श्री मद्भगवद्गीता मञ्जरी 🌹
हमने पृथ्वी पर मनुष्य की उत्पत्ति से लेकर *मानव समाज की उत्पत्ति और विकास* पर *सामाजिक दृष्टिकोण* के आधार पर विचार किया।
महाभारत के *शान्तिपर्व* के *अध्याय 186 में भृगु-भरद्वाज संवाद* के रूप में इन्ही तथ्यों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
वर्णों की कोई विशेषता नहीं। सारा जगत ब्रह्मा का है।पहले सब ब्राह्मण थे।
*सतयुग* में सब लोग सत्यवक्ता, धर्म का आचरण करने वाले, निरोग दीर्घायु , ज्ञानवान और पृथ्वी की स्वाभाविक सिद्धियों पर निर्वाह करते वाले थे। उनका ज्ञान बहुत उच्च था क्योंकि इसकी प्राप्ति के लिये उनके पास समय बहुत अधिक था।
कालान्तर में *पृथ्वी की सिद्धि (उर्वरा शक्ति)* न्यून हुई। भोजन के लिये परिश्रम अपेक्षित हुआ।
भोजन की कमी के इस समय में कुछ लोगों ने *धर्माचरण को त्याग* दिया।
(भोजन के लिये वे छीना-झपटी करने लगे। भोजन/ पानी की कमी के समय मनुष्य का ऐसा व्यवहार आज भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो जाता है जब पढे लिखे लोग भी छीना-झपटी करने और लड़ाई करने पर उतारू हो जाते हैं)।
इसके लिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने अपने कालजयी ग्रन्थ *श्री रामचरितमानस* में लिखा भी है कि
*धीरज, धरम मित्र अरूण नारी।*
*आपद काल परखिअहिं चारी।।*
(अरण्य काण्ड)
अर्थात हमारे मित्र, स्त्री, और अपने वास्तविक चरित्र [ ( थैर्य तथा कर्तव्य परायणता, सत्यनिष्ठा, सद्भाव और सहयोग की भावना (धर्म)] का पता आपदकाल अर्थात संकट के समय ही पता चलता है।
इस प्रकार *इस वर्ण (ब्राह्मण) के दो भेद* हुए।
1। *आर्य* अर्थात सुसंस्कृत, सदाचरण करने वाले लोग और
2। *दस्यु* अर्थात लड़ाई-झगड़ा / दुराचरण करने वाले लोग।
(इस प्रकार *आर्य* शब्द का सम्बन्ध मनुष्य के सुसंस्कृत होने सदाचारी होने से है। यह शब्द *गुण* आधारित है *जाति* आधारित नहीं, जैसा कि पाश्चात्य लोगों ने प्रचारित कर रखा है और जिसे *पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति में रंगे* हमारे अपने लोग भी अपने *गौरवशाली इतिहास की अज्ञानता* के कारण मानने लगे हैं। जिसमें बहुत से सुप्रसिद्ध व्यक्ति भी शामिल हैं।)
इसी कालखण्ड में इन लोगों (दस्युओं) की सम्पत्ति (वेद और संस्कृत भाषा में ब्रह्मा द्वारा दिया गया ज्ञान-विज्ञान) नष्ट हो गया, आचरण और चेष्टाएं स्वच्छन्द हो गईं। आर्यों में ऐसे लोग *म्लेच्छ* कहलाने लगे।
*धर्म* के न्यून होते जाने पर *कर्मों के भेद से वर्ण-विभाग* हो गया।आर्य (सुसंस्कृत लोगों) आगे फिर चार *वर्णों* में बंटे।
किन्तु ये चार वर्ण एक साथ ही नहीं उत्पन्न हुए। बल्कि समाज में जैसी जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई / जैसी जैसी समस्याएं उत्पन्न हुईं उन्ही परिस्थितिजन्य समस्याओं के समाधान के रूप में *वर्ण* का उदय हुआ।
तीन वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख हम अपने पूर्व के लेख में कर चुके हैं अतः विस्तार भय से इसकी पुनरावृत्ति नहीं की जा रही हैं)।
*वर्ण का आधार*
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मनुष्य का *कर्म* वर्ण का आधार हुआ करता था और *कर्म का आधार गुण* होते थे।
इस प्रकार वर्ण का आधार *गुण और कर्म* होते हैं।
