
भास्कराचार्य
उनकी लिखी पंक्ति कुछ इस प्रकार है—
“आकृष्यते यत: सर्वं, गुरुणा च महता।
तत: तस्याकृष्टिकत्वं, स्वभावेणैव गम्यते॥”
“पृथ्वी अपनी गुरुत्व शक्ति से सभी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है, इस कारण ही वे गिरती हैं।”
यह कथन न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत (1687) से सैकड़ों वर्ष पहले दिया गया था। हालाँकि, भास्कराचार्य ने इसे विस्तृत रूप में परिभाषित नहीं किया, लेकिन इसका मूल सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझाया कि पृथ्वी में एक आकर्षण शक्ति है, जिससे आकाशीय पदार्थ उसकी ओर खिंचते हैं। यह भारतीय गणित और खगोलशास्त्र के उन्नत ज्ञान को दर्शाता है, जिसे आधुनिक विज्ञान बाद में गणितीय रूप से सिद्ध कर पाया।
सिद्धांत शिरोमणि भास्कराचार्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें गणित और खगोलशास्त्र का अद्भुत समन्वय किया गया है। यह चार भागों में विभाजित है—
🔹 लीलावती (अंकगणित)
🔹 बीजगणित (अलजेब्रा)
🔹 गोलाध्याय (गोलार्थीय गणित और त्रिकोणमिति)
🔹 ग्रहगणिताध्याय (खगोलशास्त्र और ग्रहों की गति)
यह ग्रंथ उस समय के खगोलशास्त्र और गणित की सर्वोच्च कृति मानी जाती है, जो आज भी शोधकर्ताओं को चौंका देती है!
आचार्य कणाद
आचार्य कणाद द्वारा रचित वैशेषिक सूत्र भारतीय दर्शन और भौतिकी का प्राचीन ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने सबसे पहले परमाणु (Atom) की संकल्पना दी।
🔹 उन्होंने कहा कि संपूर्ण ब्रह्मांड अणुओं (Atoms) से मिलकर बना है, जो अविनाशी होते हैं।
🔹 परमाणु स्थायी होते हैं लेकिन उनके संयोजन से विभिन्न पदार्थ बनते हैं।
🔹 पदार्थ की भौतिक और रासायनिक विशेषताएँ परमाणुओं की भिन्न-भिन्न संरचनाओं पर निर्भर करती हैं।
यह विचार आधुनिक परमाणु सिद्धांत (Atomic Theory) से काफी मिलता-जुलता है, जिसे हजारों वर्ष बाद पश्चिमी वैज्ञानिकों ने खोजा। आचार्य कणाद के इस ज्ञान ने न केवल दर्शन बल्कि भौतिकी, रसायन और आधुनिक विज्ञान को भी प्रभावित किया।
विश्वामित्र
ॐ भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
गायत्री मंत्र ऋग्वेद (मंडल 3, सूक्त 62, मंत्र 10) में संकलित है और इसे महर्षि विश्वामित्र ने प्रतिपादित किया। यह मंत्र सूर्य देव (सविता) की उपासना का है, जिसमें उनकी दिव्य शक्ति से प्रबुद्ध होने और सत्य की ओर अग्रसर होने की प्रार्थना की गई है।
🔹 गायत्री मंत्र को ‘महामंत्र’ कहा जाता है, क्योंकि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा, बुद्धि और चेतना को जागृत करता है।
🔹 यह मंत्र तीनों लोकों (भूः, भुवः, स्वः) की शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।
🔹 इसे उच्चारित करने से मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है।
महर्षि विश्वामित्र केवल एक ऋषि ही नहीं, बल्कि ऋग्वेद के अनेक सूक्तों के रचनाकार थे। उन्होंने दशराज्ञ युद्ध का वर्णन भी किया, जो वैदिक काल का एक महत्वपूर्ण युद्ध था। उनकी विद्वता और तपस्या इतनी महान थी कि उन्होंने क्षत्रिय होते हुए भी ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया, जो अत्यंत दुर्लभ था। उनकी ही कृपा से राजा हरिश्चंद्र ने सत्य और धर्म के मार्ग पर अडिग रहकर इतिहास रचा। गायत्री मंत्र और ऋग्वैदिक ऋचाओं के माध्यम से महर्षि विश्वामित्र ने ज्ञान और आध्यात्म का प्रकाश संपूर्ण मानवता को प्रदान किया।
