कालिंदी के महापंडित कौत्स स्नान करके भगवती ऊषा का वंदन कर रहे थे। एक घड़ियाल उन्हें काफी दूर से ताक रहा था, किंतु कौत्स ऐसी ऊंची और सुदृढ़ शिला पर बैठे थे कि घड़ियाल वहां तक पहुंच भी नहीं सकता था। निदान उसने युक्ति से कम लिया।
यमुना की तलहटी से रत्न का ढेर उठाकर उसने ऊपर की ओर उछाला। मोतियों का ढेर कौत्स के आसपास जाकर बिखर गया। कौत्स ने चारों ओर बिखरे मोती और मणि मुक्ताएं देखी तो अंत:करण में छुपा उनका लोभ जग पड़ा। मन में विलासितापूर्ण जीवन के चित्र बने लग गए। कोई और ना आ जाए इस भय से कौत्स जल्दी-जल्दी वह रत्न बीनकर अपने अधो वस्त्र में रखने लगे।
घड़ियाल को अवसर मिल गया। जल से ऊपर शीश निकाल कर उसने कहा- “आचार्य श्रेष्ठ! आपके दर्शन करके कृत कृत्य हो गया, यह तो मेरी तुच्छ भेंट थी। आपको जल्दी ना हो तो आप मुझे त्रिवेणी तक पहुंचा दें, मैं वहां का रास्ता नहीं जानता। यदि इस पुण्य कार्य में आप मेरी मदद करें, तो मैं इन तुच्छ मोतियों से भी बढ़कर पांच मुक्ता हार दे सकता हूं।”
कौत्स के हर्ष का ठिकाना ना रहा। उन्होंने घड़ियाल का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। वह त्रिवेणी तक ले चलने को सहमत हो गए। क्षणिक लाभ और लालच ने उनका विवेक नष्ट कर दिया।
घड़ियाल ने उन्हें सादर पीठ पर बैठाया और वहां से चल पड़ा। अभी वह 100 गज चलकर बीच धार में पहुंच ही रहा था कि, उसे हंसी आ गई।
घड़ियाल को हंसते देखकर कौत्स ने पूछा- तात! असमय आपकी हंसी का रहस्य क्या है?
घड़ियाल एक बार वीभत्स हँसी हंसा और फिर दार्शनिक जैसी मुद्रा बनाकर बोला-” आचार्यश्रेष्ठ! आप जीवन भर दूसरों को उपदेश देते रहे कि, विनाश सांसारिक आकर्षण के रूप में आता है, क्षणिक तुष्टि भी प्रदान करता है, पर एक बार मनुष्य को अपने शिकंजी में आने पर, वासनाएं मनुष्य को वहां ले जाती हैं जहां शिवाय विनाश के कुछ नहीं होता। दूसरों को उपदेश देने के बाद भी तुम यह रहस्य न समझ सके! और आज एक लालच ने ही तुम्हें सर्वनाश के पास पहुंचा दिया।”
यह कहकर उसने कौत्स को उछाला और एक ही क्षण में उदरस्थ कर लिया।
सच है सांसारिक आकर्षणों में जो अडिग नहीं रह सकता, वासनाएं उसे उसी तरह खा जाती है जैसे कौत्स को घड़ियाल ने धोखा देकर चट कर लिया।
महामना तुलसी दास जी ने क्या खूब कहा है,
पर उपदेश कुशल बहु तेरे।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।