श्री मद्भगवद्गीता मञ्जरी
धारावाहिक कड़ी 119
आज का विषय: *चतुर्वर्ण का विकास*
पाठ़ : *मार्क्सवाद*
आप सभी यह सोच रहे होंगे कि *श्री मद्भगवद्गीता* की हमारी विवेचना में *कार्ल मार्क्स की अवधारणा* को शामिल करने का क्या औचित्य है ?
अगर हम इस महान ग्रंथ की विवेचना किसी एकांगी विचारधारा के सन्दर्भ के कर रहे होते तो यह प्रश्न उचित है किन्तु हम इस ग्रन्थ का विवेचन वर्तमान समय के हमारे व्यवहारिक, सामाजिक, राजनैतिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आदि विविध आयामों के सन्दर्भ में करने का प्रयास कर रहें हैं। इतने विस्तृत आयामों के सन्दर्भ मे इस महान ग्रंथ की व्याख्या किये जाने के लिये मार्क्सवादी विचार धारा पर ही नहीं वरन् उन सभी घटनाओं पर भी विचार करना आवश्यक है जिन्होने मानव समाज के विकास की दिशा और दशा ही परिवर्तित कर दी।मार्क्स वादी विचारधारा सबसे नूतन विचारधारा है जिसने आधुनिक विश्व की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला है। अपनी विवेचना में हम इस विचार के मूल पश्चिम जगत की औद्योगिक क्रान्ति और इस औद्योगिक क्रान्ति के मूल सोहलवी -सत्रहवी शताब्दी की ब्रिटेन में कृषि क्रान्ति पर भी क्रमशः संक्षेप में चर्चा करेंगे। पाश्चात्य विचारकों का मानना है कि यह कृषि क्रान्ति मानव समाज में लगभग 10000 वर्ष ईसा पूर्व (आज से लगभग 12000 वर्ष पूर्व) हुए कृषि के विकास के पश्चात सबसे बडी कृषि क्रान्ति है।
चूंकि श्री मद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये सन्देश केवल सनातन धर्मावलम्बियों के लिये ही नहीं वरन् समस्त मानव मात्र के कल्याण के लिये है।
अतः श्री मद्भगवद्गीता की शिक्षाओं के सन्दर्भ से किसी भी अन्य विचारधारा, अथवा घटना, जिससे मानव मात्र प्रभावित होता है, की समयोचित विवेचना आवश्यक हो जाती है।
इससे उस विचारधारा विशेष की विशेषताओं और कमियों का उद्घाटन सम्भव होता है।
हमारे सुधी पाठकों को मानव सभ्यता के विकास को सरल और सुरुचि पूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिये हमने bottom-up approch अर्थात नवीनतम विचार / घटना को सर्वप्रथम और प्राचीनतम विचार / घटना पर इस चर्चा के अन्त मे विचार करेगें।
समस्त उपक्रम का उद्देश्य इतना ही है कि सामान्य जन और भावी पीढी *मानव के सामाजिक विकास के इतिहास को समझे और इससे प्राप्त ज्ञान को अपने सफल जीवन ,जिसमे मानवता के कल्याण का भाव भी अन्तर्निहित हो, की उपलब्धि के लिये अपने समक्ष उपलब्ध *भिन्न भिन्न घटनाओं / विचारधाराओं/ दर्शनों में निहित जीवन मूल्यों की शिक्षा* ग्रहण करे और *अपने और समस्त मानवता के कल्याण के लिये सर्वोत्तम मार्ग का चयन करे*।
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*भारतीय समाज को प्रभावित करने वाले तीन *म* वर्ण के व्यक्ति(त्व)
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हमें भारतीय धर्म, संस्कृति और शिक्षा पद्धति पर वर्णमाला *म* से प्रसिद्ध मैकाॅले और मैक्समूलर के विचारों के दुष्प्रभाव पर चर्चा कर चुके हैं।
