हिन्दू मुस्लिम धर्मों की इक जदगी के नारे आखिर धरे रह गए!! और वहशी मुस्लिम दरिंदों ने अजमेर की पावन धरा पर वो खेल खेला, जिसका पटाक्षेप अब अदालत ने आजीवन कारावास देकर कर दिया है। छह दरिंदों पर तीस साल तक केस चला। जिन युवतियों पर दैहिक आक्रमण हुए थे वे उम्रदराज होकर दादी नानी बन गईं। हमलावरों की तीसरी पीढी ने अदालत का फैसला सुना। छह युवतियां ब्लैक मेल और क्रमवार बलात्कार सहन नहीं कर पाईं और अपनी इज्जत लुटने के बाद घर की इज्जत बचाने के लिए अपनी जान से खेल गयीं।
अजमेर के इस “कलंक काँड” को विश्व का सबसे बड़ा ब्लैक मेल काँड माना गया। सबसे बड़ा सैक्स स्कैंडल। सबसे घिनौना और पैशाचिक काँड।
सरकार! पुलिस! राजनेताओं! पत्रकारों! धर्मगुरुओं! और अदालत! ने इस काँड में जो भूमिका अदा की उसे सामने लाया ही नहीं गया। सिर्फ़ मुस्लिम वहशियों के कारनामों के कुछ हिस्से को ही किस्सा बना दिया गया।
इस काँड का खुलासा सबसे पहले किसने किया पत्रकारों और अखबार मालिकों में इसी बात की होड़ लगी रही और राजनेताओं ने असलियत का चेहरा ही ढक दिया।
इस कांड की शुरूआत हुई थी पुलिस लाइन्स के पास पी डब्ल्यू डी क्वाटर्स से। जहाँ सरकारी कर्मचारियों की युवतियों को सबसे पहले कुछ मुस्लिम बदमाशों ने अपना शिकार बनाया। गैस कनेक्शन दिलवाने का झांसा देकर दो बहनों को दरगाह इलाके में बुलाया गया। युवा कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने उनसे मनमानी की। उनके अश्लील चित्र खींचे और यहीं से शुरू हो गया कलंकित काँड का क्रमवार सिलसिला। शिकार हुई लड़कियों से शिकार मंगवाए जाने लगे।
तभी मुझे मामले की भनक मिली। एक युवक ने मुझे बाई पोस्ट कुछ फोटोज भेजे। फोटोस्टेट के रूप में। जानकारी हाँसिल करते हुए मैं पुलिस लाईन की उन लड़कियों तक पहुंच गया जिनके साथ सिलसिलेवार नाइंसाफी हो रही थी। उस समय न्याय अखबार से मैं जुड़ा हुआ था। युवतियों ने मुझे अपने साथ हो रही ब्लैकमेल की सारी घटनाओं की जानकारी लिखित में दी। अन्य युवतियां भी जो इस घिनौनी वारदातों का शिकार हो चुकी थीं बहादुरी से मेरे साथ हो गई।
न्याय अखबार के मालिक आदरणीय बाबा विश्व देव को मैं हर जानकारी से अवगत करवा रहा था। मुझे डर था कि अमन और शांति से रह रहे हिंदू मुस्लिम धर्मावलंबियों के बीच कहीं इस कांड से जहर न घुल जाए । इसलिए मैंने मेरे घर कुंदन नगर पर कुछ जिÞम्मेदार दोस्तों को भोज पर बुलाया और उनको बताया कि कुछ वहशी मुस्लिम हिन्दू युवतियों के साथ कितना घिनौना खेल खेल रहे हैं।
भोज पर पत्रकार गिरिधर तेजवानी! राजेन्द्र याग्निक ! निर्मल मिश्रा! युवा कांग्रेसी कैलाश झालीवाल !और मुस्लिम कांग्रेसी नेता (विधायक) हाजी कयूम खां मौजूद रहे। सर्वसम्मति से कयूम खां को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि मुस्लिम युवकों के खिलाफ वह आवाज उठाएं और पुलिस में रिपोर्ट दर्ज़ कराएं ताकि धार्मिक माहौल न बिगड़े। बाद में इन सभी पत्रकारों ने अदालत में ठोक कर बयान दिए।
यहाँ तक कोई मीडिया ट्राइल नहीं हुई थी। बाबा विश्व देव शर्मा पूरी तरह घटना क्रम पर नजर रखे हुए थे और जिÞम्मेदारी से अपने नागरिक कर्तव्य का निर्वाह कर रहे थे।
मैंने उस समय के नगर परिषद सभापति वीर कुमार को भी विश्वास में लेकर पूरी बात बताई। उन्होंने भी हरामी मुस्लिम युवकों को सबक सिखाने का वादा किया मगर एक दो रोज में ही उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। साफ कह दिया कि मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत ने मामले को न उछलने देने को कह दिया है। मामला दबाया जाने लगा। एक संध्या कालीन अखबार में मामूली सी सूचना छपी तो तत्कालीन पुलिस अधिकारी ओमेन्द्र भारद्वाज ने साफ कह दिया कि किसी लड़की के साथ कुछ नहीं हुआ है।
