वैज्ञानिक ही ऋषि-मुनि ही थे, जानिए उनके दिव्य अविष्कार

0
(0)
ऋषि भारद्वाज, विमान के आविष्कारक
ऋषि भारद्वाज, विमान के आविष्कारक
भारत की धरती को ऋषि, मुनि, सिद्ध और देवताओं की भूमि के नाम से पुकारा जाता है। यह कई तरह के विलक्षण ज्ञान व चमत्कारों से पटी पड़ी है। सनातन धर्म वेदों को मानता है। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने घोर तप, कर्म, उपासना, संयम के जरिए वेदों में छिपे इस गूढ़ ज्ञान व विज्ञान को ही जानकर हजारों साल पहले कुदरत से जुड़े कई रहस्य उजागर करने के साथ कई आविष्कार किये व युक्तियां बताई। ऐसे विलक्षण ज्ञान के आगे आधुनिक विज्ञान भी नतमस्तक होता है।
कई ऋषि-मुनियों ने तो वेदों की मंत्र-शक्ति को कठोर योग व तपोबल से साधकर ऐसे अद्भुत कारनामों को अंजाम दिया कि बड़े-बड़े राजवंश व महाबली राजाओं को भी झुकना पड़ा।

भास्कराचार्य

आधुनिक युग में धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्यजी ने उजागर किया। भास्कराचार्यजी ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है। इस वजह से आसमानी पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है’।

उनकी लिखी पंक्ति कुछ इस प्रकार है—

“आकृष्यते यत: सर्वं, गुरुणा च महता।
तत: तस्याकृष्टिकत्वं, स्वभावेणैव गम्यते॥”

“पृथ्वी अपनी गुरुत्व शक्ति से सभी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है, इस कारण ही वे गिरती हैं।”

यह कथन न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत (1687) से सैकड़ों वर्ष पहले दिया गया था। हालाँकि, भास्कराचार्य ने इसे विस्तृत रूप में परिभाषित नहीं किया, लेकिन इसका मूल सिद्धांत स्पष्ट रूप से समझाया कि पृथ्वी में एक आकर्षण शक्ति है, जिससे आकाशीय पदार्थ उसकी ओर खिंचते हैं। यह भारतीय गणित और खगोलशास्त्र के उन्नत ज्ञान को दर्शाता है, जिसे आधुनिक विज्ञान बाद में गणितीय रूप से सिद्ध कर पाया।

सिद्धांत शिरोमणि भास्कराचार्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें गणित और खगोलशास्त्र का अद्भुत समन्वय किया गया है। यह चार भागों में विभाजित है—
🔹 लीलावती (अंकगणित)
🔹 बीजगणित (अलजेब्रा)
🔹 गोलाध्याय (गोलार्थीय गणित और त्रिकोणमिति)
🔹 ग्रहगणिताध्याय (खगोलशास्त्र और ग्रहों की गति)

यह ग्रंथ उस समय के खगोलशास्त्र और गणित की सर्वोच्च कृति मानी जाती है, जो आज भी शोधकर्ताओं को चौंका देती है!

भास्कराचार्य द्वारा रचित लीलावती केवल एक गणितीय ग्रंथ ही नहीं, बल्कि गणित को सरल, सुंदर और रोचक बनाने का प्रयास है। इसमें अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित और अनुपात जैसे विषयों को कवितामय शैली में समझाया गया है। कहा जाता है कि इस ग्रंथ का नाम उनकी पुत्री लीलावती के नाम पर रखा गया, ताकि वह भी गणित में रुचि ले सके।

आचार्य कणाद

कणाद परमाणु की अवधारणा के जनक माने जाते हैं। आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी जॉन डाल्टन के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि द्रव्य के परमाणु होते हैं। उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ।

आचार्य कणाद द्वारा रचित वैशेषिक सूत्र भारतीय दर्शन और भौतिकी का प्राचीन ग्रंथ है, जिसमें उन्होंने सबसे पहले परमाणु (Atom) की संकल्पना दी।

🔹 उन्होंने कहा कि संपूर्ण ब्रह्मांड अणुओं (Atoms) से मिलकर बना है, जो अविनाशी होते हैं।
🔹 परमाणु स्थायी होते हैं लेकिन उनके संयोजन से विभिन्न पदार्थ बनते हैं।
🔹 पदार्थ की भौतिक और रासायनिक विशेषताएँ परमाणुओं की भिन्न-भिन्न संरचनाओं पर निर्भर करती हैं।

