*✒️सुरेंद्र चतुर्वेदी*
*दंगों से हैरान शहर करौली में आया हुआ हूँ।कर्फ़्यू है। सियासती और मज़हबी लोग राख में दबी चिंगारियों का पोस्टमार्टम कर रहे हैं। आगज़नी और पथरावों में छिपे भगवा और हरे रंगों को तलाशा जा रहा है।ज़िम्मेदार कौन❓️जैसे ज़हरीले सवाल का उत्तर खोद कर निकाल लेना दोनों ही पक्षों को बख़ूबी आता है। देखना कुछ न कुछ तो निकाल ही लिया जाएगा।
*यह हर उस जगह होता है जहाँ दंगों की पटकथा लिखी जाती है। किरदारों की कॉलर पुलिस पकड़ती है ।नेताओं की ज़ुबान पत्रकार।
*जिन लोगों के घर जलते हैं।दुकानें जलती हैं।सम्पति का नुक़सान होता है ,वे वहाँ अपने मुक़द्दर में पड़े भाटे तलाशते हुए इंसानियत को कोसते नज़र आते हैं।
*करौली में भी यही सब हो रहा है।जुलूस निकालने वाले भी इंसान थे। छतों से पथराव करने वाले भी। जिनके घर या दुकानें जलीं वे भी इंसान थे,जिन्होंने आग लगाई वे हाथ भी इंसानों के ही थे। इन हाथों के बीच वे हाथ भी थे जो घरों की आग बुझाने में जल गए। वे हाथ अदृश्य ही हैं और रहेंगे भी।
*मेरठ में दंगा हुआ।देश के मशहूर शायर बशीर बद्र साहब ने अपना मकान , हिन्दू शागिर्दों के कहने पर हिन्दू मोहल्ले में ही बना लिया था। दंगा हुआ तो कुछ हरामियों ने उनका मकान भी आग के हवाले कर दिया।
*जब आग से मकान धू धू करके जल रहा था ,बशीर बद्र साहब दूर किसी हिन्दू घर के चबूतरे पर बैठे आग की लपटों को देख रहे थे।उनको इंसानी रिश्तों पर अँधा यक़ीन था।कोई और होता तो उस यक़ीन को जला कर खाक़ कर बैठा होता ।मगर वह एक महान शाइर हैं।बदले की आग से उनका दिल नहीं सुलगता।
*आग में जब उनका घर राख में तब्दील हो गया और मीडिया ने उनसे पूछा कि क्या आपको वो चेहरे याद हैं जिनके हाथों ने आपके घर को आग लगाई❓️
*सवाल उतना पेचीदा नहीं था जितना बशीर साहब का जवाब था।उन्होंने कहा ” मुझे वो चेहरे ,वो हाथ तो याद नहीं, जिन्होंने मेरा घर जलाया! मगर मुझे वो हर चेहरा! हर हाथ याद है जो अपनी पूरी क़ुव्वत से आग बुझाने की कोशिश कर रहे थे! वो हाथ ज़ुबानी याद हैं जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना मेरे घर की लाइब्रेरी को बचा लिया। मेरी एक एक क़िताब! एक एक डायरी! एक एक काग़ज़ जलने से बचा लिया!”
*”जलाने वाले हाथ किस जाति के थे पता नहीं मगर बुझाने वाला हर हाथ हिन्दू था!”
*करौली में हूँ। चारों तरफ धुंए की धाँस अभी भी नाक में अंदर तक पहुंच रही है।हिंदू हो या मुसलमान सिर्फ़ यही पूछा जा रहा है। इंसान हूँ या हैवान ! यह कोई नहीं पूछ रहा!
*ऐसे माहौल में याद आ रही है वह चिड़िया जो अपनी नन्ही सी चौंच में पानी लेकर जलाई गई आग को बुझाने में लगी हुई थी।उसे आग बुझाने की बेवकूफ़ी करते देख , एक पढ़े लिखे पक्षी ने पूछ लिया” ओ री चिड़िया ! तू पागल हो गई है क्या? जिस आग को फ़ायर ब्रिगेड की दमकलें नहीं बुझा पा रहीं! उसे तेरी चौंच जितना पानी कैसे बुझा पायेगा?”
*चिड़िया ने जवाब दिया।” मेरी चौंच आग से बहुत छोटी है! मानती हूँ आग नहीं बुझा पाएगी!मगर जब आग लगने का ज़िक्र होगा तो मेरा नाम जलाने वालों या देखने वालों में नहीं !बुझाने वालों में होगा।
*मित्रों! मुझे कांग्रेस ! भाजपा! या कोई और पार्टी का खेल खेलना नहीं आता ! मैं देश का एक अदना से शाइर हूँ! मामूली सा पत्रकार भी! आग में तबाही का मंज़र मैं मज़हबी या सियासती चश्मे या रंगों से नहीं देख पाता! ऐसे वक्त में जब अजमेर के कई ब्लॉगर बाक़ायदा पार्टियों के अधिकृत प्रवक्ताओं वाले अंदाज़ में ब्लॉग लिखते हैं तो मुझे ताज़्ज़ुब होता है कि ऊपर वाले ने उन्हें पत्रकार क्यों बना दिया? राजनेता क्यों नहीं बनाया?
