वसुंधरा के नाप का पिंजरा फिलहाल बना ही नहीं है
भारतीय जनता पार्टी की राजनीति के पुरोधा ओम माथुर को सिक्किम का राज्यपाल बनाकर दिल्ली के धुरंधरों ने क्या वाकई उनके योगदान को सम्मान दिया है?
सियासत की लंबी पारी खेलने वाले अनुभवी खिलाड़ी के लिए क्या यह उचित था?
सक्रिय राजनीति से संन्यास आश्रम तक पहुंचाने की क्या यह परंपरा सुनियोजित नहीं?
क्या कांटों को रास्ते से हटाने की यह कोई चाल तो नहीं?
क्या इसी क्रम में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा को भी कहीं का महामहिम बनाकर सियासत की साध्वी बना दिया जाएगा?
इन सब सवालों के उत्तर मुझे नहीं लगता किसी को बताने की जरूरत है। राजनीति में रुचि रखने वाला हर योग्य व्यक्ति यह जानता है। दिल्ली के जुड़वा भाई लंबी और ऊंची उड़ान भरने वाले पंछियों के पर राज्यपाल बनाकर ही कतरते हैं। मजेदार बात यह है कि मजबूत से मजबूत राजनेता पीतल के खूबसूरत पिंजरे को सोने का समझ लेते हैं। उसमें कैद होने को अपना सौभाग्य समझने लगते हैं।
ओम माथुर जिनका सियासती कद जुड़वा भाइयों से किसी हाल में कम नहीं उनको जिस तरह एक छोटी सी सल्तनत का राज्यपाल बनाकर मूल धारा से हटा दिया गया। इसे कोई कुछ भी माने मैं तो उनकी सियासती नसबंदी मानता हूँ।
पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा ने उनके सम्मान में आयोजित समारोह में राज्यपाल की “महिमा चालीसा” जिस अंदाज में पढ़ी और शातिर लोगों ने उसे अलग अंदाज में लिया। कहा जा रहा है कि अब वसुंधरा राज्यपाल बनने की मानसिकता में आ चुकी हैं।
यहां मैं ऐसे लोगों को बता दूँ की वसुंधरा और ओम माथुर में जमीन आसमान का अंतर है। माथुर साहब अब दिल्ली से पंगा लेने के मूड में ही नहीं। शायद वह समझ चुके हैं कि जैसे तैसे अपनी इज्जत समेट कर बैठने में ही फायदा है। मुकद्दर से मुकाबला करने की जगह वह “भागते चोर की लंगोटी ही सही” वाली कहावत तक पहुंच गए हैं।
वसुंधरा जी के साथ ऐसा नहीं! वह आज भी शिखर से आसमान देखती हैं। उन्हें पिंजरे से ही आसमान देखने का शौक होता तो अब तक कब के ही उनके माप के पिंजरे बनवा लिए गए होते! राज्यपाल तो वह कब की ही बन गई होतीं।
वसुंधरा राजघराने की मिट्टी से बनी हुई हैं। सोने और पीतल के अंतर को समझती हैं। वह जानती हैं उन ज्वेलर्स को जो पीतल की लोंग बगल में रखकर ज्वेलर्स बन जाते हैं। वह आमरस और निबोली के अंतर को भी समझती हैं। वह जमीन पर पैर रखकर आसमां छूने का हौसला रखती हैं।
जाहिर है कि इतनी आसानी से वह राज्यपाल जैसे खिलौने से बहलाई नहीं जा सकेंगी।
राज्यपाल ओम माथुर के सम्मान में आयोजित समारोह का आयोजन स्वयं वसुंधरा जी की सोच से पैदा हुआ। आयोजन समिति के अधिकांश लोग उनके समर्थक ही थे। इस आयोजन में सबसे बड़ी समझदारी यह की गई कि वसुंधरा जी ने पर्दे के पीछे रहकर टूनार्मेंट आयोजित किया। घनश्याम तिवारी और राजेंद्र राठौड़ जैसे नेताओं को भी आमंत्रित करवाया ताकि दिल्ली की बेचैनी काबू में रखी जा सके। समारोह में वसुंधरा ने एक के बाद एक, बड़ी बहादुरी से, अपने धुर विरोधियों को फील्ड से बाहर का रास्ता दिखाया।
राजेंद्र राठौड़ हों या घनश्याम तिवारी उन्होंने सबको चुटकियां लेते हुए हवा में उड़ा दिया। आम का रस निचोड़ा तो घनश्याम तिवारी की जुबान पर निबोली का स्वाद चस्पा हो गया।
मित्रों! वसुंधरा राजे भले ही फिर से मुख्यमंत्री न बन पाएं या उन्हें नहीं बनने दिया जाए। मगर वह किसी राज्य का राज्यपाल तो कम से कम नहीं बनेगी। मेहरबानियों पर जीवित रहना उनके स्वभाव में नहीं। उनके खून में राजसी ठसका है। उनकी सोच में कतरे हुए पंखों से फड़फड़ाना नहीं! हौसलों की उड़ान कैसे तय होती है वह जानती हैं।
…..मगर अंत में यह भी कहना चाहूंगा कि यदि वसुंधरा जी फिर भी राज्यपाल का मुकुट शिरोधार्य कर लेती हैं तो इसे मैं ग्वालियर घराने पर लगा सवालिया निशान कहूंगा।