यह विचार आधुनिक परमाणु सिद्धांत (Atomic Theory) से काफी मिलता-जुलता है, जिसे हजारों वर्ष बाद पश्चिमी वैज्ञानिकों ने खोजा। आचार्य कणाद के इस ज्ञान ने न केवल दर्शन बल्कि भौतिकी, रसायन और आधुनिक विज्ञान को भी प्रभावित किया।

विश्वामित्र

ऋषि बनने से पहले विश्वामित्र क्षत्रिय थे।ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को पाने के लिए हुए युद्ध में मिली हार के बाद तपस्वी हो गए। विश्वामित्र ने भगवान शिव से अस्त्र विद्या पाई। इसी कड़ी में माना जाता है कि आज के युग में प्रचलित प्रक्षेपास्त्र या मिसाइल प्रणाली हजारों साल पहले विश्वामित्र ने ही खोजी थी। ऋषि विश्वामित्र ही ब्रह्म गायत्री मंत्र के दृष्टा माने जाते हैं। विश्वामित्र का अप्सरा मेनका पर मोहित होकर तपस्या भंग करना भी प्रसिद्ध है। शरीर सहित त्रिशंकु को स्वर्ग भेजने का चमत्कार भी विश्वामित्र ने तपोबल से कर दिखाया।

ॐ भूर्भुवः स्वः।
तत्सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥

गायत्री मंत्र ऋग्वेद (मंडल 3, सूक्त 62, मंत्र 10) में संकलित है और इसे महर्षि विश्वामित्र ने प्रतिपादित किया। यह मंत्र सूर्य देव (सविता) की उपासना का है, जिसमें उनकी दिव्य शक्ति से प्रबुद्ध होने और सत्य की ओर अग्रसर होने की प्रार्थना की गई है।

🔹 गायत्री मंत्र को ‘महामंत्र’ कहा जाता है, क्योंकि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा, बुद्धि और चेतना को जागृत करता है।
🔹 यह मंत्र तीनों लोकों (भूः, भुवः, स्वः) की शुद्ध चेतना का प्रतिनिधित्व करता है।
🔹 इसे उच्चारित करने से मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है।

महर्षि विश्वामित्र केवल एक ऋषि ही नहीं, बल्कि ऋग्वेद के अनेक सूक्तों के रचनाकार थे। उन्होंने दशराज्ञ युद्ध का वर्णन भी किया, जो वैदिक काल का एक महत्वपूर्ण युद्ध था। उनकी विद्वता और तपस्या इतनी महान थी कि उन्होंने क्षत्रिय होते हुए भी ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया, जो अत्यंत दुर्लभ था। उनकी ही कृपा से राजा हरिश्चंद्र ने सत्य और धर्म के मार्ग पर अडिग रहकर इतिहास रचा। गायत्री मंत्र और ऋग्वैदिक ऋचाओं के माध्यम से महर्षि विश्वामित्र ने ज्ञान और आध्यात्म का प्रकाश संपूर्ण मानवता को प्रदान किया।

दशराज्ञ युद्ध ऋग्वेद (मंडल 7, सूक्त 18, 33, 83, 84) में वर्णित एक ऐतिहासिक संग्राम था, जो भारत के प्राचीन आर्य जनजातियों के बीच हुआ। यह युद्ध सुदास (त्रित्सु वंश के राजा) और दस जनजातियों के गठबंधन के बीच लड़ा गया था। राजा सुदास पहले विश्वामित्र के शिष्य थे, लेकिन बाद में उन्होंने वशिष्ठ को अपना गुरु बना लिया। इससे विश्वामित्र नाराज हो गए और उन्होंने दस जनजातियों को सुदास के विरुद्ध भड़काया। यह युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ।  युद्ध में भाग लेने वाली जनजातियाँ थीं (दस राजा और उनके कबीले): पुरु,यदु,तुर्वश,द्रुह्यु,अनु,पक्त्य,भलानस,शिव,विषाणिन,अलिन

