चतुर्वर्ण की उत्पत्ति

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श्री मद्भगवद्गीता मञ्जरी 🌹
भारतीय ज्ञान परम्परा में काल (period) विभाजन तथा प्रत्येक कालखण्ड (युग) में धर्म के एक पाद (स्तम्भ) का ह्रास।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार काल विभाजन
भारतीय ज्ञान परम्परा में मनुष्य एवं मानव समाज के विकास को उसके कालक्रमानुसार चार खण्डों में विभाजित किया है जिन्हे  *युग*  की संज्ञा दी गई है। ये चार युग निम्नानुसार हैं :
1। *कृत (सत) युग* ।2। त्रेतायुग, ।3। द्वापर और ।4। कलियुग।
जैसा कि हमने पूर्व में बताया था कि मानव विकास की  पाश्चात्य विचारधारा ने क्रमिक विकास के सिद्धांत के प्रभाव से *प्रागैतिहासिक* नाम से एक काल्पनिक मत गढा जिसे प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा के अध्येताओं ने स्वीकार ही नहीं किया क्योंकि प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में पृथ्वी की उत्पत्ति (प्रलय काल से)  से भूमि पर मानव उत्पत्ति का इतिहास  अर्थात आदि काल का सम्पूर्ण इतिहास सुरक्षित है जिसे पाश्चात्य विद्वान स्वीकार नहीं करते। ऐसा इसलिए कि इसे स्वीकार करते ही इतिहास सम्बन्धी उनकी कल्पनाओं का महल ताश के पत्तों की भांति ढ़ह जाता है।
1। *सत (कृत) युग*
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प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा  के अनुसार प्राचीन काल को *आदि काल* कहते हैं। आदि मनुष्य *ब्रह्मा* (कमलोद्भव ब्रह्मा) जिसने अपने शरीर से सरस्वती को उत्पन्न किया था, इसका उल्लेख हम अपनी पूर्व कहीं में भी कर चुके हैं ) पुत्र *स्वायम्भू मनु* था। जिसे संसार का प्रथम राजा माना गया है। इसके दो पौत्र *प्रियव्रत* और *उत्तानपाद* थे। इस युग में इक्कीस प्रजापति हुए जिनमें *कर्दम प्रजापति* एक था। प्रियव्रत का विवाह कर्दम प्रजापति की पुत्री से हुआ जिससे उन्हे दस पुत्र प्राप्त हुए। इनमें से छोटे तीन पुत्रों में राज करने की प्रवृत्ति नहीं थी अतः वे योगी हो गये।
प्रियव्रत ने समस्त वसुन्धरा को सात द्वीपों में विभक्त कर अपने सातों पुत्रों में बांट दिया।
ब्रह्मा  सर्व ज्ञानी थे। इनसे ही ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ था। ब्रह्मा से यह ज्ञान मनु को साथ ही साथ ब्रह्मा के मानस पुत्रों भृगु, मरीच, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह और वशिष्ठ को प्राप्त हुआ।
इसी युग में ब्रह्मा, स्वायम्भू मनु और अन्य प्रजातियों ने सब वस्तुओं का नामकरण किया।
हमारे देश का नाम *भारत* क्यों पडा ?
