यदि आप सच्चे हिन्दू हैं तो यह ब्लॉग आपके लिए ही है! जो सनातनी न हों कृपया इसे न पढ़ें?

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गाय हमारी माता है और हमारी माँ को हमने सड़कों पर उसकी तकदीर के भरोसे छोड़ दिया है। जब तक माँ हमको दूध पिलाती है हम उसे अपनी जान से जियादा सम्मान देते हैं मगर जब हम उसके दूध से वंचित होने लगते हैं तो उसे गंदगी खाने के लिए खुला छोड़ देते हैं। हमारी माँ भूखी प्यासी! पॉलीथिन और गत्तों को खाने पर मजबूर होती रहती हैं! शहर के लोग गालियाँ बकते हुए गुजरते रहते हैं। शाम को सरकारी वाहन आते हैं और बेरहमी से उनको जोर जबरदस्ती से पटक कर साथ ले जाते हैं। यह घटनाक्रम हर शहर में एक ही तरीके से चलता है।

अजमेर! ब्यावर! किशनगढ़! नसीराबाद! पुष्कर! किसी भी शहर में यह दिनचर्या एक परिपाटी से चली आ रही है।

हम हिन्दू हैं! सनातनी हैं! गौवंश के रक्षक हैं! मान्यता है कि गाय में 33 करोड़ देवी देवताओं का वास होता है। गौ वंश को तस्करों से बचाने के लिए हम जान ले भी सकते हैं जान दे भी सकते हैं।

तो फिर ऐसा क्या है कि गायों पर हो रहे अत्याचार के प्रति हम इतने असंवेदनशील हो चुके हैं?

इसी सवाल को लेकर हमारे टी वी चैनल “बात आज की” ने एक कार्यक्रम “गोकुल धाम की परिकल्पना” का आयोजन किया।

इस कार्यक्रम में देश के सुप्रसिद्ध हिंदूवादी विचारक, मुखर वक़्ता और प्रखर चिंतक हनुमान सिंह राठौड़ ने भाग लिया।

मित्रों! यह विषय यद्यपि रोजमर्रा के हिसाब से आपके लिए जिÞयादा रुचिकर न हो लेकिन इसलिए जरूरी है कि समाज की यह नैतिक जिÞम्मेदारी का विषय है।

आप किसी भी शहर में रह रहे हों यह महसूस कर रहे होंगे कि इन दिनों सड़कों पर गायों की तादाद अचानक बढ़ गई है। आप यह भी महसूस कर रहे होंगे कि सिर्फ़ गायों की संख्या ही बढ़ी है। किसी भी शहर में भैंस बकरी या अन्य कोई जानवर देखने को नहीं मिल रहा।

कारण साफ है कि भैंस लोगों के लिए उपयोगी है। जो गाय दूध दे रही हैं वह घर के खूँटों पर बंधी हैं। जो दुधारू नहीं रहीं उनको घर निकाला दे दिया गया है। गांव में किसानों की फसलें खड़ी हुई हैं। भूखी गायें खेतों में जा सकती हैं इसलिए उनको गाँव से बाहर का रस्ता दिखा दिया गया है।

निर्दोष और मूक गायें जानती हैं कि उनकी तकदीर असली माँओं जैसी नहीं। वह हमारी नकली माँएं हैं। सड़कों पर या तो किसी वाहन के नीचे आकर तड़पते हुए दम तोड़ देंगी या स्लॉटर हाउस में ले जाकर काट दी जाएंगी।

सम्मानीय हनुमान सिंह जी का मानना है कि जिन्हें हम आवारा गायें कहते हैं वे आवारा नहीं मजबूर गायें हैं। आवारा तो हम हैं जो अपने स्वार्थ पूरा न होने पर उनको बेसहारा बनाकर छोड़ गए हैं।

इन गायों का भी उपयोग है। सिर्फ इनके गोबर और मूत्र को संग्रहित कर लिया जाए तो इतना कमाया जा सकता है कि इन गायों का खर्चा निकल जाए।

खैर! अब सवाल उठता है कि इन गायों को शहरों की सड़कों से हटा कर कैसे सुरक्षित रखा जाए?

राठौड़ साहब की इस बारे में जो राय है वह बड़ी व्यवहारिक है और वह क्या है यह जानने के लिए जरूरी है इस ब्लॉग के शुरू में दिए लिंक पर जाकर उनका साक्षात्कार सुनना। कृपया लिंक का इस्तेमाल करें आपको अपने हर सवाल का जवाब मिल जाएगा।

सुरेंद्र चतुर्वेदी

सुरेन्द्र चतुर्वेदी की साहित्य की कई विधाओं में पचास के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं | फिल्मी दुनिया से भी सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी का गहरा जुड़ाव रहा है ,जिसके चलते उन्होंने लाहौर, तेरा क्या होगा जानी, कुछ लोग, अनवर, कहीं नहीं, नूरजहां और अन्य तमाम फिल्मों में गीत लिखे, पटकथा लिखीं. पंजाबी, हिंदी, उर्दू आदि कई भाषाओं पर अधिकार रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी अपने ऊपर सूफी प्रभावों के कारण धीरे-धीरे सूफी सुरेन्द्र चतुर्वेदी के रूप में पहचाने जाने लगे. यों तो उन्होंने अनेक विधाएं आजमाईं पर ग़ज़ल में उनकी शख्सि‍यत परवान चढ़ी. आज वे किसी भी मुशायरे की कामयाबी की वजह माने जाते हैं.उनकी शायरी को नीरज, गुलज़ार, मुनव्वर राणा जैसे शायरों ने मुक्तकंठ से सराहा है. गुल़जार साहब ने तो जैसे उन्हें अपने हृदय में पनाह दी है. वे राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान एवं अन्य कई सम्मानों से नवाजे गए हैं | कानपुर विश्वविद्यालय से मानद डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित चतुर्वेदी इन दिनों अजमेर में रह रहे हैं |

चौथी कक्षा में जिंदगी की पहली कविता लिखी | कॉलेज़ तक आते-आते लेख और कविताएं तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगीं. जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, दिनमान, सारिका, इंडिया टुडे आदि |

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