गाय को चारा खिलाने का पुण्य प्राप्ति का चलन

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अंधश्रद्धा
गाय एक उपयोगी पालतु पशु है | इसकी उपयोगिता को देखते हुए शायद पूर्वजों ने इसको धार्मिक आस्था के साथ जोड़ दिया ताकि लोग इसका पालन करें और इससे प्राप्त लाभों को रोजमर्रा के जीवन में उपयोग में ला पायें | कालान्तर में यह क्यूँ पूजनीय है यह तो भुला दिया गया और इसके पालन करने की बजाये थोडा चारा खिला पुण्य प्राप्ति का चलन निकल पड़ा | खुद गाय पालने की बजाये आवारा गायों अथवा पड़ोस में पाली जा रही गाय को चारा खिला कर पुण्य कर्म पूरा कर लिया जाता है | इस अंधश्रधा को देखते हुए लोगों ने क्या क्या व्यापारिक/व्यवहारिक उपयोग ढूंढ लिए इसकी बानगी मुंबई प्रवास के दौरान देखने को मिली |
मैं हर रोज लोकल ट्रेन के मरीन लाइन रेलवे स्टेशन से अपनी शाखा तक पैदल जाता था | रास्ते में भीड़ भरे जावेरी बाज़ार से हर रोज़ गुजरना होता था | एक नज़ारा हर रोज़ देखने को मिलता था कि एक आदमी गाय लिए फुटपाथ पैर बैठा रहता और लोग आ-आ कर थोडा चारा और अनाज/ आटा आदि खरीदते और गाय को खिलाते | गाय के पास में ही एक औरत और आदमी गाय के लिए चारा और अनाज/ आटा आदि रखते जिनसे खरीद कर लोग गाय को खिला देते | यानि सेवा के लिए गाय भी और गाय को खिलाने के लिए चारा, आटा आदि भी सुलभ हो जाता | इस प्रकार गाय बिना पाले ही गाय सेवा का पुण्य लाभ उठाने का सुखद एहसास गोभक्त लोग अपने मन में ले कर जाते | इस प्रकार गाय पालन की बजाये बिना कुछ किये ही पुण्य अर्जन का अवसर उपलब्ध हो जाता |
लेकिन शाम को वापसी पर वो गाय वाला और चारा तथा अनाज बेचने वाले वहां नहीं मिलते थे | यह मुंबई की व्यवसायिक/भागम-भाग जिन्दगी से कुछ अलग तरह का लगा | जिज्ञासा जागी और सोचा क्यों ना इन लोगों से बात की जाये |
पता चला कि कुछ लोग जिन के पास गाय तो नहीं थी लेकिन ये समर्पित गोभक्त गो सेवा कर पुण्य अर्जन करना चाहते थे | गोभक्त, जिनके पास धन तो है लेकिन गोधन नहीं है सेवा के लिए | क्योंकि मुंबई जैसे भीड़ भरी जगह आदमी को रहने को जगह नहीं गो-पालन कैसे संभव होता | तो कुछ गोपालकों ने इन लोगों के लिए पुण्य कमाने की व्यवस्था कर दी वो भी भीड़ भरे मुंबई के जावेरी बाज़ार में | ये गोपालक सुबह अपनी गाय को ले कर आते और जावेरी बाज़ार के फुटपाथ पर बैठ जाते | मजे की बात ये की गाय का चारा, दाना, आटा आदि भी ये गोपालक अपने साथ लाते और वहीँ फुटपाथ पर बेचने के लिए बैठ जाते | गोभक्त, जिनके पास धन तो है लेकिन गोधन नहीं है सेवा कर पुण्य कमाने के लिए वो यहाँ आते और बगल में बैठे लोगों से चारा, दाना, आटा आदि खरीद कर गाय को खिलाते और फिर अपने काम पर चले जाते | जब गोपालकों का चारा, दाना, आटा आदि पूरा बिक जाता है और उनकी गाय का भी पेट भर जाता तो ये लोग अपने-अपने घरों को लौट जाते | अगले दिन फिर आते हैं, अपनी दिनचर्या का ये हिस्सा पूरा कर पुन: घर लौट जाते हैं | ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है|
देखिये धर्म और व्यवसाय का संगम एक पंथ और काज अनेक यथा गोभाक्तों का गाय को चारा खिला कर पुण्य कमाना, गोपालकों का गाय चराने ले जाना (खेत नहीं बाज़ार में), गोपालक (किसान) का गाय का चारा अपनी ही गाय को खिलाने के लिए गोभाक्तों को बेचना |
मुंबई का एक रूप यह भी |
*खजान सिंह नैन

सुदेश चंद्र शर्मा

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