अब इस *म* से शुरू होने वाले तीसरे प्रसिद्ध व्यक्ति *मार्क्स* के विचारों को भी जानना आवश्यक है। क्योंकि इसके विचारों ने भारत ही नहीं विश्व के सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाला है।
*कार्ल मार्क्स*
कार्ल मार्क्स के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां संक्षेप रूप में निम्नानुसार प्रस्तुत है :
1। *नाम* : कार्ल हेनरीक मार्क्स:
2। *जन्म / मृत्यु* :
1818/ 1883)
जन्म स्थान : *प्रशिया* जर्मनी
मृत्यु स्थान : *लंदन* ब्रिटेन
3। *व्यवसायिक / केरियर गतिविधियां* :
प्रसिद्ध दार्शनिक, इतिहासकार, समाज शास्त्री,अर्थशास्त्री, समाजवादी क्रान्तिकारी।
4। *मुख्य साहित्यिक कार्य* :
कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो, दास केपिटल,
भावी बुद्धिजीवियों, अर्थशास्त्रियों, और राजनैतिक इतिहासकारों को बहुत प्रभाव डालने वाला।
5। *धर्म :*
परिवार *मूल रूप से यहूदी* किन्तु पिता ने सपरिवार लूथेरियन चर्च (ईसाईयों की एक शाखा) मे बपतिस्मा कर ईसाई धर्म ग्रहण किया।
मार्क्स ने स्वयं को *नास्तिक* घोषित किया।
6। *शिक्षा*
*प्रारंभिक शिक्षा*
अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं।
बचपन में पिता द्वारा घर मे ही शिक्षा, फिर पिता के मित्र ह्यूगो वेटनबेच के स्कूल से आरम्भिक शिक्षा।
*उच्च शिक्षा*
*कानून पढने* के लिये *बोन विश्वविद्यालय में दाखिला*
वहां पर राजनैतिक अतिवादी विचारधारा से जुडाव,
विवादों से घिरे रहने वाली प्रकृति, इसका शैक्षणिक स्तर पर विपरीत प्रभाव
*बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला*
दर्शन और अर्थशास्त्र के प्रति रूचि,
जर्मन दार्शनिक हेगेल से प्रभावित और अतिवादी सोच वाले (यंग हेगेलियन समूह से जुड़ाव।
*P.hd*
The difference between Democitean and Eupicurian Philosophy of Nature पर लिखे विवादास्पद निबन्ध से डाक्टरेट की उपाधि।
7। *राजनैतिक विचारधारा / गतिविधियां*
*अतिवादी वामपंथी विचारों (radical leftist)*
इसके कारण :
*शैक्षिक क्षेत्र के साथ जुडने पर पाबन्दी*
*फ्रान्स जर्मनी और प्रशिया और बेल्जियम जैसे देशों से निष्कासित*( जहां पर अपने विचारों से इन देशों में क्रान्ति / अराजकता फैलाने का कार्य किया।)
*बेल्जियम में सशस्त्र क्रान्तिकारियों के लिये शस्त्र जुटाये*। अतः वहां से भी निष्कासित।
*सक्रिय जीवन* :
सन् 1844 में में ही जर्मन मूल के समाजवादी चिन्तक फ्रेडरिक एन्जेल से पेरिस में मुलाकात।
ऐन्जेल ने सन् 1844 मे एक पुस्तक *The Condition of working class in England* लिखी। उसने मार्क्स को विश्वास दिलाया कि working class उसकी सर्वहारा क्रान्ति के अग्रदूत (agent) हो सकते हैं।
एडम स्मिथ, रिकार्डो के राजनैतिक अर्थशास्त्र के साथ साथ फ्रेञ्च समाजवादी विचारक हेरी साइमन और चार्ल्स फोरियर के विचारों का आलोचनात्मक अध्ययन कर इसके आधार पर अपनी पुस्तक Das Kapital लिखी।
सन् 1848 में फ्रान्स से ब्रुसेल्स आकर उन्होने *ऐतिहासिक भौतिकवाद* (Historical Materialism) नामक नई अवधारणा विकसित की। इसके अनुसार ऐतिहासिक घटनाओं का मूल और इन्हे चलायमान करने वाला कारक समाज का *आर्थिक विकास* है। आर्थिक विकास उत्पादन के तरीकों (Mode of Production) पर निर्भर है।