श्रीकृष्ण इस श्र्लोक (4/13) में इन्ही गुण और कर्म के आधार पर *चतुर्वर्ण सृष्टि* का उपदेश कर रहे हैं।
*गुण* – कर्मों का आधार
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जैसा कि श्री कृष्ण ने वर्ण का आधार *कर्म* और कर्म का आधार *गुणो* को बताया है तो *गुणों* के बारे में जानना आवश्यक हो जाता है।
*गुण*
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सामान्य रूप से किसी भी मनुष्य की *स्वाभाविक विशेषता* को उसका *गुण* कहा जाता है। इसे मनुष्य की *प्रकृति* भी कहते हैं।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार *प्रकृति* को *त्रिगुणात्मक* कहा जाता है।
प्रकृति के इन गुणों का नामकरण *आधिदैविक* (प्राकृतिक शक्तियों) और *आधिभौतिक* रूप (जिसमें मनुष्य का भौतिक शरीर भी शामिल है) से समान ही हैं। किन्तु दोनो रूपों में इसके गुण पर्याप्त भिन्नता लिये हुए हैं।
ये तीन गुण निम्न प्रकार बताये गये हैं :
1। *सत्व* ।2। *रजस्* और । 3। *तमस*
संक्षेप में मनुष्य की प्रकृति के सन्दर्भ में ये गुण और इनकी विशेषता निम्नानुसार है :
1। *सत्व* गुण :
यह *ज्ञान* और *प्रकाश* का प्रतीक है। इसका उद्देश्य *शान्ति* है अतः प्रतीकात्मक रूप से इसे *सफेद* रंग से दर्शाया जाता है।
2। *रजोगुण* :
यह *चंचलता प्रधान* यह गुण मनुष्य को *क्रियाशील* बनाये रखता है और इसे भोग-विलास की और प्रवृत्त करता है।
यह *राजसी* गुण है मनुष्य में जोश *शौर्य और साहस का संचार* करता है।मनुष्य अपने शौर्य और साहस के बल पर अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करता है।
*शौर्य और साहस के प्रतीक के रूप में इसे *लाल रंग* से दर्शाया जाता है।
3। *तमोगुण*
यह *आलस्य* और *अज्ञान* का प्रतीक है। अज्ञान के वशीभूत होने पर मनुष्य को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता। अपने स्वार्थ को सर्वोपरी मानते हुए वह दूसरे लोगों को कष्ट पहुंचाने मे तनिक भी नहीं हिचकता है।
*अज्ञान* प्रधान होने के कारण इसे प्रतीकात्मक रूप मे *काले रंग* से दर्शाया जाता है।
मानव स्वभाव और तीनो गुण
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ये तीनों गुण एकांगी नहीं होते वरन् सभी गुण साथ साथ रहते हैं। अन्तर केवल इतना ही होता है कि मनुष्य की प्रकृति में एक गुण प्रधानता लिये होता है।
*मनुष्य का स्वभाव इन तीनो गुणों का सम्मिश्रण होता है*।
सतोगुणी मनुष्य में *सत्व गुण की प्रधानता* रहती है और अन्य दोनो गुण सुसुप्तावस्था में रहते हैं। इसी प्रकार *रजोगुणी व्यक्ति में रजोगुण* और *तमोगुणी व्यक्ति में तमोगुण की प्रधान* और अन्य दोनो गुण सुसुप्तावस्था में रहते हैं।
इन्ही गुणों के अनन्त permutation / combination से प्रत्येक मनुष्य की स्वाभाविक भिन्नता निश्चित होती है।
मानव प्रकृति और कर्म का चयन
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व्यक्ति के आचरण में इन्ही *गुणों की प्रधानता से उसकी प्रकृति / व्यक्तित्व का निर्धारण होता है।* अपने व्यक्तित्व की इस विशेषता *(गुणों) के आधार* पर ही मनुष्य स्वाभाविक रूप से अपने *कर्म का चुनाव* करता है।
*वर्ण व्यवस्था का सामाजिक महत्व*
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अ। श्रम-विभाजन का अनुपम आधार