दशराज्ञ युद्ध ऋग्वेद (मंडल 7, सूक्त 18, 33, 83, 84) में वर्णित एक ऐतिहासिक संग्राम था, जो भारत के प्राचीन आर्य जनजातियों के बीच हुआ। यह युद्ध सुदास (त्रित्सु वंश के राजा) और दस जनजातियों के गठबंधन के बीच लड़ा गया था। राजा सुदास पहले विश्वामित्र के शिष्य थे, लेकिन बाद में उन्होंने वशिष्ठ को अपना गुरु बना लिया। इससे विश्वामित्र नाराज हो गए और उन्होंने दस जनजातियों को सुदास के विरुद्ध भड़काया। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। युद्ध में भाग लेने वाली जनजातियाँ थीं (दस राजा और उनके कबीले): पुरु,यदु,तुर्वश,द्रुह्यु,अनु,पक्त्य,भलानस,शिव,विषाणिन,अलिन
राजा सुदास ने महर्षि वशिष्ठ के मार्गदर्शन में युद्ध जीता। दस जनजातियों की संयुक्त सेना हार गई और उनका संघ विघटित हो गया। इस युद्ध के बाद त्रित्सु वंश (भरत वंश) और अधिक शक्तिशाली हो गया। सुदास की जीत ने आगे चलकर कुरु वंश और महाभारत युग की नींव रखी। यह पहला दर्ज “राजनीतिक गठबंधन युद्ध” था, जिसमें एक राजा के खिलाफ कई जनजातियाँ एकजुट हुईं। इस युद्ध ने वैदिक भारत में राजनीतिक शक्ति संतुलन को बदल दिया। यह दर्शाता है कि वैदिक काल में भी राजनीतिक कूटनीति, गुरु-शिष्य संघर्ष और सैन्य रणनीति अहम थीं। दशराज्ञ युद्ध भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो यह सिद्ध करता है कि प्राचीन आर्यों में भी सत्ता संघर्ष और राजनीतिक चालें होती थीं।
सुदास त्रित्सु वंश के राजा थे, जो बाद में भरत वंश में विकसित हुआ। भरत वंश ही आगे चलकर कुरु वंश की नींव बना, जिससे महाभारत काल का उदय हुआ। दशराज्ञ युद्ध के बाद भरत वंश सबसे प्रभावशाली शक्ति बन गया। भरत के वंशज कुरु कहलाए और इन्होंने हरियाणा-पंजाब क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। कुरु वंश से ही आगे चलकर कौरव और पांडव उत्पन्न हुए, जिनका संघर्ष महाभारत का केंद्र था। दशराज्ञ युद्ध के पहले भारत में जनजातीय संघर्ष अधिक थे। सुदास की जीत के बाद राजशाही अधिक संगठित हुई, जिससे आगे चलकर महाजनपदों और वैदिक साम्राज्यों का विकास हुआ। इस युद्ध से वशिष्ठ और ब्राह्मण गुरु-परंपरा का प्रभाव बढ़ा, जिससे धर्म, राजनीति और युद्धनीति का संतुलन बना।
दशराज्ञ युद्ध सिर्फ एक लड़ाई नहीं थी, बल्कि इसने वैदिक भारत की राजनीतिक दिशा तय की।
सुदास की जीत ने भरत वंश को मजबूत किया। भरत वंश ने कुरु साम्राज्य की नींव रखी। यही कुरु वंश महाभारत के युग में सबसे शक्तिशाली बनकर उभरा | इसलिए, दशराज्ञ युद्ध और सुदास की विजय को महाभारत युग की पृष्ठभूमि कह सकते हैं।
दशराज्ञ युद्ध के बाद राजा सुदास के वंशज भरत ने एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। भरत ने अपने पराक्रम और नीतियों से कई जनजातियों को एकजुट कर “भरत वंश” को खड़ा किया। इस वंश के प्रभाव से पूरे क्षेत्र को “भारतवर्ष” कहा जाने लगा। महाभारत में कहा गया है कि भरत चक्रवर्ती (दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र) ने इस वंश को और भी ऊँचाई पर पहुँचाया। उन्हीं के नाम पर इस भूमि को भारतवर्ष कहा गया।
विष्णु पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि:
“उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः॥”
(अर्थ: जो भूमि हिमालय और समुद्र के बीच स्थित है, उसे भारत कहते हैं और यहां रहने वाले लोग भारतीय हैं।)
भारत का संविधान (अनुच्छेद 1) स्पष्ट रूप से कहता है:
“India, that is Bharat, shall be a Union of States.”
