सामाजिक और राजनैतिक नैतिकता के सम्बन्ध में प्राचीन काल और आधुनिक काल की स्थिति

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क्रमिक ह्रास का सिद्धांत
*बुद्धि* और इससे उत्पन्न *ज्ञान-विज्ञान* तथा *नैतिकता* विशेषकर सामाजिक और राजनैतिक नैतिकता के सम्बन्ध में प्राचीन काल और आधुनिक काल की स्थिति की तुलना करते हुए इन विषयों पर  संक्षिप्त चर्चा आरम्भ करेंगे। इस चर्चा का आरम्भ हम *नैतिकता* और *तकनीकि* के सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय और आधुनिक स्थिति के बारे में संक्षिप्त चर्चा करेंगे। इसके पश्चात हम *बुद्धि* पर भी संक्षिप्त चर्चा करेंगे।
*नैतिकता*
*नैतिकता* मनुष्य के चरित्र का सर्वाधिक *महत्वपूर्ण अंग* है।
मनुष्य को *नैतिक*  (धार्मिक) बनाने के लिये  हमारे ऋषियों ने *धर्म* की अवधारणा विकसित* की। भारतीय परम्परा में  *सदाचरण* को सबसे बडा धर्म (कर्तव्य) माना गया है और मनुष्य के *सदाचरण की कसौटी* स्त्री/ *स्त्री जाति के प्रति उसकी भावना* है।
धार्मिक / इतिहास ग्रंथों – रामायण और महाभारत के सन्दर्भ से हम स्त्री जाति के प्रति क्रमशः त्रेता और द्वापर युग में लगभग एक सी ही स्थिति में दो व्यक्तियों के भिन्न भिन्न आचरण की तुलना करते हुए उसके परिणामों पर विचार करते हैं।
काल खंड:*त्रेतायुग* :
घटना : *सीताहरण*
व्यक्ति : *जटायु*
एक्शन : सीता के विलाप सुनने पर जटायु  ने  *रावण को सीता का बलपूर्वक हरण* करते देखा तो रावण की शक्ति के सम्मुख कमजोर होने के बावजूद भी *सीता की रक्षा* के लिये रावण से भिड़ गया और *यथाशक्ति सीता की रक्षा करने का प्रयास* किया। स्त्री जाति के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन* में उसे प्राणघातक चोट लगी और वह अपने उद्देश्य में सफल भी नहीं हो सका।
*परिणाम*: भगवान राम ने स्वयं उसके घावों का उपचार किया गया किन्तु प्राणघातक घावों के कारण जटायु के प्राणी की रक्षा न हो सकी। भगवान राम ने स्वयं अपने हाथों उसका अन्तिम संस्कार किया।*
काल खंड: *द्वापर युग*
घटना : *द्रोपदी चीरहरण*
व्यक्ति : *भीष्म पितामह*
एक्शन : अपनी ही कुलवधु द्रोपदी द्वारा बारम्बार अपने शील की रक्षा करने की करूण पुकार सुनने के उपरान्त भी *शक्ति सम्पन्न होते हुए भी द्रोपदी की रक्षा करने का कोई प्रयास नहीं* किया जाना।
*परिणाम* महाभारत युद्ध के दसवें दिन अपने पराभव से अपनी मृत्युपर्यन्त *बाणों की शैया* पर मर्मांतक पीडा सहना।
कालखण्ड: *कलियुग*
सरकारी रिपोर्टों के अनुसार स्त्रियों /  बालिकाओं का पारिवारिक सदस्यों द्वारा ही बलात्कार किया जाना। *परिणाम* भगवान ही जाने । यह मनुष्य के  नैतिक चरित्र का *क्रमिक ह्रास* है।
*तकनीकि क्षेत्र में*
वर्तमान समय में मनुष्य तकनीकि रूप से सबसे अधिक विकसित माना जाता है।  एक तरफ इस तकनीकि के माध्यम से हम प्रकृति के रहस्यों से पर्दा उठा रहे हैं तो दूसरी तरफ हमने  इतने परमाणु हथियारों का निर्माण कर लिया है कि अपनी इस *पृथ्वी माता और इस पर निवास करने वाले प्राणियों का हम एक बार नहीं अनेक बार विनाश* कर सकते हैं।
किन्तु क्या ये *अस्त्र* तीर की नोक पर *केन्द्रित* किये जा सकते हैं ?