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जैसा कि बताया जा चुका है कि समस्त वसुन्धरा को सात द्वीपों – जम्बू द्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलि द्वीप, कुश द्वीप, क्रौंच द्वीप, शाक द्वीप और पुष्कर द्वीप – में बांट कर प्रियव्रत ने अपने सात पुत्रों – आग्नीध्र, मेधातिथी वषुष्मान, ज्योतिष्मान,द्युतिमान, भव्य और सवन  को क्रमशः  एक एक द्वीप अधिपति बना दिया।
*जम्बूद्वीप* का  अधिपति *आग्निध्र* हुआ, उसका पुत्र नाभि, नाभि का पुत्र ऋषभ, और ऋषभ का पुत्र *भरत* हुआ। इसी भरत के नाम से हमारे देश का नाम *भारत* पडा।
भारतवर्ष जम्बूद्वीप का ही एक भाग है।
जैमिनि ब्राह्मण में जल प्लावन के पश्चात की एक कथा आती है। इस के अनुसार :
तीन कुमार थे। रायोराज, पृथुरश्मि, और बृहद्गिरि। उनमें से प्रत्येक की कामना पूरी गई।
पृथुरश्मि ने कहा वह *क्षेत्रकाम* है अतः उसको क्षेत्र (पृथ्वी) दी गई। पृथुरश्मि ही पृथु था। उसने ही चाक्षुष अन्तर ( एक कालखण्ड) में जल प्लावन और समुद्र क्षोभ से उबड़-  खाबड़ हुई पृथ्वी को समतल बनाया।
वायुपुराण में भी चाक्षुष अन्तर में पृथ्वी का समतल होना कहकर कर वैवस्वत अन्तर में ऐसा होना कहा है।
इस प्रकार ऐतिहासिक रूप से पृथु का काल प्राचेतस दक्ष के पुत्र *मनु* (प्राचेतस मनु)  और वैवस्वत मनु से पहले था।
*चाक्षुष मन्वंतर*
वायु पुराण के अनुसार इस कालखण्ड में पृथ्वी *अकृष्टपच्या*  और *कामधुक* थी अर्थात् हल चलाकर खेती नहीं की जाती थी अतः गेंहू आदि अन्न आदि न थे। घरों में गौ-पालन नहीं होता था। क्रय-विक्रय रूपी वणिक व्यवहार भी न चलता था।
भूमि की स्वाभाविक उपज पर लोग निर्वाह करते थे। जंगल में घूमती गौओं का दूध दुह लिया जाता था।
अर्थात् इस समय तक लोगों के जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक संसाधन प्राकृतिक रूप से ही उपलब्घ हो जाते थे।
इसके पश्चात एक तरफ तो भूमि की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति में कमी आई और दूसरी और सम्भवतः जनसंख्या में वृद्धि हुई इससे जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न की कमी महसूस होने लगी।
उस समय ही सम्भवतः कृषि की आवश्यकता महसूस हुई  और पृथ्वी को समतल बनाने का कार्य आरम्भ हुआ। राजा *पृथु* के समय में यह कार्य आरम्भ हुआ।
वायु पुराण के अनुसार जब ब्रह्मा ने देखा कि पृथ्वी कामधुक नहीं रही और इधर उधर बिखरे अन्न उगने बन्द हो गये तब उन्होने विचार किया कि उस पर सिद्धि अर्थात पृथ्वी से अन्न की उत्पत्ति *कर्म* से ही हो सकेगी तो उन्होने *वार्ता शास्त्र* ( कृषि-शास्त्र) दिया। और उस समय हल चलने से अन्न उत्पन्न होने लगा।
इस प्रकार अब मानव समाज में कृषि का विकास हुआ।
समाज में कृषि कर्म आरम्भ होने से ही तत्कालीन मनुष्य के जीवन में स्थायित्व आया। *परिवार और निजी सम्पत्ति की अवधारणा* समाज में विकसित हुई।
बहुत काल तक समाज में *सद्भाव और सहयोग* का वातावरण रहा और मनुष्यों में धर्म के चारो स्तम्भ –  *सत्य*, *तप* *दया* और *दान*- अक्षुण्ण रहे।
अर्थात *स्वार्थ पूर्ण भावना न होने*  से मनुष्यों में *सत्य* और *न्याय* के प्रति दृढ आस्था,  *तप* (कर्तव्य कर्म,कठोर परिश्रम) के प्रति निष्ठा, सभी के प्रति मन में *दया* और  विद्वान अर्थात ज्ञान प्राप्ति में संलग्न विद्वानों, और *अक्षम* लोगों की  अपने संसाधनों से सहायता ( *दान*) की भावना रही।