यह दिखाता है कि “भारत” नाम की जड़ें प्राचीन इतिहास से जुड़ी हैं।
भरत वंश और राजा भरत के नाम पर इस भूमि को भारत कहा गया। ऋग्वेद, महाभारत और पुराणों में भारतवर्ष का उल्लेख मिलता है। आज का ‘भारत’ नाम उसी प्राचीन गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है |
भारद्वाज
धनुर्वेद (युद्ध और सैन्य शास्त्र पर आधारित ग्रंथ, जो वेदों का उपवेद भी है) : धनुर्वेद को प्राचीन काल का “युद्धशास्त्र” कहा जाता है, जो वेदों का उपवेद है। इसमें धनुष-बाण, अस्त्र-शस्त्र, युद्ध तकनीक और सैन्य रणनीतियों का विस्तार से वर्णन मिलता है।
युद्ध कला के चार प्रमुख अंग बताए गए हैं:
- युद्ध के नियम (रणनीति और आचार संहिता)
- शस्त्र निर्माण तकनीक
- अश्व, रथ, गज, पदाति (चतुरंगिणी सेना)
- मंत्र-सिद्ध अस्त्र (जैसे ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र)
रामायण और महाभारत में इसका विस्तृत उपयोग देखने को मिलता है।
गर्ग मुनि
गर्ग संहिता (ज्योतिष शास्त्र और कृष्ण कथा):गर्ग संहिता एक प्राचीन ग्रंथ है, जिसे महर्षि गर्ग द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ मुख्य रूप से ज्योतिष शास्त्र और कृष्ण कथा के बीच संबंधों को दर्शाता है। इसमें भगवान कृष्ण के जन्म, उनके जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं और ज्योतिष से संबंधित गहरी जानकारी मिलती है। गर्ग संहिता में ज्योतिष शास्त्र के महत्वपूर्ण पहलुओं का उल्लेख किया गया है। इसमें ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव, जन्म कुंडली, और ग्रहों के योग से जुड़ी जानकारी दी गई है। गर्ग संहिता में कुंडली मिलान, ग्रहों की स्थिति, राज योग, दशा-अंतर् दशा के बारे में विश्लेषण किया गया है। यह ग्रंथ बताता है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में ग्रहों की स्थिति कैसे उसकी सफलता और विफलता को प्रभावित करती है।
गर्ग संहिता में भगवान कृष्ण के जीवन के प्रमुख घटनाओं का भी उल्लेख है। इस ग्रंथ में उनके जन्म के समय की विशेष ज्योतिषीय स्थिति, उनके पालन पोषण और उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण क्षणों का विस्तृत वर्णन किया गया है। गर्ग संहिता में कृष्ण के जन्म से पहले और उनके बाद के समय में जो ज्योतिषीय घटनाएँ घटित हुईं, उनका उल्लेख किया गया है। कृष्ण की बाल लीलाएँ, गोपियों के साथ उनके संवाद, कृष्ण का उपदेश, और महाभारत में कृष्ण का योगदान जैसी कई कथाएँ भी इस ग्रंथ में समाहित हैं।
गर्ग संहिता ज्योतिष और कृष्ण कथा का अद्भुत संगम है। यह न केवल कृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं को प्रस्तुत करता है, बल्कि ज्योतिष के द्वारा जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का मार्ग भी प्रदान करता है। इस ग्रंथ के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान ने न केवल आध्यात्मिक और धार्मिक पहलुओं को महत्व दिया, बल्कि सतर्क और विचारशील जीवन जीने के लिए ज्योतिष का भी उपयोग किया। गर्ग संहिता भारतीय संस्कृति और धर्म के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है, जो आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है।
महर्षि सुश्रुत