क्या एक बार एक्टिवेट कर दिये जाने पर हमारा इन पर कोई  नियन्त्रण रह जाता है ?  इन दोनो प्रश्नों का उत्तर सम्भवतः नकारात्मक होगा।  अब हम एक घटना के माध्यम से   *रामायण कालीन तकनीकि* पर नजर डालने हैं।
वाल्मीकी रामायण के युद्ध काण्ड पूर्वार्ध मे वर्णित इस घटना का संक्षिप्त रूप यह है कि अपनी सेना को लंका जाने के लिये समुद्र पार उतारने सम्बन्धी राम द्वारा की गई विनती  पर जब समुद्र कोई प्रत्युत्तर नहीं देता है तो समुद्र के इस व्यवहार से क्रुद्ध हो जाते हैं । क्रोधित राम ने *समुद्र के जल को सुखा देने के उद्देश्य से  अपने धनुष पर *अग्नि बाण* का संधान कर लिया।
इस पर भयभीत हो समुद्र राम के सम्मुख उपस्थित हो गया और वानर सेना को समुद्र पार करने के उपाय बताने की बात कह कर इस *बाण को न चलाने* का निवेदन किया।
इस पर राम ने कहा कि *बाण का संधान हो चुका है* (अस्त्र एक्टिवेट हो चुका है) इसे छोडा जाना आवश्यक है। तुम बताओ इसे किस दिशा में और कहां के लिये छोडा जाये। इस पर समुद्र ने कहा कि पश्चिम दिशा में मेरा ही मीठे पानी का भाग है जहां समुद्री दस्यु उसे परेशान करते रहते हैं। अतः आप इस  अग्नि बाण को मेरे उस भाग पर प्रक्षेपित करें।
राम ने वह बाण पश्चिम दिशा स्थित  समुद्र के उस भाग में छोड दिया।
बडी आवाज के साथ बाण समुद्र में गिरा जिससे पृथ्वी में बहुत बडा खड्डा हो गया और उसका समस्त जल सूख गया। वह प्रदेश मरून्तक अथवा मरू प्रदेश (मारवाड़ प्रदेश कहलाया।
 निशचय ही यह अग्नि बाण क्या कोई परमाणु आयुध रहा होगा और वह  बाण कोई प्रक्षेपास्त्र। जिसे सूदूर दक्षिण में स्थित समुद्र से पश्चिमी भाग (वर्तमान मारवाड़ क्षेत्र – जिसमें जोधपुर और इसके आसपास पास का क्षेत्र भी शामिल है ) में प्रक्षेपित किया गया। दोनो स्थानों के मध्य तक की दूरी  लगभग 5000-6000 किलोमीटर है।
यह उस प्रक्षेपास्त्र की मारक क्षमता थी। जिसकी वर्तमान की सुपरसोनिक मिसाइल से तुलना की जा सकती है। अगर ऐसा है तो ऐसे अस्त्र कितना कम स्थान (तीर की नोक) घेरते थे और कितने सरल और पोर्टेबल थे।
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसका आशय यह है कि राम के पास परमाणु तकनीक उपलब्ध थी और वह  आधुनिक परमाणु तकनीकि से भी विकसित थी। शास्त्रों  में *वरूणास्त्र* के प्रयोग का उल्लेख भी है। महाभारत युद्ध में इसके उपयोग का भी उल्लेख है।
वरुणास्त्र  ऐसा अस्त्र है जिसमें पानी का जलजला उत्पन्न होता है।
 राम, कृष्ण, परशुराम, अर्जुन, कर्ण इत्यादि सभी प्रसिद्ध प्राचीन वीरों के पास यह अस्त्र मौजूद थे। वर्तमान समय में *अग्नि बाण के समतुल्य परमाणु अस्त्र* तो है किन्तु *वरूणास्त्र* के समतुल्य  अस्त्र की जानकारी आपके पास हो तो अवश्य साझा करें।
*भारतीय ज्ञान परम्परा में बुद्धि
*बुद्धि*  क्या है ?