*कार्ल मार्क्स और युरोपियन राजनीति*
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राजनैतिक अर्थशास्त्र में अपने कार्य के बाद उन्होने राजनीति के क्षेत्र में अपने हाथ आजमाए। सामान्य और प्रचलित राजनीति की अपेक्षा उन्होने अतिवादी और वामपंथ का अनुसरण किया।
अपना अपने साथी ऐन्जेल के साथ मिलकर उन्होने जर्मन आइडियोलाॅजी (German Ideology) नामक पुस्तक लिखी।
जो इन चरमपंथी विचारों के कारण यह पुस्तक सेन्सर से पास नहीं हो पायी अतः प्रकाशित न हो सकी।
इसके बाद उन्होने अपने *वैज्ञानिक समाजवाद* की अवधारणा पर आधारित *सर्वहारा आन्दोलन* को चलाने के लिए एक पूर्ण रणनीति (The theory and tactics) का वर्णन करते हुए एक पुस्तक लिखी जिसे सेन्सर के भय से उन्होने बुर्जुआ समाजवादी लेखक पियरे जोसेफ की पुस्तक The philosophy of Pverty के प्रत्युत्तर में The poverty of Philosophy के रूप में प्रस्तुत किया।
जर्मन आइडियोलाॅजी और दी पोवर्टी ऑव फिलासफी के आधार पर मार्क्स और ऐञ्जेल ने ,*कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो* का निर्माण किया जो कम्यूनिस्ट आन्दोलन का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
इस मेनिफेस्टों का *प्रेरक वाक्य* था
*दुनिया भर के कामगारों (मजदूरों) एक हो*
ब्रुसेल्स में ही अपने अतिवादी विचारों के कारण वे एक *अतिवादी और गुप्त संगठन लीग ऑफ जस्ट (League of Just) से जुड़े*।
सन् 1847 के शुरू में उन्होने अपनी गतिविधियों को वृहदतर स्तर पर चालू करने के लिये गुप्त रूप से कार्य करने की अपेक्षा खुले रूप में कार्य करने का निर्णय लिया और लीग ऑफ जस्ट का पुनर्गठन कर *कम्यूनिस्ट लीग* की स्थापना की। इसके माध्यम से उन्होने स्वयं को सर्वहारा का हितैषी बताते *क्रान्ति के माध्यम से हुए पूंजीवादी बुर्जुआ सरकार को उखाड़ने और साम्यवादी सरकार को स्थापित* करने का आव्हान किया।
सन् 1848 के अन्त में *1848 की यूरोपीय क्रान्ति (Revolution of 1848)* के नाम से सम्पूर्ण यूरोप में हिंसक धरने-प्रदर्शन हुए।
इसके परिणामस्वरूप 1848 में फ्रान्स की राजशाही सरकार का अन्त और फ्रान्स के द्वितिय गणतन्त्र के नाम से एक सरकार का गठन हुआ जिसे मार्क्स का समर्थन प्राप्त था।
ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में मार्क्स ने अपने पिता की वसीयत से प्राप्त धनराशि के एक हिस्से से *बेल्जियम के क्रान्तिकारियों को हथियार उपलब्ध कराये*।
हांलाकि इन आरोप की पुष्टि नहीं हुई किन्तु बेल्जियम के अधिकारियों ने उन्हे बेल्जियम छोड़कर जाने का आदेश दिया।
ब्रुसेल्स से वह पेरिस आ गये जहां की सरकार को उनका समर्थन प्राप्त था।
पेरिस आकर कम्युनिस्ट लीग के मुख्यालय का स्थान्तरित पेरिस में किया गया।
जर्मनी में क्रान्ति के विस्तार के लिये उसने जर्मनी के कामगारों का एक *German Worker’s club* का गठन किया।
जर्मनी में अपनी क्रान्ति का विस्तार करने के लिये वह कोलोन आ गये।
वहां उन्होने अपने कम्युनिस्ट *मेनिफेस्टो के दस बिन्दुओं में से केवल चार का ही प्रचार* किया।
वहां उसे आशा थी की वहां के *अभिजात्य वर्ग ही वहां की राजशाही को उखाड देंगे फिर सर्वहारा क्रान्ति के माध्यम से अभिजात्य वर्ग की इस बुर्जुआ सरकार को उखाड़ कर फेंक दिया जायेगा*।