राजा सुदास ने महर्षि वशिष्ठ के मार्गदर्शन में युद्ध जीता। दस जनजातियों की संयुक्त सेना हार गई और उनका संघ विघटित हो गया। इस युद्ध के बाद त्रित्सु वंश (भरत वंश) और अधिक शक्तिशाली हो गया। सुदास की जीत ने आगे चलकर कुरु वंश और महाभारत युग की नींव रखी। यह पहला दर्ज “राजनीतिक गठबंधन युद्ध” था, जिसमें एक राजा के खिलाफ कई जनजातियाँ एकजुट हुईं। इस युद्ध ने वैदिक भारत में राजनीतिक शक्ति संतुलन को बदल दिया। यह दर्शाता है कि वैदिक काल में भी राजनीतिक कूटनीति, गुरु-शिष्य संघर्ष और सैन्य रणनीति अहम थीं। दशराज्ञ युद्ध भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो यह सिद्ध करता है कि प्राचीन आर्यों में भी सत्ता संघर्ष और राजनीतिक चालें होती थीं।

सुदास त्रित्सु वंश के राजा थे, जो बाद में भरत वंश में विकसित हुआ। भरत वंश ही आगे चलकर कुरु वंश की नींव बना, जिससे महाभारत काल का उदय हुआ। दशराज्ञ युद्ध के बाद भरत वंश सबसे प्रभावशाली शक्ति बन गया। भरत के वंशज कुरु कहलाए और इन्होंने हरियाणा-पंजाब क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) में शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। कुरु वंश से ही आगे चलकर कौरव और पांडव उत्पन्न हुए, जिनका संघर्ष महाभारत का केंद्र था।  दशराज्ञ युद्ध के पहले भारत में जनजातीय संघर्ष अधिक थे। सुदास की जीत के बाद राजशाही अधिक संगठित हुई, जिससे आगे चलकर महाजनपदों और वैदिक साम्राज्यों का विकास हुआ।  इस युद्ध से वशिष्ठ और ब्राह्मण गुरु-परंपरा का प्रभाव बढ़ा, जिससे धर्म, राजनीति और युद्धनीति का संतुलन बना।

दशराज्ञ युद्ध सिर्फ एक लड़ाई नहीं थी, बल्कि इसने वैदिक भारत की राजनीतिक दिशा तय की। 

सुदास की जीत ने भरत वंश को मजबूत किया। भरत वंश ने कुरु साम्राज्य की नींव रखी। यही कुरु वंश महाभारत के युग में सबसे शक्तिशाली बनकर उभरा | इसलिए, दशराज्ञ युद्ध और सुदास की विजय को महाभारत युग की पृष्ठभूमि कह सकते हैं

दशराज्ञ युद्ध के बाद राजा सुदास के वंशज भरत ने एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित किया। भरत ने अपने पराक्रम और नीतियों से कई जनजातियों को एकजुट कर “भरत वंश” को खड़ा किया। इस वंश के प्रभाव से पूरे क्षेत्र को “भारतवर्ष” कहा जाने लगा। महाभारत में कहा गया है कि भरत चक्रवर्ती (दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र) ने इस वंश को और भी ऊँचाई पर पहुँचाया। उन्हीं के नाम पर इस भूमि को भारतवर्ष कहा गया।

विष्णु पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि:

“उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः॥”

(अर्थ: जो भूमि हिमालय और समुद्र के बीच स्थित है, उसे भारत कहते हैं और यहां रहने वाले लोग भारतीय हैं।)

भारत का संविधान (अनुच्छेद 1) स्पष्ट रूप से कहता है:

“India, that is Bharat, shall be a Union of States.”

यह दिखाता है कि “भारत” नाम की जड़ें प्राचीन इतिहास से जुड़ी हैं।

भरत वंश और राजा भरत के नाम पर इस भूमि को भारत कहा गया। ऋग्वेद, महाभारत और पुराणों में भारतवर्ष का उल्लेख मिलता है। आज का ‘भारत’ नाम उसी प्राचीन गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है | 

 

