एक व्यंग्य
कल मैंने एक अनाथ शहर के नेताओं की खूबी बताई तो लोगों ने पूछा कि किस पार्टी के नेता के लिए है? क्या कहता? दरअसल मैंने लिखा था कि मेरे शहर के नेता शेर हैं मगर गीदड़ों की बारात में बैंड बजाते हैं। अब आप ही बताइए ये किस नेता के लिए है? या किस पार्टी के नेता के लिए है? यह सच्चाई है जो हर उस नेता के लिए है जो खुद को शेर समझता है।
मेरे लावारिस शहर के जितने भी तोप सिंह नेता हैं उनकी औकात भले ही वे खुद नहीं जानते हों मगर जनता जानती है। लगभग सभी आसमानी नेता हैं। जमीन से कोई पैदा नहीं हुआ। दो चार तो ऐसे हैं जो अंडे से पैदा हुए। जिनके घौंसले आज भी खजूर के पेड़ पर बने हुए हैं। पंछी को छायां नहीं फल लागे अति दूर।
राजस्थानी में एक बड़ी घटिया कहावत है। घर में कोन्या तेलन ताहीं, रांड मरे गुलगुला ताहीं। यह कहावत किसने किसके लिए और क्यों बनाई मुझे नहीं पता मगर मेरे लावारिस शहर के नेताओं के लिए यह सटीक बैठती है। इनके पल्ले में फूटी कौड़ी नहीं मगर बेटे दूर की कौड़ी फैंकने में माहिर हैं। ऐसे ऐसे बयानवीर इस शहर में फल फूल रहे हैं कि जिनको जरा तीर चलाने का अवसर मिल जाए तो सम्राट पृथ्वीराज को पीछे छोड़ दें। शब्द भेदी बाण इनके तरकशों में भरे हुए हैं।
मेरे अनाथ शहर के नेताओं के बारे में मैंने पी एच डी की हुई है। हर छोटे बड़े नेता की जन्मपत्री मुझे पता है। आजादी के पहले वाले नेताओं की मुझे प्रॉपर जानकारी नहीं मगर आजादी के बाद जितने भी नेताओं ने मेरे अनाथ शहर की हैसियत बढ़ाई वह मुझे मुंह जुबानी याद है। आप चाहें तो मुझसे जिस भी नेता की असलियत पूछ सकते हैं। वह भी सबूत सहित।
मेरे शहर के लगभग सभी नेता मर्द हैं। यहाँ मर्द शब्द का उपयोग गुणों के आधार पर कर रहा हूँ। यूँ मर्दानगी लिंग विशेष से जुड़ी होती है मगर जब मर्दांगी गुण बन जाता है तो औरत भी मर्द हो जाती है। आपने सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता रानी झांसी तो पढ़ी ही होगी। “खूब लड़ी मदार्नी वो तो झांसी वाली रानी थी।” इंदिरा गांधी के लिए भी मैं बांग्लादेश बनने के बाद कहा करता था कि देश में एक ही मर्द है और वह भी औरत है।
मेरे शहर के नेताओं में जहाँ तक मर्दांगी के गुणों का सवाल है सब मर्द हैं चाहे वह पुरुष हों या महिला। सबके सब एक दम कड़क मर्द! यहाँ आप ताली बजायेंगे वहाँ कोई (नेता) खड़ा हो जाएगा।
ताली वादन मेरे शहर की पहचान है। अभी हाल ही में एक ताली वादक नेता ने वीडीयो जारी किया। इक बच्चा देखा, हां जी वाले अंदाज में। चलिए नेता जी की कुंठा कहीं से तो निकली।
मेरे शहर के नेताओं में यह बहुत बड़ी खूबी है कि उनकी कुंठा किसी भी रास्ते से निकल जाती है।
बाल की खाल जब निकलती है तो खाल के कई बाल पहले ही निकल जाते हैं। सो निकल गए। पुराने निकले तो उनकी जगह नए आ गए। अब नए बाल यदि पहले कहीं और उगे हुए हों तो पुराने बालों को बुरा नहीं मानना चाहिए। बालों का तो काम ही उखड़ना और फिर कहीं उग जाना है। इस बार कौनसा अजूबा हुआ? बस यहां के बाल वहां तो वहां के बाल यहां ही तो उग गए।
अफसोस शायद पुराने बालों को यह है कि वह तब उखड़े जब मानसून में सफेद बालों के रंगे जाने का मौसम आया हुआ है। उधर के बाल इधर आ गए तो मान कर चलिए उनकी ग्रोथ तेजी से बढ़ेगी। उधर उगने वाले बालों की ग्रोथ तो रुकी हुई ही लग रही है। फिर भी वे जहाँ उगे हैं वहां की खाल भी कम उपजाऊ नहीं। कसम बीसलपुर के पानी की कि यदि डैम पहले की तरह भर गया तो वहां उगे बाल गोपाल मजे में आ जाएंगे।
शहर के नेताओं की बात करते हुए कहाँ आपने मुझे जिस्मानी बालों पर प्रवचन देने को मजबूर कर दिया। अंत में इतना ही कहूंगा कि चूहों की उस फौज से पंगा मत लो जिसका सेनापति शेर हो और शेरों की उस फौज से मत डरो जिसका सेनापति चूहा हो। समझ गए न मेरे शहर के नेताओं।
सुरेंद्र चतुर्वेदी
सुरेन्द्र चतुर्वेदी की साहित्य की कई विधाओं में पचास के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं | फिल्मी दुनिया से भी सुरेन्द्र चतुर्वेदी का गहरा जुड़ाव रहा है ,जिसके चलते उन्होंने लाहौर, तेरा क्या होगा जानी, कुछ लोग, अनवर, कहीं नहीं, नूरजहां और अन्य तमाम फिल्मों में गीत लिखे, पटकथा लिखीं. पंजाबी, हिंदी, उर्दू आदि कई भाषाओं पर अधिकार रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी अपने ऊपर सूफी प्रभावों के कारण धीरे-धीरे सूफी सुरेन्द्र चतुर्वेदी के रूप में पहचाने जाने लगे. यों तो उन्होंने अनेक विधाएं आजमाईं पर ग़ज़ल में उनकी शख्सियत परवान चढ़ी. आज वे किसी भी मुशायरे की कामयाबी की वजह माने जाते हैं.उनकी शायरी को नीरज, गुलज़ार, मुनव्वर राणा जैसे शायरों ने मुक्तकंठ से सराहा है. गुल़जार साहब ने तो जैसे उन्हें अपने हृदय में पनाह दी है. वे राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान एवं अन्य कई सम्मानों से नवाजे गए हैं | कानपुर विश्वविद्यालय से मानद डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित चतुर्वेदी इन दिनों अजमेर में रह रहे हैं |
चौथी कक्षा में जिंदगी की पहली कविता लिखी | कॉलेज़ तक आते-आते लेख और कविताएं तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगीं. जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, दिनमान, सारिका, इंडिया टुडे आदि |