*गुण -कर्म आधारित प्राचीन भारतीय सामाजिक वर्ण व्यवस्था पूर्णतः मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक जो कि तत्कालीन समाज के *श्रम-विभाजन* का अनुपम उदाहरण है।
ब। कर्तव्य कर्म की प्रेरणा
इसमें मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुसार अपने कर्मों को *कर्तव्य* (धर्म) के रूप में करने की प्रेरणा मिलती रही है।
इन्ही *कर्तव्य कर्मों* के *मनोयोग से निर्वहन* से ही प्राचीन भारत संसार के लिये *ज्ञान का केन्द्र* था और आर्थिक रूप से समृद्ध हो *सोने की चिडिया* कहलाता था।
स। वर्ण-व्यलस्था : कठोर अथवा सरल।
प्राचीन काल तक यह वर्ण व्यवस्था dynamic और flexible थी।अतिरिक्त योग्यता अर्जित कर व्यक्ति एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जा सकता था। इससे समाज में सभी व्यक्तियों की योग्यता का समुचित सम्मान होता था।
शूद्र वर्ण का व्यक्ति अपनी योग्यता के बल पर ब्राह्मण वर्ण में सम्मिलित हो समाज में सम्मान पाता था।
जाबाला पुत्र सत्यकाम जाबालि, जिसे अपना गौत्र (पिता का नाम) भी मालूम नहीं था, केवल अपनी सत्यनिष्ठा के बल पर ऋषि गौतम का शिष्य बना और कालान्तर में एक बड़ा औपनिषदिक ऋषि हुआ।
इसी प्रकार छान्दोग्य उपनिषद का *रैक्व* एक गाड़ीवान था जिससे ज्ञान प्राप्त करने के लिये उस समय का एक विद्वान राजा जनश्रुति उनके पास भेंट लेकर पहुंचा। इसी प्रकार ब्राह्मण और वेदानिषठ़ ऋषि गार्ग्य ने क्षत्रिय राजा अजातशत्रु को अपना गुरू बनाया।
प्राचीन भारत के इतिहास के इतिहास का अध्ययन करने पर हम पायेंगे कि मौर्य वंश के संस्थापक प्रसिद्ध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य एक मौर पालने वाले के कुल में, नन्द वंश का संसथ्पक महापद्मनंद ने एक नाई (barber) के कुल में, शुंग वंश का संस्थापक पुष्य मित्र शुंग ने ब्राह्मण कुल में और गुप्त वंश के संस्थापक चन्द्र गुप्त प्रथम ने वैश्य कुल में जन्म लिया था।
इसी प्रकार बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी क्षत्रिय कुल में जन्मे थे।
ऐसे अनेकों उदाहरण प्राचीन भारतीय वाङ्मय में मिल जायेंगे।
द। शास्त्रीय रूप से वर्ण व्यवस्था का पराभव
अपने शास्त्रीय रूप में यह व्यवस्था उस समय तक ही प्रचलित रही जब तक कि *भारत का क्षत्रिय वर्ण* शक्तिशाली रहा।
उस समय तक देश में वैदिक संस्कृति मे पले-बढ़े स्थानीय लोग ही इस भूभाग पर शासन करते रहे जिससे इस व्यवस्था को गति और स्थायित्व दोनो प्राप्त होती रही।
इसके पश्चात विदेशी आक्रान्ताओ के भारत भूमि को पददलित किये जाने से इसका पराभव आरम्भ होने लगा।
पहले आक्रान्ता मुस्लिम आक्रान्ता थे।
मुस्लिम आक्रान्ताओ का काल खण्ड़
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भारत में मुस्लिम आक्रमण का आरम्भ सन् 712 ईस्वी में मुहम्मद बिन कासिम के सिन्ध के ब्राह्मण राजा
दाहिर पर आक्रमण से होता है। बारहवीं सदी में मुहम्मद गौरी ने उत्तर भारत पर आक्रमण किया। इसके बाद से एक के बाद एक कई मुस्लिम आक्रमण हुए और अन्त में मुगलों ने अपनी सत्ता कायम की जो लगभग अट्ठारहवी सदी तक चली।
यूरोपीय आक्रान्ताओ का कालखण्ड
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सन् 1608 में अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बन कर आये। सन् 1670 में ब्रिटिश शासन ने उन्हे यहां अपने उपनिवेश बनाये जाने की अनुमति प्रदान की।
