,साथ ही टिकट नहीं मिलने के कारण करीब 50 से ज्यादा पूर्व विधायक, पूर्व सांसद, विधायक और बड़े नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। इनमें से कई निर्दलीय मैदान में है। ऐसे में केजरीवाल के मैदान में होने से उसे कुछ राहत मिल सकती है।
बीजेपी केजरीवाल के इस्तीफा देने में 2 दिन लेने पर तो आप में फूट और केजरीवाल द्रारा उसे सैटल करने का आरोप लगा रही है,लेकिन खुद हरियाणा में उसके घर में आग लगी हुई है। जहां पूर्व मंत्री अनिल विज ने सरकार बनने पर खुद मुख्यमंत्री के लिए दावा ठोक दिया है, जबकि पार्टी वर्तमान मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी को ही मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर चुकी है। अगर हरियाणा में आप ने कुछ सीटें जीती या ठीकठाक वोट प्रतिशत हासिल कर लिया और भाजपा के हाथ से राज्य निकल गया, तो ये न सिर्फ भाजपा के लिए बड़ा घाटा होगा, बल्कि केजरीवाल के एजेंडे पर भी मुहर लग जाएगी कि केंद्र सरकार ईडी और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों का विपक्षी नेताओं के खिलाफ दुरुपयोग कर रही है।