एक बात समझ नही आती। सुरक्षा, पुलिस, प्रशासन, वित्त, शिक्षा, चिकित्सा, रेल, सेना आदि जैसे कई मामलों पर चैनलों पर डिबेट में एवं अखबारों में विशेषज्ञ बनकर अपनी राय रखकर इनमें खोट निकालने और कमियां गिनाने वाले उस समय क्यों खामोश रहते हैं, जब वे खुद इनका हिस्सा होते हैं। सारी कमियां ऐसे महापुरुषों को रिटायरमेंट के बाद ही क्यों नजर आती है?
नौकरी के दौरान तो सच को सच और गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं होती। तब तो मोटी तनख्वाह लेकर सरकारी सुविधाओं और ऊपर की कमाई का जीभर के उपभोग करते हैं और रिटायर होते ही सिस्टम को सुधारने के लिए प्रवचन देते हैं। जब खुद सिस्टम का हिस्सा थे, तब दिखाते उसे सुधारने की बहादुरी। इनमें भी कई विशेषज्ञ तो राजनीतिक पार्टियों का दामन थामकर अपने रिटायरमेंट को भी सुधार लेते हैं।