आज का विषय : चतुर्वर्ण की उत्पत्ति
श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के श्र्लोक सं 13
*चातुवर्ण्यं मया सृष्टं*
*गुण कर्मविभागशः*
*तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्* || ४/ १३ ||
अर्थात मनुष्य के गुण ( प्रकृति / स्वभाव ) के अनुसार मैने ही चारों वर्णों -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- की रचना की है।
मैं ही इस वर्ण-विभाजन का कर्ता भी हूं और मुझ अव्यय को इसका अकर्ता भी जानो।
इस श्र्लोक में श्रीकृष्ण जब यह कहते हैं कि *गुण-कर्म* के अनुसार ही मैने वर्णों की रचना की है तो बहुत से लोग इस श्र्लोक का *एकांगी* रूप से शब्दार्थ (भावार्थ नहीं ) करते हुए *शूद्र* जाति (वर्ण नहीं) का रचनाकार बताते हुए उच्च और दलित जाति की वर्तमान क्षुद्र राजनीति के लिये इस श्र्लोक के आधार पर श्रीकृष्ण के रूप में *भगवान* को ही जिम्मेदार मानते हैं।
हमें अपने शास्त्रों के बारे में तनिक भी ज्ञान होता तो सम्भवतः हम इस श्र्लोक के अर्थ का अनर्थ नहीं करते। किन्तु अपने स्वाध्याय की कमी से उत्पन्न अपने धर्म और शास्त्रों के अर्थ को समझ ही नहीं पाते और इन श्र्लोकों की भावना के विपरीत अर्थ करने वालों को हम समुचित उत्तर देना तो दूर उनके बहकावे में आकर उनकी ही व्याख्या को सही समझ कर अपना लेते हैं और जाने -अनजाने में ऐसे निहित स्वार्थी और सनातन धर्म के विरोधियों के हाथ का खिलोना बन जाते हैं।
ऐसे सनातन विरोधी विचारों के खण्ड़न के लिये हमने *धर्मशास्त्रों के प्रमाणों पर आधारित वर्ण व्यवस्था के उद्भव* की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सभी सुधीजनों को अवगत अवगत कराने के लिये इस विषय पर हमने पर्याप्त चर्चा की है।
हमारे सुस्पष्ट विवेचन की पृष्ठभूमि हेतु हमने निम्न *विषयों* पर प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा पर आधारित अवधारणाओ पर यथामति चर्चा की है।
सरल सन्दर्भ के लिये इन्ही विषयों / विचारों का सार संक्षेप नीचे प्रस्तुत है।
अ। *विषय:*
1।जल प्रलय,
2। जल प्रलय के पश्चात पुनः *पृथ्वी* के प्रकट होना
3। *मनुष्य की उत्पत्ति*
4। *मनुष्य समाज के उद्भव*
5। *अकृष्टपचता और कामधुक पृथ्वी* जिसमें प्राकृतिक रूप से उत्पन्न अन्न से मनुष्यों के जीवन निर्वाह,
6। पृथ्वी की प्रकृतिक उर्वरा शक्ति के क्षीण हो जाने के कारण *कृषि कर्म* के आरम्भ,
7। इसके लिये *पृथ्वी को समतल* बनाया जाना
8 *कृषि* कर्म के परिणामस्वरूप *मनुष्य जीवन में आये स्थायित्व, विवाह और परिवार संस्था के उदय तथा समाज में *निजी सम्पत्ति* की अवधारणा का प्रचलन
9। *काल* के स्थूल रूप से विभाजन की प्राचीन भारतीय *युग की अवधारणा* पर आधारित *चतुर्युग* – कृतयुग, त्रेतायुग,द्वापर और कलियुग
10। *क्रमिक ह्रास के नियम* के अनुसार मनुष्य की आयु, शरीर, ज्ञान तकनीक और नैतिकता(धर्म) मे क्रमिक ह्रास
11। *चार्ल्स डार्विन के क्रमिक विकास के मत का खण्ड़न* इत्यादि विषयों पर यथामति चर्चा की।
ब । *विचार*
पण्डित भगवद्दत्त शर्मा के शोध ग्रन्थ * भारत का बृहद इतिहास के आधार पर हमने पौराणिक *वराह अवतार* और *कमलोद्भव ब्रह्मा* की अवधारणा तथा *वराह* शब्द का वास्तविक अर्थ और ब्रह्मा के रूप में आदि-मनुष्य के अर्थ मे का विवेचन किया है।
