मधुकर कहिन
मैं भटकता ही फिरा हूँ रहगुजर से रहगुजर
आशियाँ को मेरे जाने लग गयी किसकी नजर
जिÞन्दगी की राह में मिल गयी चंद ख्वाईशें
चल पड़ा मैं साथ उनके ढूँढने अपनी डगर
अय बुलंदी ये बता है तू भला किस काम की
तेरी जद में आ गये और कट गए कितने शजर
बेवजह बेजा खलिश मे क्या गया किसका गया
टूट कर बिखरा है जो वो तेरा घर वो मेरा घर
ऐसे रोजनामों की है बची औकात क्या
एक ही के बारे में छप रही जिसमें खबर
अय अना तू ही बता ऐसी अना किस काम की
तेरी जिद्द के आगे जब जल गया सारा शहर
बेच कर गैरत जीए तो मधुकर क्या जीए
कट सके तो काट डालो अब नहीं झुकता ये सर