इस युग के अन्त में अर्थात पृथु के बहुत काल बाद *दक्ष प्रजापति* की कन्याओं का विवाह मरीची पुत्र ऋषि *कश्यप* से हुआ।
*कश्यप* को कूर्म भी कहा गया है।कूर्म ने भी पृथ्वी के एक अंश को जल के बाहर निकाला।
राजतरगिंणी और नीलमत पुराण के अनुसार काश्मीर की भूमि पहले जल निमग्ना थी कश्यप ने उसे जल से बाहर निकाल कर इसे रहने योग्य बनाकर *कश्मीर* को बसाया।
इसी बात को *विवेक रंजन अग्निहोत्री* ने अपनी चर्चित फिल्म *कश्मीर फाइल्स* में भी उजागर करते हुए काश्मीर को सभ्यताओं का cradle बताया है।
अर्थात इस रूपक से उन्होने ऋषि कश्यप की सन्तानों से दैत्यों, दानवों, नाग, गन्धर्व इत्यादि सभ्यताओं की ओर इंगित किया है।
 कश्यप को   दिति से *दैत्य* दनु से *दानव* अदिति से *आदित्य* (देव), कद्रु से *नाग* और विनिता से *गरूड़ और अरूण*  पुत्र प्राप्त हुए।
*सतयुग के अन्त में आसुर प्रभाव*
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दैत्यों में *हिरण्याक्ष* और *हिरणण्यकशिपु* हुए। दैत्य और दानव आदित्यों से बडे थे। उन्होने
सम्पूर्ण पृथ्वी पर आधिपत्य जमा लिया।
*त्रेतायुग*
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त्रेतायुग के आरम्भ मे अदिति से कश्यप को बारह पुत्र हुए जिन्हे *आदित्य*  अथवा देव कहा जाता है। ये आदित्य (देव) बारह थे जिसमें  कनिष्ठतम विष्णु था।  गुणों के दृष्टिकोण  से विष्णु  सबसे अधिक गुणी था। उसे ही राजा बनाया गया।
*हिरण्यकशिपु* पहले  *देवलोक* का राजा था और *दानवासुर* (नाम : विप्रचित्ति, अपभ्रंश नाम  बेक्कस) बेबिलोनिया (आधुनिक ईराक) का राजा था। वह पश्चिम से सिन्धु देश (पंजाब एवं सिन्ध) आया और इस पर विजय प्राप्त की।
वह बडे नगरों का निर्माता था।  *नैश* नगर उसी के द्वारा निर्मित है।
देवों ने असुरों ( दैत्यों और दानवों) से अपने लिये कुछ भूमि का राज्य मांगा जिसे दैत्यों ने अस्वीकार कर दिया।
इस पर दैत्यों और दानवों में घोर संग्राम हुआ जो *देवासुर संग्राम* के नाम से प्रसिद्ध हुआ। देवताओ और असुरों में आधिपत्य को लेकर अब युद्ध होने लगे।
समुद्र-मंथन चौथा देवासुर संग्राम था।
इस समय देवासुर संग्राम चलते ही रहते थे। अयोध्या के राजा दशरथ का भी देवासुर संग्राम में भाग लेने का उल्लेख ग्रन्थों में मिलता है।
इन्द्र उसका मित्र था। एक बार दण्डकारण्य के दक्षिण में स्थित वैजयन्तपुर का महाप्रतापी  दानव राजा  *तिमिध्वज शम्बर* हुआ।उसने युद्ध के लिये इन्द्र को आमन्त्रण भेजा।
इन्द्र उसकी वीरता से परिचित था। वह अपनी देव सेना से उसको विजित नहीं कर पाता  अतः उसने उत्तर के राजाओं की सहायता प्राप्त की और सम्राट दशरथ को इस युद्ध में उसकी ओर से लडने का निमन्त्रण भेजा। सम्भवतः इसी युद्ध के दौरान दशरथ की गृद्धराज जटायु से मित्रता हुई जिसका पञ्चवटी कै समीप एक छोटा सा राज्य था।
त्रेतायुग के अन्त मे ही राम-रावण युद्ध हुआ था।
रावण असुर था और राम सूर्यवंशी राजा थे।भारत में रहने वाली समस्त जातियां अदिति के पुत्र *आदित्यों* के वंशज है अतः देव है। हालांकि इस युद्ध में देवताओं ने प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया था फिर भी युद्ध के अन्त में इन्द्र ने अपना रथ भेजकर राम की सहायता की थी। हालांकि यह युद्ध मानवों और असुरों के मध्य था  फिर भी इसे भी *देवासुर संग्राम* के समतुल्य कहा जा सकता है। इसमें रावण के नेतृत्व में राक्षसों (असुरों की निर्णायक पराजय हुई थी।