इसके पश्चात आदि- मनुष्य *ब्रह्मा* और उसके पुत्र *मनु- शतरूपा* के द्वारा मानव – सृष्टि पर प्राचीन भारतीय विचार तथा इस सम्बन्ध में भारतीय विचारों के समतुल्य प्राचीन यवन और old testament के आधार पर प्राचीन यहूदी ग्रन्थों में वर्णित नूह और आदम -हव्वा की अवधारणा के बारे में जानने का प्रयास किया।
मनुष्य जाति की उत्पत्ति का विवरण इसके पश्चात *दक्ष प्रजापति की विभिन्न कन्याओं और मरीची के पुत्र कश्यप से उत्पन्न दैत्य,दानव,देव,नाग, गन्धर्व इत्यादि मनुष्य जातियों की उत्पत्ति के बारे में चर्चा की* ।
इसी क्रम में हमने विभिन्न देवासुर संग्राम की चर्चा करते हुए बताया कि विष्णु कनिष्ठतम आदित्य (देव) होने पर भी गुणों में सर्वश्रेष्ठ थे अतः वे देवों के राजा बने।
*वर्ण व्यवस्था का उदय*
*सार संक्षेप*
उपरोक्त सभी विषयों का सार पुनः संक्षिप्त रूप मे प्रस्तुत है :
आदि काल में मनुष्य जीवन निर्वाह की चिन्ता से मुक्त था अतः मनुष्य अपनी समस्त ऊर्जा का प्रयोग प्रकृति के रहस्यों को समझने में किया करता था। उसी समय *कपिल मुनि* का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होने प्रकृति के रहस्यों को समझ *सांख्य शास्त्र* का प्रतिपादन किया जिससे कालान्तर में *जैन दर्शन* का उदय हुआ।
अन्य ऋषियों ने प्रकृति के रहस्यों को समझ कर उने ऋचाबद्ध किया। यही प्राचीन भारतीय ऋषियों का ज्ञान था जिसे *वेद* कहा गया।
उस समय मनुष्य मात्र में *सद्भाव और सहयोग* की भावना थी। सत्य, न्याय, दया,तप, और दान की भावना होने से सभी मनुष्यों को *ब्राह्मण* कहा गया।
जब जनसंख्या बढने लगी और भूमि कि उर्वरा शक्ति भी क्षीण हुई तो ब्रह्मा ने मनुष्य को *वार्ता शास्त्र अर्थात कृषि का ज्ञान* दिया।
राजा पृथु के (काल मे) ने जल प्लावन से उबड़ खाबड़ हुई पृथ्वी को समतल किया जिससे इस भूमि पर *कृषि- कर्म* शुरू हुआ।
कृषि कर्म से मनुष्य एक स्थान पर स्थिर हुआ। समाज में *विवाह और परिवार संस्था* का उदय हुआ। इससे *निजी सम्पत्ति* की अवधारणा का विकास हुआ।
निजी सम्पत्ति में *पत्नि और भूमि* मुख्य थी।
इसी *कृतयुग* के अन्त में जब निजी सम्पत्ति की अवधारणा का विकास हुआ तो *समाज में विकृतियां* उत्पन्न हुई।
सम्पत्ति पर अधिकार के लिये *युद्ध* होने लगे। निर्बल लोगों की सम्पत्तियों पर शक्तिशाली लोगों (दैत्यों और दानवों) ने अधिकार कर लिया। समाज में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई।
समाज की ऐसी अवस्था में ब्रह्मा ने *मनु* को *राजा* बनाया।
राजा और प्रजा के मध्य एक समझौता हुआ। इसके अनुसार
प्रजा ने अपनी उपज का एक निश्चित भाग राजा(मनु) को कर में देना स्वीकार किया और इसके प्रतिफल स्वरूप राजा ने अपनी प्रजा की सुरक्षा का दायित्व ग्रहण किया।
इस प्रकार समाज में *क्षत्रिय* वर्ण का उदय हुआ।
वायुपुराण के अनुसार वैवस्वत मन्वंतर के *मनु* का नाम श्राद्धदेव था। इस वैवस्वत मनु के नौ पुत्र और एक पुत्री *इला* थे।
मनु के पुत्रों के राजवंश *सूर्यवंश* और इला का वंश *ऐल वंश* के नाम से जाना जाता है।
मनु के नौ पुत्रों मे से एक *नाभानेदिष्ट* था। उसको मनु राज्य नहीं दे सका। उसके भाग में यज्ञ की पूरी दक्षिणा ही आई। उस धन से उसने *वेश्य- वृत्ति* अर्थात कृषि और वाणिज्य का कार्य आरम्भ किया।