अपने पिता की वसीयत से प्राप्त धनराशि से उसने एक अखबार शुरू किया जिसमें यूरोप की क्रान्ति की *घटनाओं को अपने विचारों के अनुरूप गढ़कर (अपना नेरेटिव बना कर* प्रस्तुत करना शुरू किया। इसमें उनके अन्य साथियों का भी बहुत योगदान था किन्तु यह *मार्क्स के नाम* पर ही छापे जाते थे।
उसके परम मित्र फ्रेडरिक एन्जेल ने इसे *मार्क्स का तानाशाही रूप/ अवतार* बताया था।
इस दौरान मार्क्स और उसके सम्पादक साथियों को पुलिस और स्थानीय प्रशासन की तरफ से गम्भीर आरोप लगाये जाते रहे किन्तु *चालाकी भरी अपनी कार्यशैली* उनके कार्य नियम कानूनों के उल्लंघन करते प्रतीत नहीं होते थे। इसकी वजह से वे हमेशा प्रशासन के चंगुल से छूटते रहे।
*सर्वहारा क्रान्ति का पराभव*
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इधर प्रशिया में वहां के राजा ने वहां की गणतांत्रिक सरकार भंग कर *वामपंथी क्रान्तिकारियों से निपटने के लिये प्रति क्रान्तिकारियों की सरकार बना ली और वामपंथी क्रान्तिकारियों का दमन कर दिया*।
अब मार्क्स को जर्मनी छोडने का आदेश दे दिया गया।
मार्क्स पुनः पेरिस आ गये किन्तु *हेजे की महामारी और प्रति क्रान्तिकारियों के दवाब से उन्हे फ्रान्स भी छोडने का आदेश* प्राप्त हुआ।
अब वह न तो जर्मनी जा सकते थे और नही फ्रान्स अथवा बेल्जियम, अतः उन्होने *ब्रिटेन में शरण* ली।
कम्युनिस्ट लीग का विभाजन
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अब कम्युनिस्ट लीग का मुख्यालय लंदन बन गया। वहां उसके साथियों *अगस्त विलिच और कार्ल शेप्पन* के नेतृत्व में इस क्रान्तिकारी आन्दोलन को और तेज करने की मांग की गई जिसे मार्क्स और एन्जेल ने ठुकरा दिया। परिणाम स्वरूप दोनो कम्युनिस्ट लीग से बाहर हो गये और कम्युनिस्ट विभक्त हो गई। इसी तरह कम्युनिस्ट लीग की *जर्मन एजुकेशन सोसाइटी भी दो भागों में विभक्त हो गई और मार्क्स को इस सोसाइटी से त्यागपत्र देना पड़ा*।
धीरे धीरे *कार्ल मार्क्स प्रेरित सर्वहारा आन्दोलन पूरे युरोप से समाप्त* हो गया। *कम्युनिस्ट लीग कमजोर* हो गई।
*आर्थिक संसाधनों की कमी*
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अपने अखबार के लिये फ्रेडरिक एन्जेल और मार्क्स के आर्थिक संसाधन खत्म हो गये।
मार्क्स को वसीयत में मिली आर्थिक सम्पति पूर्णतया खत्म हो गई और
एञजेल के उद्योगपति पिता से सहायता मिलना बन्द हो गया।
*पत्रकारिता की शुरूआत*
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आजीविका के लिये दोनो ने अपने एक शुभचिन्तक चार्ल्स डाना के सौजन्य से अमेरिका के अखबार के लिये आलेख लिखना आरम्भ किये। सन् 1861 तक यह कार्य चला बाद में चार्ल्स डाना के प्रभाव से दूसरे अखबार में लिखना आरम्भ किया। परिस्थितियां इस प्रकार बदली कि अब उनका यह कार्य भी लगभग बन्द हो गया।
*पुन: राजनैतिक अर्थ शास्त्र की ओर* (back to basic)
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मार्क्स पुनः अपने प्रिय विषय राजनैतिक अर्थशास्त्र पर लोटे लन्दन म्यूजियम में बैठकर अर्थशास्त्र का अध्ययन करने लगे और एक नयी रचना अपनी A Contribution of critique to the critique of Ploitical Economy और Theory of surplus value की रचना की।