भारद्वाज

आधुनिक विज्ञान के मुताबिक राइट बंधुओं ने वायुयान का आविष्कार किया। वहीं हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक कई सदियों पहले ही ऋषि भारद्वाज ने विमानशास्त्र के जरिए वायुयान को गायब करने के असाधारण विचार से लेकर, एक ग्रह से दूसरे ग्रह व एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाने के रहस्य उजागर किए। इस तरह ऋषि भारद्वाज को वायुयान का आविष्कारक भी माना जाता है।
भारद्वाज संहिता – चिकित्सा, ध्यान और ब्रह्मविद्या पर आधारित ग्रंथ: महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित यह ग्रंथ आयुर्वेद, राजनीति, समाजशास्त्र और ब्रह्मविद्या जैसे विषयों पर गहराई से प्रकाश डालता है। इसमें योग, ध्यान और आध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित सूत्र दिए गए हैं। कुछ विद्वान इसे भारद्वाज ऋषि के चिकित्सा ज्ञान से संबंधित ग्रंथ भी मानते हैं।
यंत्र-सर्वस्व (प्राचीन विमान विज्ञान और यंत्रों की विस्तृत जानकारी) : महर्षि भारद्वाज द्वारा लिखित “यंत्र-सर्वस्व” का एक भाग “विमान शास्त्र” कहलाता है। इसमें प्राचीन भारत में विमान (उड़ने वाली मशीनों) के निर्माण, संचालन और ईंधन प्रणाली का उल्लेख मिलता है। यह ग्रंथ “त्रिपुरा विमान”, “शकुन विमान”, “सौन्दर्य विमान” आदि विमानों की संरचना और कार्यप्रणाली का वर्णन करता है। इसमें गुरुत्वाकर्षण, सौर ऊर्जा और एंटी-ग्रेविटी जैसे सिद्धांतों का भी जिक्र मिलता है।

धनुर्वेद (युद्ध और सैन्य शास्त्र पर आधारित ग्रंथ, जो वेदों का उपवेद भी है) : धनुर्वेद को प्राचीन काल का “युद्धशास्त्र” कहा जाता है, जो वेदों का उपवेद है। इसमें धनुष-बाण, अस्त्र-शस्त्र, युद्ध तकनीक और सैन्य रणनीतियों का विस्तार से वर्णन मिलता है।

युद्ध कला के चार प्रमुख अंग बताए गए हैं:

  1. युद्ध के नियम (रणनीति और आचार संहिता)
  2. शस्त्र निर्माण तकनीक
  3. अश्व, रथ, गज, पदाति (चतुरंगिणी सेना)
  4. मंत्र-सिद्ध अस्त्र (जैसे ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र)

रामायण और महाभारत में इसका विस्तृत उपयोग देखने को मिलता है।

 

गर्ग मुनि

गर्ग मुनि नक्षत्रों के खोजकर्ता माने जाते हैं। यानी सितारों की दुनिया के जानकार। ये गर्गमुनि ही थे, जिन्होंने श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के बारे में नक्षत्र विज्ञान के आधार पर जो कुछ भी बताया, वह पूरी तरह सही साबित हुआ।  कौरव-पांडवों के बीच महाभारत युद्ध विनाशक रहा। इसके पीछे वजह यह थी कि युद्ध के पहले पक्ष में तिथि क्षय होने के तेरहवें दिन अमावस थी। इसके दूसरे पक्ष में भी तिथि क्षय थी। पूर्णिमा चौदहवें दिन आ गई और उसी दिन चंद्रग्रहण था। तिथि-नक्षत्रों की यही स्थिति व नतीजे गर्ग मुनिजी ने पहले बता दिए थे।

गर्ग संहिता (ज्योतिष शास्त्र और कृष्ण कथा):गर्ग संहिता एक प्राचीन ग्रंथ है, जिसे महर्षि गर्ग द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ मुख्य रूप से ज्योतिष शास्त्र और कृष्ण कथा के बीच संबंधों को दर्शाता है। इसमें भगवान कृष्ण के जन्म, उनके जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं और ज्योतिष से संबंधित गहरी जानकारी मिलती है। गर्ग संहिता में ज्योतिष शास्त्र के महत्वपूर्ण पहलुओं का उल्लेख किया गया है। इसमें ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव, जन्म कुंडली, और ग्रहों के योग से जुड़ी जानकारी दी गई है। गर्ग संहिता में कुंडली मिलान, ग्रहों की स्थिति, राज योग, दशा-अंतर् दशा के बारे में विश्लेषण किया गया है। यह ग्रंथ बताता है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में ग्रहों की स्थिति कैसे उसकी सफलता और विफलता को प्रभावित करती है।