*बुद्धि* को हमारे शास्त्रों में *अन्तःकरण*  अर्थात शरीर के अन्दर स्थित *आत्मा का उपकरण*, (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ) मे से  एक उपकरण माना गया है। इसके माध्यम से ही आत्मा बाहरी संसार से व्यवहार करती है। इसे मनुष्य की *निश्चयात्मक शक्ति* कहा गया है।
बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रन्थ *गीता रहस्य* में बुद्धि को *कैंची* अथवा *चाकू* के रूप में बताते हुए इसे *काटने वाली* अर्थात तथ्यों का सूक्ष्म विश्लेषण कर निर्णय लेने वाली शक्ति बताया है। इसी ग्रन्थ में उन्होने न्यायालय के उद्धरण से  *मन* को *मुंशी* और *बुद्धि* न्यायाधीश की उपमा देते हुए लिखा है कि मन द्वारा बाह्य और आंतरिक जगत से प्राप्त सूचनाओं को बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। बुद्धि इन सूचनाओं / तथ्यों को छोटे छोटे टुकडों मेअअं विभाजित कर उनका विश्लेषण करती है और उस पर अपना निर्णय सुनाती है। इस निर्णय को लागू करने की जिम्मेदारी पुनः *मन* रूपी मुंशी की होती है।
मन *ज्ञानेन्द्रियों* के माध्यम से बाह्य *संसार से  सूचनाएं / आन्तरिक जगत में अपने विचारो* को प्राप्त कर *बुद्धि* के समक्ष  निर्णय के लिये प्रस्तुत करता है। ऐसी स्थिति में मन ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर रहता है अतः इसे ज्ञानेन्द्रिय (इन्द्रियों ) का गुलाम कहा जाता है।
यही मन जब कर्मेन्द्रियों को बुद्धि से प्राप्त निर्णयों को लागू करने की आज्ञा देता है तो यह कर्मेन्द्रियों ( इन्द्रियों) का राजा कहा जाता है।
विकिपीडिया के अनुसार *बुद्धि* (Intelligence) वह *मानसिक शक्ति* है जो वस्तुओं एवं तथ्यों को समझने, उनमें आपसी सम्बन्ध खोजने तथा तर्कपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होती है। बुद्धि ही मनुष्य को नवीन परिस्थितियों को ठीक से समझने और उसके साथ अनुकूलित (adapt) होने में सहायता करती है। बुद्धि को  *सूचना के प्रसंस्करण की योग्यता* की तरह भी समझा जा सकता है। यह *भावना* (emotions)  और *अन्तःप्रज्ञा*  (Intuition/इंट्युसन)  से अलग है।
क्या *बुद्धि को परिवर्तित* किया जा सकता है।
बुद्धि से सम्बन्धित हमारे पिछले लेख में हमने *विचारों* के बनने में सहायक कारकों यथा पारिवारिक / सामाजिक स्थितियां, स्वयं के पूर्व जन्म के संस्कार, शिक्षा, इत्यादि पर संक्षिप्त चर्चा कर चुके हैं।
अब यहां हम  *क्या विचारों को परिवर्तित और परिवर्धित किया जा सकता है ?* इस प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते हैं। हमारे मतानुसार इसका उत्तर *हां*  है। आधुनिक भारतीय राजनीति में यह कहावत प्रसिद्ध है कि एक ही *झूठ* को निरन्तर रूप से बोला जाये तो लोग उसे *सच* मान लेते हैं। क्योंकि
 मनुष्य की बुद्धि को *एक ही प्रकार की सूचनाएं* (आवश्यक नहीं कि ये सूचनाएं वास्तविक ज्ञान  कि स्वरूप हों) निरन्तर रूप से  लगातार दिये जाने से पहले तो उस झूठ के सत्य होने के  प्रति सन्देह रहता हैं किन्तु जब वही झूठ बारम्बार बोला जाता है तो मनुष्य को अपने ही विश्वास पर सन्देह होने लगता है और अन्ततः वह उस झूठ को ही सत्य मानने लगता है।इस प्रकार एक मनुष्य ही नहीं सम्पूर्ण समाज की बुद्धि (विचार – शक्ति) को बदला जा सकता है और यह कहावत भारतीय समाज (सनातन समाज) में विशेष रूप से लागू होती है।