यहां की कमजोर राजनैतिक परिस्थितियो का लाभ उठाकर कम्पनी ने सन् 1757 में बंगाल के नवाब को हरा कर बंगाल में अपनी सत्ता कायम की। धीरे धीरे उन्होने मद्रास, हैदराबाद के नवाब को पराजित किया और अन्त में सन् 1846 में सिखों को पराजित कर उन्होने भारतीय उपमहाद्वीप पर अपनी सत्ता स्थापित की। सन् 1857 में सत्ता कम्पनी के हाथों से ब्रिटेन कई महारानी को स्थानांतरित हुई।
इस प्रकार अंग्रेजों ने लगभग 200 वर्ष भारत पर राज्य किया।
मुस्लिम आक्रान्ताओ द्वारा भारत के ज्ञान और ज्ञान के केन्द्रों को नष्ट किया जाना
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प्रत्येक आक्रान्ता सबसे पहले अपने आक्रमण के शिकार राज्य / लोगों की संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करता है। इसके लिये वह अपने शिकार के ज्ञान और आस्था के केन्द्रों को नष्ट करता है जिससे आक्रमण के शिकार का मनोबल नष्ट हो।
सर्वप्रथम मुस्लिम आक्रान्ताओ ने सर्वप्रथम हमारे आस्था के केन्द्र मन्दिरों और ज्ञान के केन्द्र शिक्षा के मन्दिरों अर्थात विश्वविद्यालयों को नष्ट किया।
तक्षशिला, नालंदा, वल्लभी, तेल्हडा, पुष्पगिरि, विक्रम शिला, शारदापीठ आदि मुस्लिम आक्रान्ताओ द्वारा नष्ट किये गये विश्वविद्यालय थे जिनकी स्थापना पहली शताब्दी ईस्वी अथवा इससे पूर्व से लेकर पांचवी शताब्दी के लगभग बताई जाती है।
मुस्लिम आक्रान्ताओ के द्वारा ग्यारहवीं -बारहवीं सदी तक ज्ञान के केन्द्र इन सभी विश्वविद्यालयों को नष्ट कर दिया।
बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय जिसमें लाखों प्राचीन ग्रंथ और पाण्डुलिपि थी जला दिये गये। कहा जाता है कि इस पुस्तकालय के ग्रन्थ तीन महिनों तक जलते रहे। ऐसा ही हाल लगभग सभी अन्य विश्वविद्यालयों का हुआ।
*ज्ञान के इन भण्डारों के नष्ट हो जाने से प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा को अपूरणीय क्षति हुई*।
मुस्लिम आक्रान्ताओ के इस कालखण्ड में जब ज्ञान के भण्डार नष्ट कर दिये गये हों और विद्वानों को चुन चुन कर शिकार बनाया जा रहा तो ऐसी विषम परिस्थितियों में *अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखना ही सर्वप्रथम प्राथमिकता* हो गई थी।
ऐसी परिस्थियों में ज्ञान-वर्धन नहीं, नष्ट होने से बचे रहे ज्ञान को सुरक्षित करना ही बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य था।
यह तो तत्कालीन ब्राह्मण वर्ण ही था जिसने तत्कालीन शिक्षा पद्धति *श्रुति परम्परा* के कारण बहुत से ग्रन्थों विशेषकर वेद,उपनिषद इत्यादि को कण्ठस्थ कर इन्हे अपने मन- मस्तिष्क में सुरक्षित रखा। इन्ही महान लोगों के कारण नष्ट होने से बचा यह ज्ञान हमें उपलब्ध है।
मुस्लिम आक्रान्ता क्रूर थे अतः उन्होने ज्ञान और आस्था के केन्द्रों को नष्ट-भ्रष्ट किया। किन्तु अंग्रेज शातिर और चालाक थे। उन्होने चालबाजी से भारतीय धर्म और संस्कृति को मिटाने का प्रयास किया।
*अंग्रेजों द्वारा भारतीय ज्ञान परम्परा को भ्रष्ट किया जाना।*
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अंग्रेज आक्रान्ताओ मुस्लिम आक्रान्ताओ जितने क्रूर नहीं थे वरन् हद् दर्जे के चालाक व्यक्ति थे। उन्होने भारतीय संस्कृति को समूल ही नष्ट करने का षडयन्त्र रचा। क्योंकि देश के शासन पर नियन्त्रण के बावजूद भी वे और उनकी मिशनरियां भारतीयों (हिन्दुओं) के धर्मान्तरण में असफल हो रही थीं।