गर्ग संहिता में भगवान कृष्ण के जीवन के प्रमुख घटनाओं का भी उल्लेख है। इस ग्रंथ में उनके जन्म के समय की विशेष ज्योतिषीय स्थिति, उनके पालन पोषण और उनके जीवन के कुछ महत्वपूर्ण क्षणों का विस्तृत वर्णन किया गया है। गर्ग संहिता में कृष्ण के जन्म से पहले और उनके बाद के समय में जो ज्योतिषीय घटनाएँ घटित हुईं, उनका उल्लेख किया गया है। कृष्ण की बाल लीलाएँ, गोपियों के साथ उनके संवाद, कृष्ण का उपदेश, और महाभारत में कृष्ण का योगदान जैसी कई कथाएँ भी इस ग्रंथ में समाहित हैं।

गर्ग संहिता ज्योतिष और कृष्ण कथा का अद्भुत संगम है। यह न केवल कृष्ण के जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं को प्रस्तुत करता है, बल्कि ज्योतिष के द्वारा जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का मार्ग भी प्रदान करता है। इस ग्रंथ के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान ने न केवल आध्यात्मिक और धार्मिक पहलुओं को महत्व दिया, बल्कि सतर्क और विचारशील जीवन जीने के लिए ज्योतिष का भी उपयोग किया। गर्ग संहिता भारतीय संस्कृति और धर्म के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है, जो आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है।

महर्षि सुश्रुत

ये शल्यचिकित्सा विज्ञान यानी सर्जरी के जनक व दुनिया के पहले शल्यचिकित्सक (सर्जन) माने जाते हैं। वे शल्यकर्म या आपरेशन में दक्ष थे। महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखी गई ‘सुश्रुतसंहिता’ ग्रंथ में शल्य चिकित्सा के बारे में कई अहम ज्ञान विस्तार से बताया है। इनमें सुई, चाकू व चिमटे जैसे तकरीबन 125 से भी ज्यादा शल्यचिकित्सा में जरूरी औजारों के नाम और 300 तरह की शल्यक्रियाओं व उसके पहले की जाने वाली तैयारियों, जैसे उपकरण उबालना आदि के बारे में पूरी जानकारी बताई गई है। जबकि आधुनिक विज्ञान ने शल्य क्रिया की खोज तकरीबन चार सदी पहले ही की है। माना जाता है कि महर्षि सुश्रुत मोतियाबिंद, पथरी, हड्डी टूटना जैसे पीड़ाओं के उपचार के लिए शल्यकर्म यानी आपरेशन करने में माहिर थे। यही नहीं वे त्वचा बदलने की शल्यचिकित्सा भी करते थे।
सुश्रुत संहिता:
सुश्रुत संहिता आयुर्वेद का एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसे महर्षि सुश्रुत द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ आयुर्वेद, शल्य चिकित्सा (सर्जरी) और स्वास्थ्य देखभाल के महत्व को उजागर करता है। इसमें शल्य चिकित्सा के सिद्धांतों और प्राचीन भारत में सर्जिकल तकनीकों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
सुश्रुत संहिता आयुर्वेद के उपचारात्मक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है, जिसमें जीवन की भलाई और संतुलन के लिए शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को एक साथ जोड़ा गया है। इसमें आहार, विहार, वेदना और धर्म के सिद्धांतों पर विशेष ध्यान दिया गया है। आयुर्वेद के पंचतत्त्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के आधार पर शरीर के स्वास्थ्य और विकारों को समझाया गया है। स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए जीवनशैली और आहार की सही आदतों को जरूरी बताया गया है।
सुश्रुत संहिता को “शल्य चिकित्सा का ग्रंथ” कहा जाता है क्योंकि इसमें सर्जरी के विभिन्न पहलुओं का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें शल्य विधियों (सर्जिकल प्रक्रियाएँ), आवश्यक औजारों, शस्त्र चिकित्सा (सर्जिकल उपकरणों) और सर्जरी के दौरान सावधानियों का उल्लेख किया गया है।
सर्जिकल तकनीकों के अंतर्गत अस्थि जोड़ने की तकनीक, घाव भरने की विधियाँ, सुई-धागे का उपयोग, प्लास्टिक सर्जरी (जैसे नाक की सर्जरी), और कटे-फटे अंगों की मरम्मत जैसी प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है।
इसके अलावा, शल्य चिकित्सा के अंतर्गत विभिन्न शारीरिक अंगों के उपचार और सर्जरी से संबंधित गहन अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।