एक हजार साल की गुलामी के दौर में हमे *हीन* सिद्ध करने के लिये इतना झूठ बोला गया और बोला जा रहा है कि हम अपने *आत्मगौरव को ही भुला* बैठे हैं और आज भी भ्रमावस्था में ही *हीन भावना से युक्त होकर जी रहे हैं।*
कोई अगर इस आत्मगौरव को जागृत करने का प्रयास भी करे तो हम उसी को सन्देह की दृष्टि से देखने लगते हैं। हमारी स्थिति उस सिंह शावक की तरह हो गई  है जो मेमनों के बीच रह कर अपनी वास्तविक पहचान भूल कर स्वयं को मेमना ही समझता है। किसी सिंह द्वारा उसे अपनी वास्तविक पहचान बताये जाने का प्रयास करने पर भी वह सिंह शावक लम्बे समय तक मेमनों के बीच रहकर स्वयं को मेमना मानकर ही संतुष्ट रहता है।
 *विचार के बदलते* ही मनुष्य के *व्यवहार में भी परिवर्तन* आ जाता है। अतः *किसी भी व्यक्ति की बुद्धि को नियन्त्रित कर उसके व्यवहार को भी नियन्त्रित किया जा सकता है*।
*शिक्षा* द्वारा *बुद्धि का परिवर्तन*
किसी भी व्यक्ति की बुद्धि को *शिक्षा* के माध्यम से परिवर्तित किया जा सकता है। *शिक्षा* से आशय किसी विषय से सम्बन्धित *सामान्य और विशेष  सूचनाएं / जानकारियां* प्रदान किया जाना है। इन जानकारियों के आधार पर ही *मनुष्य*  में किसी विषय विशेष के सन्दर्भ में विचार करने का निश्चित patern बना लेता है। परिपक्व होने पर वह इन विचारों की कमियां / विशेषताओं को जानता है और तद्नुसार अपने विचारों को परिवर्तित और परिवर्धित करने का प्रयास करता है।
यह परिवर्तन दो प्रकार का हो सकता है।
1 *सकारात्मक परिवर्तन* : जब हमें किन्ही निहित स्वार्थों से ऊपर व्यापक दृष्टिकोण वाली  सही शिक्षा प्रदान की जाती है तो वास्तविक ज्ञान मिलने से हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है।
ऐसी शिक्षा हमें *उर्ध्व दिशा* में *उच्च स्तर* पर ले जाती है जहां से हम *किसी भी बिन्दु पर व्यापक रूप से विचार कर कोई निर्णय* लेते हैं। इसमें किसी *निजी अथवा निहित स्वार्थों के लिये कोई स्थान नहीं* होता।
प्राचीन भारतीय शिक्षा का स्वरूप ऐसा ही है जो मनुष्य के दृष्टिकोण को मानवता के स्तर तक व्यापक कर देता है।
2। नकारात्मक परिवर्तन अथवा
*ब्रैन-वाशिंग*
************
*वास्तविकता* के स्थान पर किसी *सूचना विशेष* को बारम्बार प्रस्तुत कर *मनुष्य की विचार- शक्ति को इस सूचना विशेष के इर्द-गिर्द ही सीमित कर देने को *ब्रेन-वाशिंग* कहते हैं।
इस स्थिति में मनुष्य के सोचने-समझने का दायरा *बहुत ज्यादा संकीर्ण* हो जाता है।
अपनी बुद्धि में किसी अन्य व्यक्ति / व्यक्तियों / संस्थाओं द्वारा घुसाई (inject) इन *जानकारी विशेष से अधिक वह व्यक्ति जानता ही नहीं* हैं। अन्य सूचनाओं / जानकारियों/ ज्ञान को भी वह अपनी *बुद्धि में पहले से स्थापित जानकारियों / सूचनाओं को कसौटी* मानकर वह नवीन जानकारियों / सूचनाओं का विश्लेषण और संश्लेषण करता है और अपने नवीन विचार बनाता है।