*त्रेतायुग में धर्म*
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त्रेतायुग में धर्म के *तीन पाद*  अर्थात *तीन स्तम्भ* माने जाते हैं। ये हैं *तप, दया और दान* इस युग में सत्य और न्याय  का लोप होने लगा था। आसुरी प्रवृत्तियां समस्त जम्बूद्वीप (जिसमें भारत भी सम्मिलित है) मे फैल गई थीं।
सत्य के कमजोर होने से ही कैकयी ने अपने पुत्र के लिये राज्य मांगा, बालि ने सुग्रीव की पत्नि को अपनी पत्नि बना लिया और रावण ने साधु के भेष में आकर सीता का हरण किया।
*द्वापर युग*
राम – रावण  युद्ध त्रेतायुग के अन्त में हुआ था। यह काल त्रेतायुग और द्वापर का सन्धिकाल था।
*द्वापर युग का आरम्भ*
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महाभारत के शान्तिपर्व में भीष्म ने युग परिवर्तन का सजीव चित्रण किया हो।
उन्होने एक *भयंकर अनावृष्टि* का उल्लेख करते हुए कहा कि :
त्रैता-द्वापर की सन्धि अर्थात जिस काल खण्ड़ में त्रेता युग का अन्त और द्वापर युग का आरम्भ हो रहा था, इस सन्धिकाल में गृह-नक्षत्रों का व्यतिक्रम  हुआ।
तब बारह वर्ष की घोर अनावृष्टि हुई। उस समय इन्द्र और मरुत अन्तरिक्ष से वर्षा नहीं भेज रहे थे। चन्द्र मण्डल व्यावृत्त था और दक्षिण मार्ग चला गया था।रात्रि के अन्त में ओस भी नहीं थी।नदियां स्वल्प जल वाली और कहीं कहीं भूमि के अन्तर्गत हो गई थी। आकाश निर्धूम हो गया था।
इस द्वापर के भी कई कालखण्ड बताये गये हैं। इन कालखण्डों के राजाओं का वृत्तान्त पण्डित भगवद्दत्त शर्मा ने विभिन्न पुराणों के साक्ष्य से अपने शोध ग्रन्थ भारतवर्ष का बृहद इतिहास- के द्वितिय खण्ड में दे रखा हैं। इसी ग्रन्थ में कुरू से शान्तनु तदनंतर शान्तनु से अभिमन्यु पुत्र  परीक्षित और इसके पुत्र जनमेजय तक का इतिहास, जिसमें महाभारत युद्ध कालीन भारतवर्ष का राजनैतिक इतिहास भी शामिल है, वर्णित है।
महाभारत युद्ध का काल
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महाभारत युद्ध का काल विभिन्न पुरातात्विक आधारों (शिलालेख) पर 3081 वर्ष विक्रम से पूर्व मानाहै । विक्रम संवत् और ईस्वी सन् में लगभग 57 वर्ष का अन्तर है  विक्रम संवत् ईस्वी सन् से 57 वर्ष पुराना है।
महाभारत युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। युधिष्ठिर का राज्यकाल 36 वर्ष और कुछ मास रहा  तब *कलियुग* का आरम्भ हुआ।
अतः शक राजाओं से 3044 वर्ष पूर्व ( 3081-37=3044) कलियुग का आरम्भ माना जाता है।
द्वापर युग में धर्म
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*द्वापर* युग में धर्म के केवल दो स्तम्भ *तप* और *दान* शेष बचे। अर्थात इस युग में  *सत्य* और *दया* का पराभव हुआ किन्तु *तप* कठिन परिश्रम और *दान* बचा रहा।
भारत युद्ध तक मन्त्र-दृष्टा ऋषि समाप्त हो गये थे पर वैदिक ग्रन्थों का संकलन करने वाले ऋषि थोड़े बहुत चले आ रहे थे। उनका भी जन्मेजय के समय नैमिषारण्य में हुए दीर्घ सत्र के पश्चात से अन्त होता गया।
*कलियुग*
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जैसा कि बताया जा चुका है कि 3044 वर्ष विक्रम संवत से पूर्व अर्थात  3044+2078= 5122  विक्रम वर्ष पूर्व अथवा 5122+ 57=5179 वर्ष ईसा पूर्व से कलियुग का आरम्भ हो चुका है।
इस काल गणना से पाश्चात्य विद्वानों द्वारा भारत के इतिहास के सम्बन्ध में प्रस्तुत समस्त (मिथ्या) अवधारणाएं ध्वस्त हो जाती है जिनमें ऋग्वेद काल 1500 वर्ष ईसापूर्व माना है और आर्यों को बाहरी बताकर एक झूठी Aryan Invadion Theory गढी गई।
