
ये सन् 2000 के लगभग या उससे पहले के बीच की यादें है। उस वक्त हैसियत के हिसाब दुल्हा कंमाडर जीप या टाटा सूमो गाडी जाया करता था,बारात अक्सर बसों या टेक्टर ट्रोली मे जाया करती थी, ट्रोली मे सरसों की फाफरी डाली जाती थी,जिससे दचका ना लगे।
ज्यादातर घरों मे प्रेस (स्त्री ) कोयले से चलने बाली रहती थी, जिसमे कोयला दुल्हे के घर खुदी भट्टी से आयात किया जाता था। हर छोटे बच्चे को ये जीद रहती थी वो भी बारात मे जाये ।बच्चे , बाप से पहले ही अपनी सीट रिजर्व कर लेते थे। बसों की छत हो या टेक्टर का डाला, एक चलन का उन पर बैठकर गीत गाने का, बारात सम्पूर्ण तब तक नही मानी जाती थी जब तक कोई गांव मे लोग गीत गाने बाले बारातियो पर पत्थर ना मारे या बारातियो मे बैठे कुछ बुढ्ढे दो पाँच बार साधन रूकाकर गाली ना दे।
कृई बारातियो के बस की छतों पर बेठने पर चोट भी लग जाती थी ।
बस या ट्रोली को बीच मे एक या दो बार रास्ते मे पडे बाजारों मे रोका जाता था , उस समय बारात मे पान खाना एक शौक था। कुछ पान गुटखा लेते थे तो कुछ ठंडी ।
बारात अक्सर धणी के दरवाजे पर शाम 6 बजे से 9 बजे तक पहुंच ही जाती थी, फिर क्षेत्र के हिसाब से जैसे-तलहटी मे लाल ठंडाई , डाँग मे लस्सी , हिण्डौन साईड बील का जूस , माड मे पेप्सी , कई क्षेत्रों मे नींबू पाणी आदि से स्वागत होता था, बारात खुले मैदान मे बैठती थी। फिर बहुत कम उस समय के अपवाद लोग दारू का जुगाड़ पूछते थे (ध्यान रहे – उस समय बारात मे दारू पीने बाले 5-7 लोग ही पाये जाते थे, जिन्हें हीन आतंकवादी दृष्टि से देखा जाता था ) फिर कोई नास्ता जैसे पकौडी जलेबी – हलुआ कोप्ता दिया जाता था । उसके बाद बारात शौच के लिए जाती थी खेतों मे, इसी दौरान चालाक बाराती अपने सोने व्यवस्था कर आते थे। उस मेहमान को अपने घर सुलाने को लोग सौभाग्य समझते थे , क्योंकि उस समय उस घर की महिलाओं को गलत नजर से देखना अपने समाज के विरूद्ध समझते थे या घर के।
उस समय फेरो पर दुल्हन का हाथ दबाना एक प्रचलन था ठरकी दुल्हो का , यदि कोई डीजे जिसे पहले बाजा बोलते थे , लेकर जाता था तो पूरे गाँव मे घूमता था, बिना विवाद के। फिर बारात लगभग 11-12 बजे खाना खाती थी जिसमे मिठाई होती थी , जिसे बोला जाता था – सातू पकवान ।
आप कल्पना कर सकते हो वो उस समय को की 300-400 बाराती उस गाँव मे लगभग हर घर मे सोते थे । कितना प्यार होगा उस समय।
सुबह अक्सर पहली चाय जिसके घर सोये है वो पिलाता था, नहाने के लिए गांव के किसी तलाब, नदी या कुएँ मे इंजन , मोटर का प्रयोग होता था, निरमा साबुन और सेंपू पाऊच शरीर मे और औसवाल डाँक्टर साबुन से कपड़े धोये जाते थे, कुछ शहरी गुलेड पे बाले या चमडे के जूते पहनने बाले जिन्हें अब हम अग्रेज बोलते है ये कपड़े तक बारात मे लेकर जाते थे,दूसरे दिन नहाकर पहनने के लिए with चड्डी बनियान। हम आप जैसे गवार तोलियेशाकाछकर नहा लेते थे और कपड़ों को गीले तोलिये से पूछ लेते थे। फिर धीरे धीरे बाराती सुबह के नास्ते मे धावा बोलने के लिए धणी के घर कूच करने लग जाते थे। अक्सर सुबह का नास्ता पकौड़ी जलेबी होता था । इस नास्ते को बाराती जमकर पेलते थे क्योंकि उन्हें पता होता था शाम का भोजन 4 बजे बाद मिलेगा ।
नास्ता होते ही छोटे बच्चे गाँव को सार्वजनिक स्थान जैसे स्कूल, पहाड़ , तालाब मे आंतक मचाने पहुँच जाते थे , तो बढे बूढ़े किसी घर जिसमे बडे बूढ़े बैठे हो ,एक बार और चावल खुआदे बियाई जैसी चर्चा करते थे। जवान ठरकी गाँव की तन्हाई ताकते थे , पूरे गांव की छानबीन करते थे की फलाणे घर मे ….ल है ।
फिर दिन डलते डलते सारे बाराती फिर धणी के दरवाजे पहुंच जाते थे, दूसरे दिन का भोजन दाल बाटी चूरमा ही होता था। कुछ चतुर बाराती गांव मे से दिन मे किसी पेड़ से नींबू तोड़ ही लाते थे, फिर दाल बाटी खाते समय जेब से निकालते थे।
कुछ जगह विदाई पत्तल पर ही दे दी जाती थी , कुछ जगह अलग से आसन लगाकर पहले बढे बुजुर्ग को फिर बच्चों को सम्मान से 1 रूपया , लाल कलर की माला , एक कांच का या स्टील का गिलास और सिर कपड़ों मे गुलाल रंग लगाकर ससम्मान बिदा किया जाता था।
विदाई के समय सबसे ज्यादा जल्दबाजी ये रहती थी की बस या ट्रोली मे जगह रोकना है। कुछ बच्चे दो बार बिदा भी ले लेते थे।
गिलास मे रूपये डालकर बजाना धणी के दरवाज़े से ही शुरू हो जाता था।
कुछ चतुर पिता अपने बच्चों से गिलास बिदाई के तुरंत बाद मे ही ले लेते थे , कही गिरा न दे बस मे , पैसा बच्चा देता नही था।
आते समय गीत ज्यादा छातीचीर होते थे , जिसमे उस गांव का जिक्र काफी बार होता था। बस की छतों पर बैठे गायक मंजिरा और बिदा मे मिले गिलास मे रूपये डालकर गीतों मे मिठास और झनकार लाते थे।
बस मे नीचे बैठे बाराती अक्सर सो जाया करते थे , लेकिन छतो पर बैठे घोडे ही रहते थे, कुछ जिद्दी बच्चे सो जाते थे तो जब बस या ट्रोली गाँव पहुँच जाती थी तो बाप ठूसा देकर जगाता था और चेतावनी देता था की अब बारात मे , मेरा पीछा मत करना।
पहले साधन से पहुंचे बाराती महिलाओं को दहेज और खातिरदारी के बारे मे बताते थे।
हारे ठके बाराती बिना कुछ बिछाये टूटी खाट मे ही सो जाया करते थे और फिर सुबह 10-11 बजे उठकर दूसरी बारात या भात मे जाने के लिए गुलाल मे सने कपड़ों को धौना प्रारम्भ करते थे।