गेहूं की खेती देशी बीजों से

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देश में हरित क्रांति आने के बाद हाईब्रीड बीजों व रासायनिक उर्वरकों का चलन बढ़ गया है। पंजाब हरियाणा का गेहूँ उत्पादन बहुत बढ़ गया है। सिंचाई के साधन भी बढ़ गये हैं और गेहूँ की खेती अनकमॉँड एरिया में भी होने लगी है। हर साल उत्पादन में उत्तरोतर वृद्धि जारी है, फलस्वरूप गेहूँ रखने के लिए सारी व्यवस्था चरमरा जाती है और गेहूँ की बरबादी भी खूब होती है। एक अनुमान के अनुसार गेहूँ का कंजप्सन उतना नहीं होता, जितना गेहूं खराब हो जाता है। चलो यह आज का विषय नहीं है ।

 

पंजाब हरियाणा के अलावा देश के अन्य राज्यों – राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश में भी उत्पादन बढ़ा है। शुरू -शुरू में मध्य प्रदेश में गेहूँ की खेती देसी बीजों से की जाती थी। चूँकि मृदा की उर्वरा शक्ति अच्छी थी इसलिए गेहूँ की क्वालिटी अच्छी होती थी और दाना भी मोटा होता था। यह बात है चालीस वर्ष पहले की।

पंजाब हरियाणा में यद्यपि चावल भी बहुतायत से पैदा होता है पर स्टेपल फूड के तौर पर गेहूँ ही स्थापित है, अर्थात कम से कम एक बार में पाँच सात रोटियों के बिना यहाँ के लोगों का पेट नहीं भरता। यहाँ के लोगों का मोह हरित क्रांति आने के बाद भी पुरानी देसी गेहूँ से नहीं छूटा था।

हरियाणा में चहुँमुखी विकास हुआ और शहरीकरण और फिर बाजारवाद भी आया। शहरों में गाँवों से लोग स्थानांतरित हुए और एक नवधनाढ्य वर्ग अस्तित्व में आया। इसी इलाईट वर्ग की पसंद और माँग पर एम पी की गेहूँ जैसी अवधारणा ने जन्म लिया। पहले पहले दिल्ली, नोएडा, चंडीगढ़, लुधियाना, अंबाला, फरीदाबाद, गुड़गांव, करनाल आदि शहरों में एम पी की गेहूँ की माँग उठने लगी। इस माँग को आपूर्ति भी मिली। अब तो छोटे शहरों तक यह फैशन या मजबूरी अपने पांव पसार रहा है।

एम पी की इस गेहूँ और लोकल हरियाणा की गेहूँ में सीजन (अप्रैल मई) के दौरान कोई दस रुपये का अंतर होता है और दीवाली आते आते यह बीस रुपये और होली तक तीस रुपये हो जाता है। फरवरी मार्च में अगर आप एम पी की गेहूँ खरीदोगे तो यह लोकल गेहूं से तीस रुपये मँहगी मिलेगी।

हरियाणा में चक्की का आटा खाने का रिवाज है। गाँव के अलावा शहरों के लोग भी सीजन में गेहूँ परिवार की जरूरत मुताबिक खरीद कर टंकी आदि में भर लेते हैं और फिर सारा साल चक्की पर पिसवा कर खाते रहते हैं। पहले पहले तो हमारे घर भी गेहूँ गाँव से आ जाती थी। परंतु अब ट्रांसपोर्ट के खर्चे से बचने के लिये शहर से ही खरीदते हैं।

अब आता हूँ मैं मेन टॉपिक पर। मैं दो साल पहले गेहूँ खरीदने के लिए मई के पहले हफ्ते में पिपली अनाज मंडी में गया, मैंने वहां एक दो बड़े आढ़तियों से बात की। उनको बताया कि भाई मुझे पाँच क्विंटल गेहूँ घर के लिए चाहिए। उन्होंने बताया कि गेहूँ तो है नहीं।

मैंने कहा : “यह इतनी हजारों बोरे गेहूँ के पड़े हैं और आप कहते हैं कि गेहूँ तो है नहीं।”

आढ़ती ने उत्तर दिया : “यह तो सरकारी है, बिक चुका है, गोदाम में जायेगा।”

“फिर यह पब्लिक कहाँ से खायेगी? ये मजदूर, कर्मचारी क्या खायेंगे?” मैंने कहा ।

आढ़ती ने नाराजगी दिखाते हुए कहा : “मोदी से पूछो।”
शायद कांग्रेसी था ।

मैंनें सहज होकर फिर पूछा : “भाई इसमें मोदी को क्यों घसीटते हो। यह इतनी गेहूँ पैदा हुई है, बिखरी पड़ी है सारे शहर में, मंडी में, गाँव में, शैलर में फिर आप कैसे कह सकते हो कि गेहूँ तो है नहीं ।”

आढ़ती : “भाई साहब, आप और पूछ लें किसी से भी लोकल गेहूँ मंडी से जा चुकी है।”

“फिर आपके गोदाम में तो होगी?”