सुश्रुत संहिता में सर्जिकल उपकरणों के उपयोग के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। यह ग्रंथ पहले सर्जरी के बारे में सबसे पुराना ज्ञात स्रोत माना जाता है। प्राचीन भारत में शल्य चिकित्सा अत्यंत उन्नत थी, और यह केवल सर्जन (चिकित्सक) द्वारा ही की जाती थी, जो विशेष प्रशिक्षण और शिक्षा प्राप्त करते थे।सर्जिकल प्रक्रियाओं का अनुसंधान और प्रयोग करने में सुश्रुत ने चिकित्सक समुदाय को समर्पित मार्गदर्शन प्रदान किया।

सुश्रुत संहिता एक आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के लिए प्राचीन भारतीय चिकित्सा ज्ञान का आधार है। इसमें आयुर्वेद और शल्य चिकित्सा दोनों का अनूठा संयोजन किया गया है। इस ग्रंथ से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में चिकित्सा और सर्जरी के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति हो चुकी थी, जो आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को प्रभावित करने वाली नींव बनी। सुश्रुत संहिता न केवल शल्य चिकित्सा के लिए एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, बल्कि यह हमें प्राचीन भारत की चिकित्सकीय समझ और उन्नति को भी समझने में मदद करता है।

आचार्य चरक

‘चरकसंहिता’ जैसा महत्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रंथ रचने वाले आचार्य चरक आयुर्वेद विशेषज्ञ व ‘त्वचा चिकित्सक’ भी बताए गए हैं। आचार्य चरक ने शरीरविज्ञान, गर्भविज्ञान, औषधि विज्ञान के बारे में गहन खोज की। आज के दौर में सबसे ज्यादा होने वाली बीमारियों जैसे डायबिटीज, हृदय रोग व क्षय रोग के निदान व उपचार की जानकारी बरसों पहले ही उजागर कर दी।

चरक संहिता आयुर्वेद का एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसे आचार्य चरक द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ आयुर्वेद के आधिकारिक सिद्धांतों, उपचार विधियों और स्वास्थ्य विज्ञान के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है। चरक संहिता को आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों की नींव में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है।

चरक संहिता में आयुर्वेद के सिद्धांतों का गहराई से वर्णन किया गया है। इसमें जीवन के चार प्रमुख उद्देश्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) और स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आहार, विहार और जीवनशैली के सही मार्गदर्शन का विवरण है। इस ग्रंथ में आयुर्वेद की त्रिदोष सिद्धांत (वात, पित्त, कफ) का वर्णन किया गया है, जो शरीर में विकारों के कारणों और उनके उपचार को समझाने में मदद करता है। चरक संहिता में शरीर के पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के संबंध में स्वास्थ्य के बारे में भी जानकारी दी गई है।

चरक संहिता में रोगों के कारणों, लक्षणों और उनके उपचार पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह ग्रंथ बीमारियों के निदान और स्वास्थ्य सुधार के उपायों की जानकारी प्रदान करता है।  इसमें औषधियों के प्रयोग, पंचकर्म उपचार (शरीर के शुद्धिकरण के उपाय) और हर्बल उपचार के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।  चरक ने दवाओं के निर्माण और उनके प्रभाव पर विश्लेषण किया, और प्राकृतिक उपचार को प्राथमिकता दी।

चरक संहिता में शरीर के विभिन्न अंगों और उनके कार्यों के बीच संतुलन की महत्वपूर्ण भूमिका को बताया गया है।  यह ग्रंथ आहार-विहार, मानसिक स्थिति, और शरीर के विभिन्न द्रव्य (द्रव्य, ऊतक, मल) के संतुलन के द्वारा स्वास्थ्य बनाए रखने की प्रक्रिया पर जोर देता है।  आचार्य चरक ने मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को एक साथ जोड़ते हुए संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों का महत्व बताया।

चरक संहिता में स्वास्थ्य प्रबंधन, रोग की रोकथाम, शरीर के शुद्धिकरण (detoxification) और प्राकृतिक उपचार के बारे में गहरी जानकारी दी गई है।  इसमें जीवन के प्रत्येक चरण के लिए उपचार विधियों का उल्लेख किया गया है, जैसे बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था और मरणकासमय के लिए विशिष्ट उपाय ।  यह ग्रंथ मानव जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए आहार, दिनचर्या, मानसिक संतुलन और सही उपचार विधियों का पालन करने का मार्गदर्शन करता है।