अंग्रेज साम्राज्य और उनकी मिशनरियों को यहां ईसाईयत के प्रसार का बहुत बडा अवसर नजर आ रहा था। किन्तु तत्कालीन गुरूकुल पद्धति की शिक्षा उनके राह में रोड़ा बनी हुई थी जिसके कारण अपने भरपूर प्रयासों के बावजूद ईसाई मिशनरियां अपने लक्ष्य से बहुत दूर थी। अंग्रेज अधिकारियों ने इस समस्या का गहन विश्लेषण किया और पाया कि जब तक *वैदिक शिक्षा पद्धति और इसका संचालन करने वाले *ब्राह्मण* रहेंगे,यहां मिशनरियां अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पायेंगी।
वैदिक शिक्षा का आधार वेद, विशेषकर ऋग्वेद और अन्त कई प्राचीन ग्रन्थ विशेषकर पुराण, उपनिषद, और मनुस्मृति थी। अंग्रेजों ने उपलब्ध ज्ञान के भण्डार को *नष्ट नहीं किया* वरन् इन्हे *भ्रष्ट* कर दिया। इसी प्रकार उन्होने स्वदेशी भारतीय शिक्षा पद्धति को नष्ट कर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को स्थापित करने का निर्णय लिया।
भारत में शिक्षा पद्धति को बदलने के लिये अंग्रेजों के पास *मैकाॅले* जैसा तेज तर्रार और *भारतीय शिक्षा पद्धति का घोर विरोधी व्यक्ति* था। भारतीय धर्म ग्रंथों और शास्त्रों की अपने मनोनुकूल विकृत व्याख्या करने के लिये उन्हे किसी संस्कृत जानने वाले व्यक्ति की आवश्यकता थी जिसे जर्मन मूल के कट्टर ईसाई और प्राचीन भाषाओं के विद्यार्थी *मैक्समूलर* ने पूरी कर दी।
*मैकाॅले और मैक्समूलर*
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*मैकाले और मैक्समूलर की इस जोडी* ने प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा को नष्ट-भ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
*मैक्समूलर* : भारतीय धर्म ग्रन्थों विशेषकर ऋग्वेद का विकृतिपूर्ण व्याख्याकार :
जैसा कि बताया जा चुका है कि मैक्समूलर जर्मन मूल के कट्टर ईसाई और प्राचीन भाषाओ के विद्यार्थी था। वह वैदिक ग्रंथों और प्राचीन भारतीय शास्त्रों का अंग्रेजी में अनुवाद अपनी निजी जिज्ञासा, प्रेरणा अथवा शोध के लिये नहीं कर रहा था अपितु *इसके लिये बाकायदा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 15 अप्रैल 1847 को उसे इस दायित्व के साथ अनुबंधित किया था कि वे भारतीय धर्म ग्रंथों और शास्त्रों का विकृत अनुवाद अपने नियोक्ता ब्रिटिश सरकार के मनोनुकूल करे*।
उसकी यह मंशा अपनी पत्नि जार्जिया को लिखे एक पत्र से झलकती है ।
दिनांक 15/12/1866 को मैक्समूलर ने जॉर्जिया को पत्र में लिखा –
*मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखो भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा। वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड फेंकने का सर्वोत्तम तरीका है*
इसी प्रकार ऊसने 16/12/1868 को भारत के लिये सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्सड्यूक ऑफ़ आर्गायल को पत्र लिखा। इसमें वह लिखता हैं –
*भारत एक बार जीता जा चुका है लेकिन भारत को दुबारा जीता जाना चाहिये और यह दूसरी जीत ईसाई धर्म शिक्षा के माध्यम से होनी चाहिये।*
