जब दिल्ली पर कूच करने के लिए तैमूर लंग के 90,000 सैनिक समरकंद में जमा हुए तो पूरे शहर में उनके एक जगह जमा होने से धूल ही धूल फैल गई। दिल्ली समरकंद के दक्षिण-पूर्व में था वहाँ से करीब 1,000 मील दूर।
दिल्ली तक पहुंचने का रास्ता शायद दुनिया का सबसे कठिन रास्ता था जो हिंदुकुश की पहाड़ियों के ऊपर से होकर जाता था जिसके आसपास वो लोग रहते थे जिनको सिकंदर महान भी झुका पाने में कामयाब नहीं हुए थे।
बीच में अनेक नदियाँ, पथरीले रास्ते और रेगिस्तान थे जो दिल्ली तक पहुंचने का रास्ता और दुर्गम बना देते थे। यदि इनसे पार पा भी लिया जाए तो तैमूर की सेना का सामना भीमकाय हाथियों से होना था जिन्हें तैमूर और उसकी सेना ने पहले कभी नहीं देखा था। उनके बारे में उसने कहानियाँ जरूर सुन रखी थीं कि वो आनन-फानन में न सिर्फ घर और पेड़ उखाड़ फेंकते हैं बल्कि सामने की दीवार को भी रौंदते हुए चले जाते हैं। उनकी सूढ़ों में इतनी ताकत थी कि वो लपेट कर किसी भी सैनिक को नीचे फेंक कर अपने पैरों से कुचल सकते थे।
दिल्ली की अशांति ने तैमूर को दिया न्योता
उस समय दिल्ली की हालत भी ठीक नहीं थी। वर्ष 1338 में फिरोज शाह तुगलक की मौत के बाद पूरा भारत बंगाल, कश्मीर और दक्कन जैसे इलाकों में बंट चुका था।
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समकालीनों के अनुसार, नादिर शाह एक लंबा, काली आंखों वाला सुंदर व्यक्ति था, जो अपने दुश्मनों के लिए बेरहम था और उसकी अधीनता स्वीकार करने वालों के लिए बड़ा दिल रखता था।
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मशहूर इतिहासकार सर जॉर्ज डनबर अपनी किताब ‘द हिस्ट्री आॅफ इंडिया’ में लिखते हैं, “फिरोज की मौत के दस सालों के अंदर एक के बाद एक दिल्ली में पाँच बादशाहों, उनके पोतों और उनके छोटे बेटे ने राज किया था। दिल्ली की अंदरूनी हालत ये थी कि वो एक तरह से किसी भी बाहरी आक्रांता को हमला करने के लिए न्योता दे रही थी।”
समरकंद से बाहर निकलने के तुरंत बाद ही चढ़ाई शुरू हो गई थी। तैमूर के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी अपने 90,000 सैनिकों के साथ उनकी दोगुनी संख्या में घोड़ों को किस तरह दुनिया की छत के पार ले जाया जाए।
जस्टिन मरोजी अपनी किताब ‘टैमरलेन, सौर्ड आफ इस्लाम, कॉन्करर आॅफ द वर्ल्ड’ में लिखते हैं, “तैमूर की सेना को भाँति भाँति के इलाकों से होकर गुजरना था जिनके मौसम एक जैसे नहीं थे। तैमूर से कम नेतृत्व क्षमता वाले किसी भी शख़्स को बरबाद करने के लिए इतना काफी था।”
“समरकंद से दिल्ली के बीच बर्फ़ से ढकी चट्टानें, गर्मी से झुलसा देने वाले रेगिस्तान और बंजर जमीन का बड़ा इलाका था जहाँ सैनिकों के खाने के लिए एक दाना तक नहीं उगाया जा सकता था।”
“तैमूर के सैनिकों की पूरी रसद करीब डेढ़ लाख घोड़ों की पीठ पर चल रही थी। इस अभियान के 600 साल बाद आज भी इस इलाके से गुजरने वाले टैक्सी ड्राइवर बर्फ़ीले दर्रों के खराब मौसम की शिकायत किए बिना नहीं रहते।”
तैमूर के सैनिक यूँ तो कई बड़ी लड़ाइयां लड़ चुके थे लेकिन उन्हें इन परिस्थितियों में आगे बढ़ने का कोई अनुभव नहीं था। रास्ता इतना खतरनाक था कि कई घोड़ों ने वहां फिसलकर अपनी जान दे दी थी। एक समय ऐसा भी आया जब कई लड़ाइयां जीत चुके तैमूर को घोड़े की पीठ से उतर कर एक साधारण सिपाही की तरह पैदल चलना पड़ा।