उसका पुत्र भलन्दन, *भलन्दन* का पुत्र *वत्सप्रीति* और *वत्सप्रीति* का पुत्र *संकील* हुआ।
मत्स्य पुराण के अनुसार तीन वैश्य ऋषियों में *भलन्दन* एक था।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में इस प्रकार विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति का इतिहास उपलब्ध है।
ऋग्वेद में आरम्भ में तीन वर्णों का ही उल्लेख है।
1। ब्राह्मण अर्थात intellectuals
2। क्षत्रिय अर्थात Warriors
3। वैश्य अर्थात उत्पादक / व्यापारिक वर्ग : Productive class
*ज्ञान* सभी की थाती
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प्राचीन भारतीय समाज में ज्ञान पर किसी एक वर्ण विशेष का अधिकार नहीं था वरन् सभी वर्ण के लोगों में intellectuals थे।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा के मूल स्रोत *वेदों* के मन्त्र दृष्टा न केवल ब्राह्मण ऋषि वरन् क्षत्रिय और वैश्य ऋषि भी थे। पुराणों में तीन वैश्य ऋषियों का उल्लेख है। इनमें भलन्दन और वत्सप्रीति का नाम भी शामिल है।
इसी प्रकार औपनिषदिक काल में *ब्रह्म विद्या* पर केवल वेदज्ञ ब्राह्मणों का ही बर्चस्व नहीं था वरन् क्षत्रिय और यहां तक कि गाड़ीवान (वर्तमान परिभाषा के अनुसार पिछड़ी जाति के लोग ) भी ब्रह्म विद्या में प्रवीण थे।
कोषितकी उपनिषद के चतुर्थ अध्याय में गर्ग गोत्र में उत्पन्न श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण *गार्ग्य* काशी नरेश को ब्रह्मतत्व का उपदेश देने उनकी सभा में पहुंचे। किन्तु वे काशीनाथ *अजातशत्रु* द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर न दे पाये और ज्ञान प्राप्त करने के लिये उन्होने *क्षत्रिय* अजातशत्रु का शिष्यत्व ग्रहण किया।
छान्दोग्य उपनिषद में *राजा जनश्रुति ने गाड़ीवान रैक्व* से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया जब कि राजा जनश्रुति स्वयं एक ज्ञानी व्यक्ति था।
इसी प्रकार *ऋषि आरुणी का पुत्र श्र्वेतकेतु जो स्वयं एक ज्ञानी पुरूष था, ने पांचाल नरेश प्रवाहण का शिष्यत्व ग्रहण कर ज्ञान प्राप्त की*।
राजा जनक स्वयं *ब्रह्मज्ञानी* थे।
इस प्रकार वेदो / उपनिषद/ शास्त्रों के प्रमाण से यह स्पष्ट है कि ज्ञान पर केवल ब्राह्मणों (intellectuals) का ही अधिकार नहीं था वरन् समाज के सभी वर्गों के पास *ज्ञान* उपलब्ध था।
*ज्ञान के क्षेत्र में सभी वर्णों के लोग समान थे* और *जिज्ञासु ब्राह्मण भी ज्ञान प्राप्ति के लिये क्षत्रिय अथवा अन्य किसी वर्ण का शिष्यत्व स्वीकार करने में हिचकते नहीं थे*।
यही हमारे प्राचीन भारतीय समाज की सुन्दरता थी। यहां ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं था।
अगली कडी में हम पाश्चात्य जगत में समाज का विभाजन के सम्बन्ध मे प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो के विचार और शूद्र वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय अवधारणा और इसका बाबासाहब अम्बेडकर के ग्रन्थ *शूद्रों की उत्पत्ति* के सन्दर्भ में अपने विचार रखेंगे।
क्रमशः
🙏
सरजू शरण गुप्ता
श्री राधागोपाल भारतीय दर्शन और अध्यात्म विज्ञान संस्थान, जयपुर