29/01/1882 की बैराम मालबारी को लिखे पत्र में मैक्समूलर लिखते हैं : तुम वेद को एक प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ के रूप में स्वीकारो, जिसमें कि एक प्राचीन और सीधे-सादे चरित्र वाली जाति के लोगों के विचारों का वर्णन है तब तुम इसकी प्रशंसा कर सकोगे और इसमे से कुछ को स्वीकार करने के योग्य हो सकोगे विशेषकर आज के युग में भी उपनिषदों की शिक्षाओं को, *लेकिन तुम इसमे ढूंढो भाप के इंजन और बिजली, यूरोपीय दर्शन और नैतिकता, और तुम इसके सच्चे स्वरूप को इससे अलग कर दो। तुम इसके वास्तविक मूल्यों को नष्ट कर दो और तुम इसकी ऐतिहासिक निरंतरता को नष्ट-भ्रष्ट कर दो जो कि वर्तमान को इसके अतीत से जोडती चली आ रही है।*
भारत की ईसाईयत शायद हमारी उन्नीसवीं सदी जैसी ईसाईयत भले ही न हो लेकिन भारत का प्राचीन धर्म यहाँ डूब चुका है, फिर भी यदि यहाँ इसाईयत नहीं फैलती है तो इसमें दोष किसका होगा?”
13/01/1875 को डीन स्टेनली को लिखे पत्र में मैक्समूलर धन्यवाद ज्ञापित करते हैं कि – “इंग्लैण्ड की महारानी यह जाने कि जिस काम के लिये मैं, 1846 में इंग्लैण्ड आया था वह काम मैंने पूरा कर दिया है।
भारतीय विद्वानों द्वारा विकृत अनुवाद
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दूसरी और स्थानीय भारतीय विद्वानों को लोभ और भय दिखाया। कमजोर आत्मविश्वास वाले और लोभी प्रकृति के स्थानीय विद्वानों ने भी इन ग्रन्थों को भ्रष्ट करने में अपना सहयोग दिया।
*मैकाॅले*
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इसका नाम थॉमस बैबिंगटन है और , इसे लॉर्ड मैकाले (Lord Macaulay) के नाम से भी जाना जाता है।
लॉर्ड मैकाले एक सुयोग्य शिक्षाशास्त्री, राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक थे।
इन्होंने 10 जून, 1834 को गवर्नर जनरल की काउंसिल के कानूनी सदस्य के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया था। उस समय के गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने उनकी योग्यताओं से प्रभावित होकर उन्हें लोक शिक्षा समिति का सभापति नियुक्त कर दिया।
*भारत में शिक्षा नीति के सम्बन्ध मे मैकाॅले का स्मरण पत्र*
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इस स्मरण-पत्र (Minute) में पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि,
1। सरकार के सीमित संसाधनों का प्रयोग पश्चिमी विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेजी में अध्यापन हेतु किया जाए।
2। सरकार स्कूल तथा कॉलेज स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी करे तथा इसके विकास के लिये कई प्राथमिक विद्यालयों के स्थान पर कुछ स्कूल तथा कॉलेज खोले जाएं।
3। मैकाले ने इसके तहत ‘अधोगामी निस्पंदन का सिद्धांत’ (Downward Filtration Theory) दिया। जिसके तहत, भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को शिक्षित करना था। जिससे, एक ऐसा वर्ग तैयार हो, जो रंग और खून से भारतीय हो, लेकिन विचारों और नैतिकता में ब्रिटिश हो। यह वर्ग सरकार तथा आम जनता के मध्य एक कड़ी की तरह कार्य करे।
4।मैकाले ने माना कि, अरबी और संस्कृत की तुलना में अंग्रेजी अधिक उपयोगी और व्यवहारिक है। जिस प्रकार लैटिन एवं यूनानी भाषाओं से इंग्लैंड में और पश्चिम यूरोप की भाषाओं के रूप में पुनरुत्थान हुआ, उसी प्रकार अंग्रेजी से भारत में होना चाहिए।
*मैकाले का विवरण पत्र से भारत को होने वाला नुकसान*