उनका अनुसरण करते हुए उनके सारे सैनिक भी पैदल चलने लगे। अगस्त आते- आते तैमूर की सेना काबुल पहुंच चुकी थी। अक्तूबर में तैमूर सतलुज नदी पर जाकर रुका जहाँ सारंग खाँ ने उसका रास्ता रोका लेकिन तैमूर उन पर जीत हासिल करने में कामयाब रहा। दिल्ली पहुंचने से पहले रास्ते में तैमूर ने करीब एक लाख हिंदू लोगों को बंदी बना लिया। दिल्ली के पास पहुंचकर लोनी में तैमूर ने अपना शिविर लगाया और यमुना नदी के पास एक टीले पर खड़े होकर हालात का जाएजा लिया।
हालांकि तब तक आपसी लड़ाई के कारण दिल्ली की ताकत बहुत घट चुकी थी लेकिन तब भी उसकी चारदिवारी के अंदर दस हजार घुड़सवार, 25 से 40 हजार सैनिक और 120 हाथी तैमूर की सेना का सामना करने के लिए तैयार थे।
जस्टिन मरोजी लिखते हैं, “तैमूर और दिल्ली के सैनिकों की पहली झड़प तब हुई जब तैमूर के 700 सैनिकों के अग्रिम दस्ते पर मल्लू खाँ के सैनिकों ने हमला किया। उस समय दिल्ली पर सुल्तान मोहम्मद शाह राज कर रहे थे लेकिन वास्तविक प्रशासन मल्लू खां के नियंत्रण में था।”
साथ चल रहे एक लाख हिंदू बंदियों को मारने का आदेश दिया
तैमूर को डर था कि अगर मल्लू खां के सैनिक उन पर हमला करते हैं तो उनके साथ चल रहे एक लाख हिंदू बंदी उनका हौसला बढ़ाएंगे और उनके समर्थन में उठ खड़े होंगे।
जस्टिन मरोजी लिखते हैं, “तैमूर को अपनी सेना के पीछे चल रहे इन बंदियों के विद्रोह का इतना डर था कि उसने उसी जगह पर एक एक बंदी को मारने का आदेश दे दिया। तैमूर के साथ चल रहे धार्मिक मौलानाओं तक की ड्यूटी लगाई गई कि वो इन बंदियों की अपने हाथ से हत्या करें।”
बाद में सर डेविड प्राइस ने अपनी किताब ‘मेमॉएर्स आफ द प्रिंसिपल इवेंट्स आॅफ मोहमडन हिस्ट्री’ में लिखा, “मानवता के इतिहास में इस तरह की क्रूरता का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।”
उस समय तैमूर को एक दूसरी चिंता भी सता रही थी। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मुलफिजत तिमूरी’ में लिखा, “मेरी सबसे बड़ी चिंता थी ताकतवर भारतीय हाथी। हमने समरकंद में उनके बारे में कहानियाँ सुन रखी थीं और पहली झड़प में हमने उनके कारनामे भी देख लिए थे। उनके चारों तरफ जिÞरह-बख़्तर लगा होता था और उनके पीठ पर हौदों में मशाल फेंकने वाले लोग, तीरंदाज और महावत बैठे रहते थे। ऐसी अफवाहें थीं कि हाथी के बाहरी दाँतों में जहर लगा हुआ था जिनकों वो लोगों के पेट में घुसा देते थे। उनके ऊपर तीरों और बर्छों का कोई असर नहीं होता था।”
शुरूआत से ही तैमूर के सैनिक हावी हुए
अब जरूरत थी भारतीय हाथियों से निपटने की सटीक योजना की। तैमूर ने अपने सैनिकों को अपने सामने गहरे गड्ढे खोदने का आदेश दिया। उन गड्ढों के आगे बैलों के गलों और पैरों में चमड़े के पट्टे बांध कर खड़ा कर दिया गया। फिर ऊँटों की पीठ पर लकड़ियाँ और सूखी घास लाद कर उनको भी एक साथ बांध दिया गया। तीर चलाने वालों को आदेश दिए गए कि वो हाथियों के महावतों को अपने तीरों का निशाना बनाएं।
17 दिसंबर, 1398 को मल्लू खाँ और सुल्तान महमूद की सेना तैमूर की सेना से लड़ने दिल्ली गेट से बाहर निकली। उन्होंने हाथियों को बीच में रखा। उन पर हथियारों से लैस सैनिक सवार थे। तैमूर एक ऊँचे टीले पर था जहाँ से वो लड़ाई का पूरा दृश्य देख सकता था। लड़ाई शुरू होने से कुछ समय पहले तैमूर ने घोड़े से उतर कर जमीन पर सजदा कर जीत की दुआ मांगी। लड़ाई शुरू होते ही तैमूर के तीरंदाजों ने मल्लू खाँ की सेना के दाहिने हिस्से को अपना निशाना बनाया।