वर्तमान पुरातात्विक खोजों में विशेषकर  पीलीबंगा,मेहरगढ और  कुरूक्षेत्र के के आस पास (बागपत और इसके आसपास के क्षेत्रों में) खुदाई के दौरान मिले *रथ* और *तलवार* इत्यादि ने पाश्चात्य जगत के तथाकथित विद्वानों की समस्त अवधारणाओ को एक झटके में निर्मूल साबित कर दिया और प्राचीन भारतीय शास्त्रों (उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों इत्यादि) में वर्णित इतिहास की सत्यता सिद्ध करते हैं।
*यवन युग-विभाग*
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प्राचीन पाश्चात्य इतिहासकार हेरोडोटस से भी 400 वर्ष
पूर्व का इतिहासकार हैसिअड ने प्राचीन ग्रीक (यवनों) के इस सम्बन्ध मे तत्कालीन दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि
There have been four ages – Golden, Silver, Bronz and Iron. Each worse than preceding.
इस आधार पर पण्डित भगवद्दत्त शर्मा का मानना है कि बाबल (बेबिलोन) इत्यादि जातियों ने युग गणना का मूल्य तत्व अपने पूर्वजों आर्यों (सुशिक्षित और सुसंस्कृत भारतीयों) से सीखा।
युग गणना के सूक्ष्म तत्व तो वे भूल गये किन्तु स्थूल विभाग उन्हे स्मरण रहे।
उत्तरोत्तर युगों में मनुष्य की किन किन शक्तियों का किस प्रकार ह्रास हुआ, इसका पूर्ण ज्ञान भारतीय वाङमय में ही मिलता है।
*आधुनिक (तथाकथित) वैज्ञानिक अवधारणा*
 मानव विकास की आधुनिक अवधारणा डार्विन के क्रमिक विकास की अवधारणा पर आधारित है।
चार्ल्स डार्विन ने अपनी पुस्तक Origin of Species और Descent of Man में मानव के क्रमिक विकास की अवधारणा प्रतिपादित की थी।
इसी अवधारणा के आधार पर मनुष्य के विकास को तीन युगों  – प्रस्तर युग, कांस्य युग और लौह युग में विभाजित किया है।
प्रस्तर युग को भी पुनः तीन युगों – पुराण, मध्य और नव प्रस्तर काल में विभाजित किया गया है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार इस कालखण्ड का आरम्भ कब से हुआ, यह सुनिश्चित नही है किन्तु  4000  वर्ष ईसापूर्व यह प्रस्तर युग पूर्ण रूपेण स्थापित हो चुका था।
कांस्य युग का आरम्भ 3000 वर्ष ईसापूर्व और लौह युग का आरम्भ 1200 वर्ष ईसापूर्व माना जाता है।
किन्तु प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में  कलियुग की ही आयु 5209 वर्ष तक के लगभग बताई गयी है।
महाभारत और रामायण जैसे इतिहास ग्रन्थों में वर्णित *द्वापर और त्रैतायुग* में उपलब्ध तकनीकि(जो कई मायनों में आधुनिक तकनीक से भी उन्नत थी) तथा  प्राचीन भारतीय वाङमय में वर्णित मानव के इतिहास के आलोक में मानव विकास की *आधुनिक (तथाकथित) वैज्ञानिक अवधारणा आधारहीन कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं* है।
प्राचीन सभ्यताओं और तकनीक के भारतीय ज्ञान परम्परा के साहित्य में उपलब्ध वर्णन और इनसे साम्य रखती पुरातात्विक खोजों ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत मिथ्या को ताश के पत्तों के महल की भांति ढा दिया है और भारतीय सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनता को पुनर्स्थापित किया है।
लेखमाला की अगली कड़ी में मानव समाज में आदिकाल से अब तक समाज में वर्णव्यवस्था के विकास पर  ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करेंगे।

सुदेश चंद्र शर्मा

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