सुश्रुत संहिता आयुर्वेद के उपचारात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है, जिसमें जीवन की भलाई और संतुलन के लिए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को एक साथ जोड़ा गया है। इसमें आहार, विहार, वेदना और धर्म के सिद्धांतों पर विशेष ध्यान दिया गया है। आयुर्वेद के पंचतत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के आधार पर शरीर के स्वास्थ्य और विकारों को समझाया गया है। स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए जीवनशैली और आहार की सही आदतों को जरूरी बताया गया है।
सर्जिकल तकनीकों के अंतर्गत अस्थि जोड़ने की तकनीक, घाव भरने की विधियाँ, सुई-धागे का उपयोग, प्लास्टिक सर्जरी (जैसे नाक की सर्जरी), और कटे-फटे अंगों की मरम्मत जैसी प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है।
इसके अलावा, शल्य चिकित्सा के अंतर्गत विभिन्न शारीरिक अंगों के उपचार और सर्जरी से संबंधित गहन अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
सुश्रुत संहिता में सर्जिकल उपकरणों के उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। यह ग्रंथ पहले सर्जरी के बारे में सबसे पुराना ज्ञात स्रोत माना जाता है। प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा अत्यंत उन्नत थी, और यह केवल सर्जन (चिकित्सक) द्वारा ही की जाती थी, जो विशेष प्रशिक्षण और शिक्षा प्राप्त करते थे।सर्जिकल प्रक्रियाओं का अनुसंधान और प्रयोग करने में सुश्रुत ने चिकित्सक समुदाय को समर्पित मार्गदर्शन प्रदान किया।
सुश्रुत संहिता एक आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के लिए प्राचीन भारतीय चिकित्सा ज्ञान का आधार है। इसमें आयुर्वेद और शल्य चिकित्सा दोनों का अनूठा संयोजन किया गया है। इस ग्रंथ से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हो चुकी थी, जो आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को प्रभावित करने वाली नींव बनी। सुश्रुत संहिता न केवल शल्य चिकित्सा के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, बल्कि यह हमें प्राचीन भारत की चिकित्सकीय समझ और उन्नति को भी समझने में मदद करता है।
आचार्य चरक
चरक संहिता आयुर्वेद का एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसे आचार्य चरक द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ आयुर्वेद के आधिकारिक सिद्धांतों, उपचार विधियों और स्वास्थ्य विज्ञान के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है। चरक संहिता को आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों की नींव में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।
चरक संहिता में आयुर्वेद के सिद्धांतों का गहराई से वर्णन किया गया है। इसमें जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) और स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आहार, विहार और जीवनशैली के सही मार्गदर्शन का विवरण है। इस ग्रंथ में आयुर्वेद की त्रिदोष सिद्धांत (वात, पित्त, कफ) का वर्णन किया गया है, जो शरीर में विकारों के कारणों और उनके उपचार को समझाने में मदद करता है। चरक संहिता में शरीर के पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के संबंध में स्वास्थ्य के बारे में भी जानकारी दी गई है।
चरक संहिता में रोगों के कारणों, लक्षणों और उनके उपचार पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह ग्रंथ बीमारियों के निदान और स्वास्थ्य सुधार के उपायों की जानकारी प्रदान करता है। इसमें औषधियों के प्रयोग, पंचकर्म उपचार (शरीर के शुद्धिकरण के उपाय) और हर्बल उपचार के बारे में भी विस्तार से बताया गया है। चरक ने दवाओं के निर्माण और उनके प्रभाव पर विश्लेषण किया, और प्राकृतिक उपचार को प्राथमिकता दी।