मल्लू खाँ ने इसके जवाब में बाईं तरफ के अपने सैनिकों को तैमूर के दाहिने भाग वाले सैनिकों पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया। लेकिन तैमूर के सैनिकों ने मल्लू खाँ के किनारे चल रहे सैनिकों पर हमला कर उन्हें तहस-नहस करना शुरू कर दिया।
ऊंटों की पीठ पर सूखी घास रख आग लगा दी गई
तभी तैमूर ने देखा कि एक इलाके में हाथियों के कारण उनके सैनिकों के बीच कुछ कोलाहल है। उसने इसके लिए पहले से ही योजना बना रखी थी। अब उसको अमली जामा पहनाने का वक्त आ गया था। उसने अपने सैनिकों से कहा कि वो पीठ पर सूखी घास और लकड़ी लादे ऊँटों को आगे करें। जैसे ही हाथी उनके सामने आए ऊँटों की पीठ पर रखी घास और लकड़ियों में आग लगा दी गई।
जस्टिन मरोजी लिखते हैं, “अचानक पीठ पर जलती आग के साथ ऊँट हाथियों के सामने आ गए। हाथी डर कर अपने ही सैनिकों सी तरफ मुड़ गए और उन्होंने अपने ही सैनिकों को कुचलना शुरू कर दिया। नतीजा ये हुआ कि मल्लू खाँ के सैनिकों के बीच अफरा-तफरी मच गई। इतिहासकार ख़्वानदामीर ने अपनी किताब ‘हबीब-उस-सियार’ में लिखा, ‘अचानक युद्ध स्थल में पेड़ से गिरे नारियलों की तरह भारतीय सैनिकों के सिर दिखाई देने लगे।”
“दाहिने छोर से तैमूर के सिपहसालार पीर मोहम्मद ने उनका पीछा किया और दिल्ली की दीवारों के अंदर उन्हें खदेड़ कर दम लिया। इस बीच तैमूर के 15 वर्षीय पोते खलील ने एक हाथी को उस पर सवार सैनिकों के साथ पकड़ लिया और अपने दादा के सामने ले आया।”
तैमूर के हाथ और पैर घायल हुए
उसी समय तैमूर लड़ाई का नेतृत्व कुर्रा खाँ को देकर खुद लड़ाई में कूद पड़ा। तैमूर ने अपनी आत्मकथा में लिखा, “मैंने एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुल्हाड़ी थाम ली। मैं दाएं बाएं तलवार और कुल्हाड़ी चलाता हुआ चल रहा था। मैंने दो बार हाथियों की सूढ़ काट डाली और जिसकी भी सूँढ़ काटी, वो हाथी घुटने टेक कर एक करवट लेट गया और उसके हौदे पर बैठे सैनिक जमीन पर गिर पड़े। तभी शहर से निकलने वाले बड़ी बड़ी मूंछों वाले हिंदी सिपाहियों ने हमारा रास्ता रोकने की कोशिश की।”
“मेरे दोनों हाथ इतनी तेजी से वार कर रहे थे कि खुद मुझे अपनी ताकत और फुर्ती पर ताज्जुब हो रहा था। बड़ी बड़ी मूंछों वाले सिपाही हमारे आगे ढेर होते जा रहे थे और हम धीरे धीरे शहर के दरवाजे के पास पहुंच रहे थे।” इस बीच तैमूर फिर घोड़े पर सवार हो गया। जब वो एक खाली जगह पर पहुंचा तो उसके हाथ से घोड़े की एड़ छूट गई।
तैमूर ने अपनी आत्मकथा में लिखा, “मैंने हैरान होकर मशाल की रोशनी में अपना हाथ देखा। पता चला कि एड़ के हाथ से फिसलने के कारण मेरा खुद का खून था जिससे मेरा हाथ भीग गया था। मैंने अपने ऊपर नजर डाली तो मेरे सारे कपड़े खून से तरबतर थे। मुझे लगा जैसे किसी खून के तालाब में फेंक कर मुझे बाहर निकाला गया है। जब मैंने अपने शरीर को गौर से देखा तो पाया कि मेरी दोनों कलाइयाँ घायल हो चुकी थीं और मेरे दोनों पैरों पर पाँच जगह घाव लगे थे।”
बचे हुए हाथियों ने तैमूर के सामने सिर झुकाया
लेकिन तब तक तैमूर के सैनिक दिल्ली के अंदर दाखिल हो चुके थे। उसके एक दिन बाद तैमूर एक विजेता की तरह दिल्ली के अंदर घुसा। दिल्ली की दीवारों के भीतर एक तंबू गाड़ कर आनन-फानन में तैमूर का दरबार बनाया गया। उसके सामने से सुल्तान महमूद के दरबार के लोगों और दिल्ली के सभ्राँत लोगों को गुजारा गया। ये इस बात का प्रतीक था कि दिल्ली पर तैमूर लंग का पूरी तरह से नियंत्रण हो चुका था।