यहीं से गैर जिÞम्मेदारी से मीडिया मामले में कूद गया। एक स्थानीय दैनिक अखबार ने मोर्चा संभाल लिया। किश्तवार समाचार छपने लगे। सच्चाई क्या थी और छपने क्या क्या लगा। पीड़ित युवतियों के नाम छिपाकर उनके पते छापे जाने लगे। उनके पिता क्या करते हैं कहाँ रहते हैं जब सामने आने लगे तो पीड़ित युवतियां घबराने लगीं।
इधर कुछ मीडिया कर्मी तो मामले का नायक बनने के लिए अफवाहों पर आधरित सूचनाएं पुलिस को पहुंचाने लगे। जाँच के दौरान जब मैंने पुलिस को मेरे पास की सूचनाएं दीं तो मुझ पर ही दवाब बनाए जाने लगा। कुछ शातिर पत्रकार तो मेरे ही पीछे पड़ गए। एक पत्रकार ने तो पुलिस में बयान तक दे दिए कि मैंने किसी युवती से सोने की चेन ले ली है।
बयान जब कोर्ट में पहुंचे और पत्रकार से पूछा गया कि किस युवती की चेन सुरेन्द्र चतुवेर्दी ने ली तो पत्रकार बोला “मुझे नहीं पता! मैंने तो पान की दुकान पर लोगों को बात करते सुना था।”
न्यायाधीश महोदय ने पत्रकार को बुरी तरह फटकारा और ऐसी पत्रकारिता पर शर्म आने की बात कहीं। इसी तरह के कई आरोप लगाए गए मगर जब अदालत ने फैसला सुनाया तो दैनिक भास्कर अखबार के विधि संवाददाता राजेन्द्र हाड़ा ने न्यायाधीश की टिप्पणी छापी जिसमे कहा गया था इस कांड में सिर्फ सुरेन्द्र चतुवेर्दी की भूमिका सच्ची और सकारात्मक रही बाकी पत्रकारों ने कुटिलता से पत्रकारिता की। फैसला और अखबार की कटिंग आज भी मेरे साथ है।
इस मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत की भूमिका और पुलिस अधिकारी ओमेन्द्र भारद्वाज की क्या भूमिका रही यह सर्वविदित है। अपने कार्यकाल में कोई दंगा या अप्रिय घटना न हो इसके लिए शायद वे काँड को सांप्रदायिक रंग नहीं देना चाहते थे। यह तो मैं भी चाहता था मगर इसके लिए जो कार्यवाही होनी चाहिए थी वह नहीं हुई। हिंदू मुस्लिम धर्मगुरुओं को यदि बीच में ले लिया गया होता तो दोषी सलाखों तक भी पहुंच जाते, कोई अप्रिय घटना भी नहीं होती।
इधर एक अखबार मालिक ने भी अखबार की टी आर पी बढ़ाने के लिए जिस गैर जिÞम्मेदारी से क्रमवार खबरें छापीं उससे अजमेर का नाम इतना कलंकित हो गया कि अजमेर की युवतियों से शादी करने में समाज डरने लगा। सालों तक अजमेर की युवतियां संदेहास्पद दृष्टि से देखी जाती रहीं। आज भी यह कलंक पूरी तरह से धुल नहीं पाया है।
जिन युवतियों की आत्महत्या का होना बताया जा रहा है उसमें भी मीडिया की भूमिका बहुत जिÞयादा रही। हर रोज यह डर बना रहता था कि पता नहीं किस युवती का नाम अखबार में आ जाए और समाज में वह मुँह दिखाने लायक नहीं रहे।
इसके बाद जब अदालती कार्यवाही हुई तो वह भी शर्मनाक हुई। अदालत में दिए गए लोगों और पीड़ताओ के बयान छापने पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया। बयान बदनामी का कारण बनते रहे।
अदालती कार्यवाही की रफ़्तार यह रही कि आज तीस साल बाद फैसला सम्भव हो पाया है जब कि अभी भी एक आरोपी पुलिस गिरफ़्त से बाहर हैं। उधर हाई कोर्ट जाने का विकल्प आरोपियों के पास खुला है। सोचिए कि अंतिम सजा कब मिलेगी? मिलेगी भी या नहीं? जिस कांड में अस्सी फीसदी पीड़ताओ ने अपने बयान बदल दिए हों। अस्सी फीसदी गवाह भी होस्टाइल हो गए हों। पीड़िताएं दादी नानी बन चुकी हों। लोग आरोपियों को पहचान नहीं पा रहे हों । ऐसे में अंतिम फैसला कितना सार्थक होगा। सोचा जा सकता है।