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मैकाले ने अपने विवरण पत्र से अंग्रेजी द्वारा पाश्चात्य सभ्यता को इस देश पर थोपने का प्रयास किया, जिससे हम अपनी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को तिरस्कृत दृष्टि से देखें और हमें हीन भावना व्याप्त हो।
मैकाले ने भारतीय भाषाओं को अविकसित और बेकार बताते हुए अपमान किया, फलस्वरूप भारतीय भाषाओं का विकास रुक गया।
मैकाले ने प्राच्य साहित्य की आलोचना करते हुए कहा था कि, भारतीय संस्कृति और साहित्य की क्षमता यूरोप की किसी एक पुस्तकालय की एक अलमारी के बराबर है।
*यह मानकर मैकाले ने भारतीय संस्कृति तथा धर्म की महानता व सहिष्णुता का अपमान किया है।
मैकाॅले के इस स्मरण पत्र को आधार बनाकर इसे सन् 1835 में भारत में शिक्षा-नीति के रूप में लागू कर दिया।
वैसे तो मैकाले खुले तौर पर धार्मिक तटस्थता की नीति का दावा करते थे, लेकिन उसकी आंतरिक नीति का खुलासा वर्ष 1836 में अपने पिता को लिखे एक पत्र से होता है। जिसमें मैकाले ने लिखा है कि:
*मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा की यह नीति सफल हो जाती है तो 30 वर्ष के अंदर बंगाल के उच्च घराने में एक भी मूर्तिपूजक नहीं बचेगा।*
मैकाॅले और भारतीय ज्ञान परम्परा
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मैकाॅले भारतीय ज्ञान और शिक्षा पद्धति के घोर विरोधी थे।
उनकी शिक्षा नीति से अंग्रेजी पाश्चात्य शिक्षा को सरकारी संरक्षण प्राप्त हुआ।
इससे भआरतीय समाज में धीरे धीरे अंग्रेजी शिक्षा और इसके प्रारूप ने समाज में अपनी जड़ें जमा ली और आज यह विशाल अमेर बेल के रूप में रूपान्तरित हो गयी है जो स्वयं तो फल-फूल रही है किन्तु इसने समस्त प्राचीन भारतीय ज्ञान को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों को नष्ट-भ्रष्ट करने का उद्देश्य
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प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों को भ्रष्ट किये जाने और अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को लागू किये जाने के दो प्रमुख उद्देश्य थे।
1। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में शिक्षित लोगों के मन में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति इतनी घृणा उत्पन्न कर दी जाये कि वे अपनी ही धर्म और संस्कृति से विमुख हो अपनी ही जडों से कट़ जाये ताकि इस प्राचीन भारतीय धर्म और संस्कृति का समूल नाश कर दिया जाये।
2। भूरी चमड़ी के अंग्रेजों की एक नई प्रजाति उत्पन्न करना जो शरीर से तो भारतीय हो किन्तु मन-बुद्धि से पूरी अंग्रेज मानसिकता के हों जिससे भारत में ब्रिटिश शासन को चिर स्थाई बनाया जा सके।
अंग्रेजों ने इस दिशा में बहुत परिश्रम किया और वे एक सीमा तक अपने उद्देश्यों मे सफल भी रहे।
उन्होने अंग्रेजी शिक्षा में शिक्षित विशेषकर ब्रिटेन अमेरिका इत्यादि देशों में शिक्षित ऐसी पीढी तैयार कर दी जिसने अपने धर्म में व्याप्त बुराइयों के विरूद्ध संघर्ष करने के स्थान पर इससे घृणा करने को ही अपना लक्ष्य बना लिया।
किन्तु इसी कालखण्ड में स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द, अरविन्दो घोष, बाल गंगाधर तिलक, पण्डित मदन मोहन मालवीय जैसे अनेक महापुरूष भी हुए जिन्होने अंग्रेजों के इन प्रयासों को निस्तेज करने का सफल प्रयास किया।