दिल्ली के सुलतान महमूद और मल्लू खाँ अपने लोगों को आक्राँता के रहम पर छोड़कर युद्ध के मैदान से भाग खड़े हुए।
जस्टिन मोरोजी लिखते हैं, “एक एक कर 100 के करीब बचे हुए हाथियों को तैमूर के सामने लाया गया। उन्होंने घुटनों के बल बैठ कर और अपनी सूंढ़ उठा कर दिल्ली के नए मालिक तैमूर को सलामी दी। तैमूर ने तय किया कि वो इन हाथियों को तबरीज, शीराज, अर्ज़िनजान और शिरवान के राजकुमारों को तोहफे के तौर पर भिजवाएगा। उनके साथ उसने अपने संदेशवाहक भी भेजे ताकि पूरे एशिया में खबर फैल जाए कि दिल्ली पर तैमूर का कब्जा हो गया है।”
दिल्ली में तैमूर के सैनिकों ने किया नरसंहार
लड़ाई खत्म होने के बाद तैमूर ने उस चीज पर ध्यान लगाया जिसके लिए उसने दिल्ली पर हमला किया था। उसने अंदाजा लगाना शुरू किया कि दिल्ली का खजाना कितना बड़ा है और वो यहाँ से क्या क्या लूट कर ले जा सकता है। उसके सैनिकों ने घर घर जा कर ये बताना शुरू कर दिया कि उन्हें कितना हरजाना देना होगा।
कुछ सैनिक अपने साथियों के लिए शहर में अनाज की लूटपाट करने लगे। शराफुद्दीन अली याजदी का मानना है कि उस समय दिल्ली शहर की सीमा के अंदर तैमूर लंग के 15,000 सैनिक पहुंच चुके थे। तभी तैमूर के सैनिकों और दिल्लीवासियों के बीच कुछ कहासुनी हुई।
मोहम्मद कासिम फेरिश्ता अपनी किताब ‘हिस्ट्री आॅफ द राइज आॅफ मोहमडन पावर इन इंडिया में’ लिखते हैं, “हिंदुओं ने जब देखा कि उनकी महिलाओं की बेइज्जती की जा रही है और उनके धन को लूटा जा रहा है तो उन्होंने दरवाजा बंद कर अपने ही घरों में आग लगा दी। यही नहीं वो अपनी पत्नियों और बच्चों की हत्या कर तैमूर के सैनिकों पर टूट पड़े। इसके बाद तो दिल्ली में वो नरसंहार देखने में आया कि सड़कों पर लाशों के ढेर लग गए। तैमूर की पूरी सेना दिल्ली में घुस आई। थोड़ी देर में दिल्लीवासियों ने हथियार डाल दिए।”
दिल्ली का क़त्ल-ए-आम
मंगोलों ने दिल्ली वासियों को पुरानी दिल्ली तक खदेड़ दिया जहाँ उन्होंने एक मस्जिद के अहाते में शरण ली। जस्टिन मरोजी लिखते हैं, “तैमूर के 500 सैनिकों और दो अमीरों ने मस्जिद पर हमला कर वहाँ शरण लिए हुए एक एक व्यक्ति को मार डाला। उन्होंने उनके काटे हुए सिरों की एक मीनार सी बना दी और उनके कटे हुए शरीर चील और कव्वों के लिए खाने के लिए छोड़ दिए। लगातार तीन दिनों तक ये कत्ल ए आम चलता रहा।”
गियाथ अद्दीन अली ने अपनी किताब ‘डायरी आॅफ तेमूर्स केमपेन इन इंडिया’ उस समय की घटनाओं पर रोशनी डालते हुए लिखा, “तातार सैनिक दिल्लीवासियों पर इस तरह टूटे जैसे भूखे भेड़ियों का झुंड भेड़ों के समूह पर टूटता है।” नतीजा ये रहा कि अपनी धन-दौलत, जवाहरातों और इत्र के लिए मशहूर दिल्ली जलते हुए नर्क में बदल गई जिसके कोने कोने से सड़ रही लाशों की बदबू आ रही थी।
अपने शामियाने में आराम कर रहे तैमूर लंग को दिल्ली में चल रहे इस कत्ल ए आम की कोई भनक नहीं थी। तैमूर के सिपहसालार दिल्ली की जनता पर जुल्म ढाकर उस पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन उनके साथी इस बारे में तैमूर को सूचित करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। लेकिन कुछ इतिहासकारों को शक है कि तैमूर को इस जनसंहार की हवा नहीं थी। तैमूर की सेना अपने अनुशासन के लिए विख्यात थी। ऊपर के आदेश के बिना वो इस तरह की लूटपाट और कत्ल-ए-आम नहीं कर सकती थी।
- जब चर्चिल ने पूछा- ‘गांधी मरे क्यों नहीं अब तक?’