जीवन के आखिरी दिनों में उन्होने अपनी पुस्तक Das Kapital का रसियन अनुवाद कराया जो बहुत लोकप्रिय हुआ और बिक गया। इस प्रकार जर्मन भाषा की यह पुस्तक भी बहुत लोकप्रिय हुई और बिक गई।
*मानव शास्त्र की ओर झुकाव*
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जीवन के अन्तिम पडाव में मार्क्स anthropology ( मानव शास्त्र) की ओर झुके।
उनके अनुसार भविष्य मे पूंजीवाद अपने उच्चतम स्तर पर पहुंचकर स्वयं ही नष्ट हो जायेगा। इसके स्थान पर सामूहिक उत्पादन और समायोजन (appropriation ) का युग आयेगा।
उनका मानना था कि पुरातन काल का कम्यूनिटिज (समाज) प्राचीन ग्रीक रोमन और सिमिटिक सभ्यताओं से बहुत महान और जीवन्त थी।
उन्हे विश्वास था कि *भविष्य का कम्युनिज्म* प्रागैतिहासिक काल का कम्यूनिज्म होगा।
उन्होने अन्तिम समय में अपने मित्र फ्रेडरिक एन्जेल से इन विषयों पर लिखने का आग्रह किया।
*महा प्रयाण*
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दिनांक 14/03/1983 को उन्होने अन्तिम सांस ली।
(स्रोत : विकिपीडिया : कार्ल मार्क्स)
*मार्क्स के विचार*
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मार्क्स वादी विचारधारा के मुख्य तत्व हैं
1। वर्ग – संघर्ष
2। पूंजीपतियों का विनाश
3। वर्ग -विहीन समाज
4। समाजवादी अर्थव्यवस्था
इन विचारों का आधार :
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1। जर्मन दार्शनिक *हेगेल* की *द्वन्द्वात्मक पद्धति,
2। फ्रान्स की *यूटोपियन समाजवादी विचार* और
3। *ब्रिटेन के *राजनैतिक अर्थशास्त्र*
इन तकनीकि शब्दों को सरल भाषा में इस प्रकार समझा जा सकता है :
*द्वन्द्वात्मक पद्धति*
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सामान्य शब्दों में इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि
किसी भी विषय में हमेशा दो तरह के विचार होते हैं जो सामान्यतया विरोधी प्रकृति के होते हैं।
इन दोनो विचारों के संघर्ष और समन्वय से एक सर्वमान्य विचार का उदय होता है।
कालान्तर में इस विचार के विरोधी विचार का उदय होता है और पुनः दोनों में संघर्ष के उपरान्त एक सर्वमान्य विचार का उदय होता है।
हेगेल कहते हैं कि मानव समाज का विकास इसी द्वन्द्वात्मक पद्धति से होता है। अर्थात विचारों के संघर्ष से नये विचारों का जन्म होता है। नये विचारों की इस श्रंखला से ही मानव समाज का विकास होता है।
चार्ल्स ने इस द्वन्द्वात्मक पद्धति को आर्थिक क्षेत्र में विकास से जोडा और इसे सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के वर्ग-संघर्ष में परिवर्तित कर दिया।
यूटोपियन समाजवादी विचारधारा
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हेनरी डी सेन्ट साइमन और चार्ल्स फोरियर इत्यादि फ्रान्स के समाजवादी विचारकों की मान्यता थी कि मनुष्य को समाजवाद की ओर प्रवृत्त करने के लिये *व्यक्तिगत रूप से प्रेरित* करना चाहिये जिससे समाज धीरे धीरे समाजवादी व्यवस्था में परिवर्तित हो जायेगा।
