मनुस्मृति के चौथे अध्याय के 174 वें श्लोक में अधर्म और अन्याय से कमाए हुए धन का दुष्परिणाम बताते हुए महृषि मनु ने कहा कि –
अधमेर्णैधते तावत ततो भद्राणि पश्यति।
तत: सपत्नान जयति समूलस्तु विनश्यति।।
(1) अधमेर्णैधते तावत
अधर्म और अन्याय से कमाया हुआ धन बढ़ता हुआ दिखाई देता है।
अधर्म क्या है?
प्रत्येक सरकारी विभाग के प्रत्येक कर्मचारी को सरकार से पर्याप्त मात्रा में मासिक वेतन प्राप्त होता है। अपने अपने अधिकार के अनुसार सभी कर्मचारियों को समाज के प्रत्येक व्यक्ति का कार्य निशुल्क करना चाहिए। यही उन कर्मचारियों का धर्म है।
किन्तु यदि कोई भी राज्य कर्मचारी समाज के किसी भी व्यक्ति से कार्य करने का एक भी रुपया लेता है तो वह अधर्म है, अन्याय है और अत्याचार भी है।
घूस और बेईमानी के धन से, व्याज के धन से तथा एक रुपया की वस्तु को पांच रुपया में देने से कुछ समय तक धन की वृद्धि होते दिखाई देती है। लाखों रुपया इकट्ठा हो जाता है।
इसके पश्चात देखिए –
(2) ततो भद्राणि पश्यति
उस बढ़ते हुए धन से जो- जो इच्छाएं होतीं हैं, वे भी पूर्ण होते दिखाई देतीं हैं। गाड़ी, बंगला, मकान, नौकर चाकर, प्रभाव, सबकुछ कुछ दिनों के लिए चकाचौंध दिखाई देता है।
एक अस्पताल से दूसरा अस्पताल खुल जाता है। एक दुकान से दूसरी दुकान खुल जाती है। हर वर्ष मंहगी से मंहगी गाड़ियां दरवाजे में खड़ीं दिखाईं देतीं हैं।
धन के अहंकार में वह व्यक्ति बड़े लोगों को भी छोटा समझने लगता है। अन्याय पर अन्याय करता चला जाता है। अधर्म के धन से अधर्म की ओर, दुख के दलदल की ओर खिसकता चला जाता है। नाश की ओर बढ़ता चला जाता है और उसे पता भी नहीं चलता है।
अपनी सन्तानों के विवाह आदि भी बड़ी धूमधाम से अधिक से अधिक धन खर्च करके करता है।
ये सब थोड़े दिनों के लिए सबकुछ अच्छा ही अच्छा दिखाई देता है। अधर्म से कमाई गई सम्पत्ति, कुछ समय तक ही बढ़ती हुई दिखाई देती है। अधर्म से कमाए हुए धन का सुख भी थोड़े दिनों तक ही दिखाई देता है।
(3) सपत्नान जयति
अधर्म और अन्याय से कमाते हुए स्त्री पुरुषों के अनेक शत्रु पैदा हो जाते हैं। किन्तु बढ़ने के समय में वह व्यक्ति प्रभावशाली होता है। इसलिए वह शत्रुओं को बलपूर्वक दबाकर जीत लेता है। सभी शत्रु भी उससे पराजित हो जाते हैं। कोई कितना भी सरकारी अधिकारी से शिकायत करें, किन्तु कोई भी उसका बालबांका नहीं कर सकता है। क्योंकि अभी उसके वृद्धि के दिन चल रहे हैं।
(4) समूलस्तु विनश्यति
अब जब नाश होने का समय आता है तो प्रक्रिया ही बदल जाती है। अधर्म के जिस धन से पुत्र और पुत्री को व्यवस्थित किया था, वही पुत्र पुत्री अचानक ही इतने दुखी होने लगते हैं कि अधर्मी को कोई उपाय नहीं सूझता है।
अधर्मी के विनाश का क्रम प्रारम्भ –
अधर्मी , अन्यायी, घूसखोर, बेईमान व्यापारी आदि का वैभव तो सभी को दिखाई दे रहा था किन्तु उसकी मानसिक दुर्बलता तथा मानसिक दुख किसी को दिखाई नहीं देता है। अपने परिवार से दुखी होने लगता है। जो सेवक, चाटुकार कभी वफादार थे, अचानक ही बेईमान हो जाते हैं। जो शत्रु कभी पराजित हुए थे, उनके यहां इसके सेवक चाकर जाकर चुगलखोरी करने लगते हैं।
वफादारों के बेईमान होते ही अधर्मी स्त्री पुरुष निर्बल हो जाते हैं। अधर्म से कमाए हुए धन से ही अपनी इज्जत बचाना चाहता है। वह भी धीरे धीरे दूसरे बेईमान खा जाते हैं और उसी को कानून के जाल में ऐसा फंसा देते हैं कि उसकी सन्तान तक का धन नष्ट होने लगता है।
अन्त में न वह स्वाभिमान बचता है, न ही वह सामाजिक सम्मान बचता है, और न ही उसके परिवार के लोग बचते हैं। कोई आत्महत्या कर लेते हैं तो कोई किसी के हाथों मारे जाते हैं। कुछ का जीवन तो जेलों में कैदियों के साथ ही बीत जाता है। कोर्ट के धक्के खा खाकर मर जाते हैं।
अधर्मी और अन्यायी के देखते- देखते ही उसकी आंखों के सामने सबकुछ नष्ट हो जाता है। वह तिलतिल कर पश्चात्ताप की अग्नि में जलता हुआ असहाय अनाथ की तरह प्राण छोड़ता है। सारा संसार उसकी इस दुर्दशा को देखता है, और उसकी बेईमानी, घूसखोरी तथा नीचता की चौराहे में चर्चा करते हैं। ये होता है अधर्म और अन्याय से कमाए हुए धन से। इसी को समूल नाश कहते हैं।
इसलिए अपनी बुद्धि के परिश्रम से तथा शरीर के परिश्रम से जो जितना प्राप्त होता है, उसी में सन्तुष्ट रहकर स्वयं को तथा परिवार को सम्मान और सुख प्रदान करना चाहिए। मन की शान्ति तथा निर्भयता ही जीवन का सबसे बड़ा धन है।