लुटेरे तैमूर की शासन करने में कोई दिलचस्पी नहीं
उन्हें लूटपाट के लिए तैमूर का हुक्म मिला हो या नहीं लेकिन तैमूर के सैनिक दिल्ली की समृद्धि से हतप्रभ थे। याजदी का कहना है कि ‘चारों तरफ सोना, चाँदी। जेवर, मोती, कीमती पत्थर, सिक्के और कीमती कपड़े फैले हुए थे। इस सबसे बढ़कर दिल्ली के आम नागरिक थे जिनसे तैमूर के सैनिक मनमर्ज़ी काम करवा रहे थे। तैमूर के सैनिक जब वापस जाने के लिए दिल्ली से बाहर निकले तो हर सैनिक के पीछे औसतन 150 आम लोग चल रहे थे।’
तैमूर दिल्ली में सिर्फ दो हफ़्ते रहा। इस बीच उसने स्थानीय शहजादों का आत्मसमर्पण और नजराना स्वीकार किया। दिल्ली के कई हस्तशिल्प कलाकारों को वो उनके हाथों में जंजीर बाँधकर अपने साथ समरकंद ले गया। जाने से पहले तैमूर लंग ने खिज्र खाँ को आज के पंजाब और ऊपरी सिंध का गवर्नर नियुक्त किया। दिल्ली में जानबूझकर उसने कोई शासक नहीं नियुक्त किया। वहाँ के शासन के लिए बच गए शहजादों के बीच कई सालों तक संघर्ष होता रहा।
कुछ समय बाद मल्लू खाँ सुल्तान शाह भी लौट कर इस संघर्ष में शामिल हो गए। तैमूर की कभी भी शासन करने में दिलचस्पी नहीं थी। राज्यों को जीतने का ही उसे जुनून था। इसके लिए कई इतिहासकारों ने उसकी आलोचना भी की थी।
दिल्ली के लूटे हुए खजाने के साथ तैमूर की सेना ने वापस अपने देश का सफर शुरू किया। उनके पास इतना सामान था कि वो एक दिन में सिर्फ चार मील तक का ही सफर तय कर पा रहे थे। लौटते हुए भी रास्ते में तैमूर को करीब 20 छोटी मोटी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। जहाँ भी मौका मिला उसने और लूटपाट की।
100 सालों तक दिल्ली उस हमले से नहीं उबर पाई
कश्मीर तक पहुंचते पहुंचते तैमूर के हाथ में एक फोड़ा निकल आया। जब उसने काबुल पार किया तो उसके दोनों हाथों और पैरों में छाले हो गए। उसकी हालत इतनी खराब हो गई कि वो घोड़े की पीठ पर बैठने लायक भी नहीं रहा।
उसने हिंदुकुश के पहाड़ों का सफर एक घोड़े के बछड़े की पीठ पर बैठकर तय किया। ये सारा रास्ता इतना घुमावदार था कि शाही अमले को एक दिन में एक नदी 48 बार पार करनी पड़ी।
समरकंद में घुसने से पहले तैमूर ने अपने पिता की कब्र पर अपना सिर झुकाया। उधर समरकंद से 1000 मील दूर दिल्ली खंडहर में बदल गई।
भारतीय सुल्तानों की कई पीढ़ियाँ द्वारा जमा की गई अथाह दौलत कुछ दिनों में ही उनके हाथ से जाती रही। यहीं नहीं सल्तनत के अनाज के भंडार और खड़ी हुई फसलें भी बरबाद हो गईं। दिल्ली पूरी तरह से बरबाद हो गई। वहाँ बच गए लोग भुखमरी से मरने लगे और करीब दो महीनों तक पक्षियों तक ने दिल्ली का रुख नहीं किया।
दिल्ली को उस हालत से उबरने में पूरे 100 सालों का समय लग गया।