चरक संहिता में शरीर के विभिन्न अंगों और उनके कार्यों के बीच संतुलन की महत्वपूर्ण भूमिका को बताया गया है। यह ग्रंथ आहार-विहार, मानसिक स्थिति, और शरीर के विभिन्न द्रव्य (द्रव्य, ऊतक, मल) के संतुलन के द्वारा स्वास्थ्य बनाए रखने की प्रक्रिया पर जोर देता है। आचार्य चरक ने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को एक साथ जोड़ते हुए संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों का महत्व बताया।
चरक संहिता में स्वास्थ्य प्रबंधन, रोग की रोकथाम, शरीर के शुद्धिकरण (detoxification) और प्राकृतिक उपचार के बारे में गहरी जानकारी दी गई है। इसमें जीवन के प्रत्येक चरण के लिए उपचार विधियों का उल्लेख किया गया है, जैसे बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था और मरणकासमय के लिए विशिष्ट उपाय । यह ग्रंथ मानव जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए आहार, दिनचर्या, मानसिक संतुलन और सही उपचार विधियों का पालन करने का मार्गदर्शन करता है।
चरक संहिता आयुर्वेद का एक सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को भी महत्व देता है। इस ग्रंथ ने प्राकृतिक चिकित्सा, आधुनिक उपचार विधियाँ, और स्वास्थ्य विज्ञान के सिद्धांतों को एक साथ जोड़कर आयुर्वेद को एक वैज्ञानिक और व्यापक चिकित्सा पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया। चरक संहिता ने स्वास्थ्य के समग्र दृष्टिकोण को व्याख्यायित किया, जो आज भी चिकित्सा पद्धतियों में एक महत्वपूर्ण संदर्भ है। चरक संहिता के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धतियाँ अत्यधिक वैज्ञानिक और जीवन से जुड़े हुए उपचार विधियों को समझने में सक्षम थीं।
पतंजलि
योग के आठ अंग (अष्टांग योग)
- यम (सद्गुणों का पालन, जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)
- नियम (स्वच्छता, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान)
- आसन (सही शारीरिक मुद्रा)
- प्राणायाम (श्वसन नियंत्रण)
- प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण)
- धारणा (ध्यान की स्थिरता)
- ध्यान (चिंतन की गहरी अवस्था)
- समाधि (पूर्ण ध्यान, आत्मा की शांति की अवस्था)
योग सूत्र में इन आठ अंगों के माध्यम से योग साधना के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट किया गया है, जो मन और शरीर के संपूर्ण संतुलन को स्थापित करने में मदद करते हैं।
महाभाष्य ने पाणिनि के व्याकरणिक नियमों की स्पष्टता और सटीकता को और अधिक बढ़ाया। इसमें संस्कृत के शब्द निर्माण, वर्णों की ध्वनियां, वर्तनी और संधि आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। महाभाष्य के माध्यम से पाणिनि के सूत्रों के बारे में विवेचना और व्याख्या की गई है, जो संस्कृत व्याकरण को समझने में मदद करती है।
महाभाष्य संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो आज भी संस्कृत भाषा के अध्ययन और व्याकरणिक शोध में उपयोग होता है। यह ग्रंथ केवल पाणिनि के व्याकरण को ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन, वेदांत, और संस्कृत साहित्य के अध्ययन में भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
महाभाष्य एक व्याकरणिक ग्रंथ है जो पाणिनि के सूत्रों का विस्तार से विश्लेषण करता है। यह न केवल संस्कृत भाषा के उपयोग में मदद करता है, बल्कि भारतीय दर्शन और साहित्य की गहरी समझ को भी प्रकट करता है।