अपनी बुद्धि में प्रतिस्थापित *संकीर्ण* विचारों को ही *सम्पूर्ण* समझकर संसार की  *अन्य समस्त विचारों को तोड़ मरोड़कर अपने विचारों की सीमा में फिट करना*  और इस *सीमित फ्रेम में फिट नहीं होने वाले विचारों को ही असत्य कहना* और *उन विचारों का समादर नहीं करना* ऐसे संकीर्ण लोगों की विशेषता होती है।
वर्तमान भारतीय सामाजिक / धार्मिक/ राजनैतिक परिपेक्ष्य में विशेषकर  एक धर्म विशेष के विचारों का विश्लेषण करने में यह बात सटीक लागू होती प्रतीत होती है।  निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा अपने स्वार्थ पूर्ती के लिये, अपने हितों के साधन के लिये ऐसे प्रयास किये जाते रहे है और किये जाते रहेंगे।
जो भी *समाज ऐसे तत्वों के वास्तविक  मन्तव्य को समझने मे चूक करेगा अथवा इनके द्वारा फैलाये गये भ्रम / भ्रमात्मक विचारों को सतही रूप से देख कर सत्य मानने की गलती करेगा ऐसे समाज का भविष्य अंधकारमय रहेगा*।
वर्तमान में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में शिक्षित हम जैसे लोगों का भी यही हाल है।  इस शिक्षा पद्धति द्वारा हमारी प्राचीन धर्म और संस्कृति के प्रति हमारे मन में / बुद्धि में वितृष्णा का भाव इस सीमा तक भर दिया गया है कि हम हमारी जड़ों से कट गये हैं। हमारे प्राचीन साहित्य / इतिहास,पुराण आदि हमें काल्पनिक कथा लगने लगे हैं जब कि इनमें हमारे प्राचीन आध्यात्म,धर्म, संस्कृति और इतिहास का ज्ञान भरा पडा है।
सभी भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा को हमने पढना छोड दिया है जब कि  हमारे प्राचीन शास्त्रों में छिपे प्रकृति के  रहस्यों को समझने और  उजागर करने लिये *नासा* हमारे संस्कृत के विद्वानों को नियुक्त कर रहा है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में विचारों को व्यापक बनाने के प्रयास*
प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा वर्तमान की तरह संकीर्ण विचारों की नहीं थी।
वह व्यापक विचारों वाली और सम्पूर्ण मानवता के कल्याण पर विचार करने वाली थी। जिसमें समाज और इसकी इसकी इकाई मनुष्य के चरित्र निर्माण की शिक्षा थी प्राचीन भारतीय मनीषियों ने *मनुष्य और  समाज के विकास के लिये, मनुष्य के मन-मस्तिष्क में संतोष और समाज के शान्तिपूर्वक संचालन के लिये मनुष्य के व्यवहार को समाज के अनुकूल बनाने के उद्देश्य से *सदाचरणों* का विकास किया और इन्हे *मनुष्य के सामान्य व्यवहार में ढालने के लिये* इन्हे शिक्षा का अंग बनाया।
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का उद्देश्य मनुष्य के *चरित्र का विकास* करना था।  क्योंकि प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा *चरित्र* को व्यक्तित्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग मानती है। इसके लिये हमारे यहां एक कहावत भी है कि *धन गया तो समझो कुछ भी नहीं गया।*
*तन (शरीर) गया तो समझो कि कुछ गया* किन्तु *चरित्र गया तो समझो सब कुछ चला गया।* इसलिये हमारे भारतीय समाज में *दृढ़ चरित्र वाला व्यक्ति सर्वाधिक सम्मान का पात्र* होता है।
किन्तु काल के प्रभाव से मनुष्य का *चरित्र का ह्रास* ही हुआ है जैसा कि हम *नैतिकता* के सम्बन्ध में चर्चा कर चुके हैं।

सुदेश चंद्र शर्मा

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