*मैं अजमेर की सरज़मीन पर पैदा हुआ हूँ।जिस शहर की मिट्टी में इंसानियत की ख़ुश्बू आती है।ख्वाजा साहब की दरग़ाह! जिस मरकज़ से पैदा होकर इंसानियत की ख़ुश्बू पूरी दुनिया में फैली! ब्रह्मा जी की पवित्र वसुंधरा !ऋषियों मुनियों की तपस्यास्थली ! जहां से वासुदेव कुटुंबकम का शंखनाद गूंजा! उसी पवित्र मिट्टी ने मुझे और मेरे संस्कारों को पाला पोसा! बुज़ुर्गीयत तक पहुंचाया!
*मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ कि इंसानियत से बड़ा मज़हब यदि कोई बताता है तो वह नाटक करता है!असत्य बोलता है!
*मित्र निदा फ़ाज़ली के शेर का हवाला दूँ तो कहूँगा-
_*घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
_*किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।*
*दोस्तो!अजमेर में इंसानियत और गंगा जमुनी तहज़ीब की यह परंपरा आज भी क़ायम है कि जब हिंदुओं के लिबास और संस्कार पहने लोगों का जुलूस ख्वाजा साहब की दरगाह के सामने से गुज़रता है तो उस पर गुलाब के फूल बरसाए जाते हैं! जब ईद पर जश्न मनाने के लिए नमाज़ी ईदगाह की मस्जिद पर इक्कठे होते हैं तो बड़ी संख्या में हिंदू भाई उनको गले लगाने के लिए कड़ी धूप में पहले से मौज़ूद रहते हैं।
*यही इंसानी रिश्ता है जिसे मैं अपना मज़हब मानता हूँ।धार्मिक विचारधारा मेरी व्यक्तिगत मान्यता हो सकती है मगर मेरे सामाजिक व्यवहार में मेरा यही मज़हब है।यही मेरे वज़ूद को रेखांकित करता है।
*मैं अक़्सर उन लोगों को कहता हूँ जो ख़ुद को मुसलमान कहते हैं। “तुम मुसलमान हो ! क्यों कि अल्लाह को मानते हो! तुम मोमिन नहीं हो ! होते तो अल्लाह के साथ साथ अल्लाह की भी मानते!”
*करौली में …मैं किसी ख़ास मक़सद से नहीं आया। सिर्फ़ अपनी सामाजिक सहभागिता निभाने आया हूँ। चिड़िया की चौंच जितना पानी लेकर आग बुझाने की कोशिश करने!
*दुकानों और घरों की आग तो बुझ गई है । बदले की वह आग जो अभी भी लोगों के ज़ेहन में सुलग रही है उसे बुझाने के लिए मेरी कोशिश भर है।
*अंत मे एक ग़ज़ल जो मैंने जली हुई एक दुकान के बाहर बैठ कर कही है। उस पर गौर फ़रमा लें-
_*जब कभी खुलें मौला उलझनों के दरवाज़े,
_*उससे पहले खुल जाएं रहमतों के दरवाज़े।
_*उलफ़्तों से खुलने दो सब घरों के दरवाज़े,
_*बन्द कर भी दो यारों नफ़रतों के दरवाज़े।
_*तय कभी तो ये भी कर लो गुलसिताँ के सुल्तानों,
_*बन्द मत कभी करना मुफ़लिसों के दरवाज़े।
_*बन्द कर लिए मैंने जिस्म की इमारत में,
_*जाने कितनी रूहों की मयक़दों के दरवाज़े।
_*मज़हबी नश्शे में तुम ये भी भूल बैठे हो,
_*फूल तोड़ देते हैं पत्थरों के दरवाज़े।
_*बारिशों की उम्मीदें छत पे फिर नहीं लौटीं,
_*आग ने जला डाले बस्तियों के दरवाज़े।
_*जोड़ने की ज़िद में ही मुझको कहना पड़ता है,
_*मौलवी के घर से जुड़ें पंडितों के दरवाज़े।
सुरेंद्र चतुर्वेदी
सुरेन्द्र चतुर्वेदी की साहित्य की कई विधाओं में पचास के करीब पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं | फिल्मी दुनिया से भी सुरेन्द्र चतुर्वेदी का गहरा जुड़ाव रहा है ,जिसके चलते उन्होंने लाहौर, तेरा क्या होगा जानी, कुछ लोग, अनवर, कहीं नहीं, नूरजहां और अन्य तमाम फिल्मों में गीत लिखे, पटकथा लिखीं. पंजाबी, हिंदी, उर्दू आदि कई भाषाओं पर अधिकार रखने वाले सुरेन्द्र चतुर्वेदी अपने ऊपर सूफी प्रभावों के कारण धीरे-धीरे सूफी सुरेन्द्र चतुर्वेदी के रूप में पहचाने जाने लगे. यों तो उन्होंने अनेक विधाएं आजमाईं पर ग़ज़ल में उनकी शख्सियत परवान चढ़ी. आज वे किसी भी मुशायरे की कामयाबी की वजह माने जाते हैं.उनकी शायरी को नीरज, गुलज़ार, मुनव्वर राणा जैसे शायरों ने मुक्तकंठ से सराहा है. गुल़जार साहब ने तो जैसे उन्हें अपने हृदय में पनाह दी है. वे राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान एवं अन्य कई सम्मानों से नवाजे गए हैं | कानपुर विश्वविद्यालय से मानद डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित चतुर्वेदी इन दिनों अजमेर में रह रहे हैं |
चौथी कक्षा में जिंदगी की पहली कविता लिखी | कॉलेज़ तक आते-आते लेख और कविताएं तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित होने लगीं. जैसे धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, दिनमान, सारिका, इंडिया टुडे आदि |
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