मार्क्स का विचार था कि व्यक्तिगत रूप मे नहीं मनुष्य को *सामूहिक रूप से बदलने* का प्रयत्न करने पर ही समाज में परिवर्तन सम्भव है और यह परिवर्तन केवल *क्रान्ति* से ही सम्भव है।
ब्रिटेन का राजनैतिक अर्थशास्त्र
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अट्ठारहवी शताब्दी में तत्कालीन भू राजनैतिक व्यवस्था में ब्रिटेन का ही बर्चस्व था। यह कहा जाता था कि उसके राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता।
यह कहावत तत्कालीन विश्व राजनीति में ब्रिटेन के राजनैतिक बर्चस्व द्योतक है।
अपनी राजनीतिक शक्ति के आधार पर ब्रिटेन ने विश्व के लगभग सभी मुख्य मुख्य प्रकृतिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। इसके विरुद्ध ब्रिटिश शासन के अधीन विभिन्न देशों मे असंतोष की ज्वाला भडक रही थी परिणाम स्वरूप अंग्रेजों और स्थानीय लोगों में संघर्ष की स्थितियां उत्पन्न हो रही थी।
प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभुत्व सम्बन्धित इस संघर्ष को मार्क्स ने अर्थ व्यवस्था से जोड़कर मार्क्स ने समाज में शान्ति के लिये इन संसाधनों के समान वितरण की अवधारणा विकसित की।
*ऐतिहासिक भौतिकवाद*
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सामाजिक परिवर्तन के लिये *ऐतिहासिक भौतिकवाद*
*Historical Materialism* की अवधारणा जिसके सामाजिक विकास उत्पादन के संसाधनों (means of Production) की विविधता का परिणाम है। अर्थात विकास के प्रत्येक पडाव पर उत्पादन के संसाधनों का वितरण अलग अलग होता है।
सामान्यतया उत्पादन के संसाधनों पर बुर्जुआ/ पूंजीपतियों का नियन्त्रण होता है और श्रमिक अपना श्रम बेचता है।
सर्वहारा क्रान्ति और वर्ग विहीन समाज का निर्माण
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यह आर्थिक विकास में *बुर्जुआ* (पूंजीपति वर्ग) और श्रम बेचने वाले *सर्वहारा* (श्रमिक) वर्ग के मध्य *वर्ग-संघर्ष* की अवधारणा है।
*इसमें अपनी संगठन शक्ति के बल पर सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग को परास्त कर सत्ता (शक्ति) पर अपना कब्जा (अधिकार) कर लेता है।इसके पश्चात आर्थिक शक्ति के छिन जाने से बुर्जुआ वर्ग भी सर्वहारा श्रेणी मे परिवर्तित हो जाता है*
इस प्रकार एक *वर्ग विहीन समाज* का निर्माण होता है और उत्पादन के संसाधनो पर सर्वहारा वर्ग का नियन्त्रण हो जाता है।
*समाजवादी अर्थ व्यवस्था*
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इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में
प्राकृतिक संसाधनों और आर्थिक संसाधनो पर समाज (सरकार) का नियन्त्रण होता है।
इसमें बुर्जुआ वर्ग / पूंजीपतियों की भूमिका बहुत सीमित होती है और उत्पादन और वितरण पर समाज (सरकार) का नियन्त्रण होता है।
अगली कडी में मार्क्सवादी विचारधारा के आधुनिक विश्व की सामाजिक, राजनैतिक,आर्थिक और धार्मिक परिवेश (विशेषकर भारतीय परिदृश्य) पर प्रभाव पर चर्चा करेंगे।
*इस विषय में सुधी पाठकों के विचार / फीडबैक आमंत्रित हैं ताकि इस content को और अधिक समृद्ध बनाया जा सके।*
सरजू शरण गुप्ता
श्री राधागोपाल भारतीय दर्शन और अध्यात्म विज्ञान संस्थान, जयपुर