इस लोक में जो जैसा पाप पुण्य करता है उसका दण्ड या फल वही भोगता है ईश्वर न तो जबरदस्ती पाप कराता है न ही जबरदस्ती पुण्य। ईश्वर ने अच्छा बुरा शास्त्र में ऋषियों द्वारा लिखवा दिया। जो अच्छा करेगा वह कालान्तर में अच्छा फल भी पाता है जो शास्त्र विरुद्ध कोई काम करता है उसे दण्ड मात्र का विधान है। पाप कर्म (बलात्कार, चोरी , स्वगौत्री से संसर्ग आदि) को हरि इच्छा मानना भी अविद्या है।
हर कार्य को ईश्वर की मर्जी मानना महामूर्खता है।
शास्त्र की आज्ञा का उल्लंघन करके जो कर्म किया जाये उसे ईश्वर की मर्जी मानना भी अज्ञान है।
1. संध्याहीन ब्राह्मण को कर्मकांड के लिए बुलाना शास्त्र की आज्ञा नहीं पर आप या हम बुलाते हैं तो इसमें ईश्वर की मर्जी मानना मूर्खता है।
2. स्वगोत्री या मामा के गोत्र की स्त्री से विवाह करके उससे संसर्ग करना शास्त्र विरुद्ध है पर मूर्ख लोग उसे ईश्वर की मर्जी माने तो यह अनुचित और पाप है। ऐसी कन्या बहन होती है पर मूर्ख लोग उसे भाग्य का लेख समझकर पाप ही करते है।
3. ऐसे ही हर ऐसी क्रिया को ईश्वर की मर्जी मानना स्वच्छंदता है मात्र है जिसमें शास्त्र का आदेश न हो।
4. पत्नि के चक्कर में या स्वयं की अज्ञानता के कारण बूढ़े माता पिता को वृद्धाश्रम में भेजना या सेवा न करके स्वच्छंद कार्य करके ईश्वर की मर्जी मानना पाप है।
5. परायी नार से संबंध स्थापित करके उसे ईश्वर की मर्जी मानना भी पाप है न कि ईश्वर की मर्जी।
6. 30-35 की आयु में गृहस्थ आश्रम का मनुष्य यदि पत्नि और संतान का भरण पोषण न करके उनकी केयरिंग न करके संन्यास ले ले तो भी शास्त्र विरुद्ध है इसे ईश्वर का मर्जी न मानी जाये।
7. संन्यास का संकल्प लेकर किसी स्त्री से संतान पैदा करके हरि इच्छा मानना भी गलत है शास्त्र ने संन्यासी के जो कर्तव्य बताये हैं वही ईश्वर की मर्जी है मनगढ़ंत काम करके उन अनुचित कामों को ईश्वर की इच्छा मानना अनुचित हो।
8. 50 -55 वर्ष के होकर भी भजन पूजन के लिए प्रयास न कर पुन: नौकरी धंधा में लग जाना आसक्ति है न कि ईश्वर की इच्छा।
9. मित्र या गुरु की पत्नि से संतान उत्पन्न करना हरि इच्छा नहीं जो मूर्ख ऐसा करके हरि इच्छा मानता है वह पापी ही है।
10. शास्त्र विधान है कि शिष्य गुरु के चरण स्पर्श करे और पत्नि पति के। पर आधुनिक मूर्ख नारियाँ समभाव कहकर पति से ही चरण स्पर्श करवाने पर तुली हैं वे कहती हैं कि पति और पत्नी दोनो समान है।
11. विवाहित स्त्री घर को संभाले और विवाहित पुरुष धनार्जन करे यही शास्त्र आज्ञा है। केवल अति मजबूरी में ( पति न हो या पति बेरोजगार हो ) तो ही स्त्री मजबूरी में धन कमाये।
पर पति कमाता हो तो उसे घर ही संभालना चाहिए न कि घर छोड़कर इधर उधर की सेवा करे। पहला कर्तव्य ससुराल ही है दूसरा समयानुसार ही।
जब श्रीराजेन्द्र दास महाराज जैसे भी विवाहित स्त्रियों को साप्ताहिक कथा का वाचन करने से मना करते हैं तो ये स्त्रियाँ क्यों संत अवहेलना करती हैं नैष्ठिकब्रह्मचर्य धारी या एकाकी (मुमुक्षु /जितेन्द्रिय एकाकीजन)नर नारी को तो कोई भी कर्तव्य और अकर्तव्य नहीं। ऐसा शास्त्र आदेश है। अत: मनगढ़ंत कार्य को ईश्वर की इच्छा न मानें।