मैंने फिर जोर देते हुए कहा ।

आढ़ती : “नहीं लोकल तो नहीं है, हाँ एम पी की मिल जायेगी। ”

मैं निराश होकर घर चला आया । मैं अगले दिन मोहल्ले की चक्की पर गया जिससे हम आटा पिसवाते हैं। मैंने चक्की के मालिक रामलाल से वही सवाल किया कि पाँच क्विंटल गेहूँ चाहिए। उसका भी वही उत्तर था कि लोकल तो बाजार में नहीं है और एम पी की मिल जायेगी। मैंने भाव पूछा तो सरकारी एमपीएस से दस रुपये ज्यादा बताया। मैं संतुष्ट नहीं हुआ, घर चला आया ।

अब गृहणी ने फिर तकाजा किया और मुझे एक दो खरी खरी भी सुननी पड़ी, मसलन – ‘मैं तो पहले से ही जानती थी कि यह काम आपसे नहीं होने वाला, आप जैसा आलसी तो शहर में भी नहीं मिलेगा’ आदि आदि। मैं अगले दिन जा पहुँचा मोहल्ले के ‘राजू प्रॉविजन स्टोर’ पर । मैंने अपनी समस्या बताई कि मुझे गेहूँ चाहिए घर के लिए उसने कहा: – “बाबू जी हम किस मर्ज की दवा हैं, कहो तो ट्रक भिजवा दूँ शाम को।”

मैंनें कहा – भाई रहने दो ट्रक व्रक तो, मजदूर नहीं मिलेंगे रात को। हाँ पाँच क्विंटल गेहूँ भिजवा दो तो नजरे इनायत होगी।”

उसने कहा : ” सर एम पी की मिलेगी ‘टनाटन’ ब्रॉंड खास सिहोर की। आपको अठाइस रुपये क्विंटल के हिसाब लगा दूँगा । ”

मरता क्या न करता, मैंने उसको पैसे दिये एडवांस और एक घंटे में गेहूँ के बोरे टैंपों में भरकर मेरे घर भिजवा दिये। मैं भी खुश था, और मेरी धर्मपत्नी भी। लेकिन मेरे यक्कू दिमाग में रह- रह कर असंतोष का एक दुर्लभ कीड़ा कुलबुला रहा था कि हमारे हरियाणा के खेतों की गेहूँ आखिर गई कहाँ ? और यह सिहोर, सिवनी और शिवपुरी की गेहूँ यहाँ क्यों बिक रही है।

मैंने कुछ लोगों से बातचीत की इस विषय पर। उनमें से एक दो ने बताया कि आढ़ती लोग फुद्दु बना रहे हैं हम लोगों का। हरियाणा के साथ लगते राजस्थान के जिलों से या गंगानगर लाइन से दिल्ली की नरेला, बवाना मंडियों के आढ़ती गेहूँ मंगवाते हैं और एम पी के नाम से ट्रक के ट्रक डायरेक्ट अन्य क्षेत्रों में भेज देते हैं। आजकल दिल्ली में तो न खेत बचे और न किसान और आढ़ती अपनी गद्दियों पर विराजमान हैं, फिर वे लोग और क्या करें, सो यही काम पकड़ लिया, वन टू का फोर करते रहते हैं।

अब तिलस्म टुटा राजू प्रॉविजन स्टोर वाले का भी। कोई दस दिन बाद मैं उसकी दुकान पर था। वहाँ पर फ्लैक्स के ‘टनाटन’ ब्रांड के खाली बैग उसकी दुकान पर पड़े हुए थे। मेरी नजर उन पर पड़ी और राजू की मुझ पर तो वह धीरे से उन बैग्स को हटाने लगा। मैंने पूछा : “राजू यह क्या गोलमाल है, टनाटन के नये खाली बैग यहाँ क्या कर रहे हैं। इनको तो सिहोर (एम पी) में होना चाहिए था ।”

“बाबू जी… आप भी … !!” वह मुस्कुराते हुए झेंप भी गया था ।
यह थी एम पी की गेहूँ की कहानी ।

शायद इस खेल के मर्म को आप लोगों ने समझ लिया होगा। सरकार की नाक के नीचे यह खेल चल रहा है। एक तो मंहगाई और ऊपर से यह महा ठगी। आम आदमी, शहरी मध्यम वर्ग के लिए रोटी भी मंहगी होती जा रही है। गरीब और बीपीएल को सरकार फ्री दे देगी। अधिक पैसे वाले आजकल व्हीट-फ्री डायट पर चलते हैं। शामत आ गई बीच वालों की।

सुदेश चंद्र शर्मा

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