चरक संहिता आयुर्वेद का एक सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को भी महत्व देता है। इस ग्रंथ ने प्राकृतिक चिकित्सा, आधुनिक उपचार विधियाँ, और स्वास्थ्य विज्ञान के सिद्धांतों को एक साथ जोड़कर आयुर्वेद को एक वैज्ञानिक और व्यापक चिकित्सा पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया। चरक संहिता ने स्वास्थ्य के समग्र दृष्टिकोण को व्याख्यायित किया, जो आज भी चिकित्सा पद्धतियों में एक महत्वपूर्ण संदर्भ है। चरक संहिता के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धतियाँ अत्यधिक वैज्ञानिक और जीवन से जुड़े हुए उपचार विधियों को समझने में सक्षम थीं।

 

पतंजलि

आधुनिक दौर में जानलेवा बीमारियों में एक कैंसर या कर्करोग का आज उपचार संभव है। किंतु कई सदियों पहले ही ऋषि पतंजलि ने कैंसर को भी रोकने वाला योगशास्त्र रचकर बताया कि योग से कैंसर का भी उपचार संभव है।
योग सूत्र आचार्य पतंजलि द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे योग दर्शन भी कहा जाता है। यह ग्रंथ योग के सिद्धांतों और अभ्यासों का विस्तृत मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है और मानव जीवन में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य को साधने के लिए योग के महत्व को समझाता है। योग सूत्र में आठ अंगों वाले योग (अष्टांग योग) का विस्तृत वर्णन किया गया है, जिनके माध्यम से व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति और स्वयं के नियंत्रण को प्राप्त कर सकता है।

योग के आठ अंग (अष्टांग योग)

  1. यम (सद्गुणों का पालन, जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह)
  2. नियम (स्वच्छता, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान)
  3. आसन (सही शारीरिक मुद्रा)
  4. प्राणायाम (श्वसन नियंत्रण)
  5. प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण)
  6. धारणा (ध्यान की स्थिरता)
  7. ध्यान (चिंतन की गहरी अवस्था)
  8. समाधि (पूर्ण ध्यान, आत्मा की शांति की अवस्था)

योग सूत्र में इन आठ अंगों के माध्यम से योग साधना के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट किया गया है, जो मन और शरीर के संपूर्ण संतुलन को स्थापित करने में मदद करते हैं।

योग का मुख्य उद्देश्य मानसिक शांति, आत्म-ज्ञान और अंतर्निहित ईश्वरता का अनुभव है।  यह समाधि की अवस्था में पहुँचने का मार्गदर्शन करता है, जहां व्यक्ति अपने स्वयं के अस्तित्व से एकाकार हो जाता है।  योग सूत्र में कषाय (दोष) और चित्त विकार (मानसिक अव्यवस्था) को नियंत्रित करने के उपाय दिए गए हैं, जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक शुद्धि और समान्य जीवन जीने के योग्य हो जाता है।
योग सूत्र 195 सूत्रों (श्लोकों) में बंटा हुआ है, जो संक्षिप्त और गहरे अर्थ वाले होते हैं। इन सूत्रों में योग के सिद्धांतों और अभ्यासों का संक्षिप्त लेकिन प्रभावी वर्णन किया गया है।  प्रत्येक सूत्र एक विशेष ध्यान केंद्रित करता है, जो सिद्धांतों से जुड़ी दार्शनिक सोच को साधक के भीतर प्रकट करता है।
योग सूत्र एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो योग को जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाने के लिए दिशा प्रदान करता है।  इसमें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक साधना के सभी पहलुओं का समावेश किया गया है, जो व्यक्ति को स्वयं के भीतर के शांति और समृद्धि की ओर ले जाता है।  यह केवल शारीरिक अभ्यास तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन के समग्र दृष्टिकोण को सुधारने और आत्मा की गहरी समझ को प्राप्त करने का मार्गदर्शन प्रदान करता है।
महाभाष्य (व्याकरण पर पाणिनि का भाष्य) : पाणिनि ने व्याकरण के मूल सूत्र दिए, जबकि पतंजलि ने इन सूत्रों की विस्तृत व्याख्या की, जिसे महाभाष्य कहा जाता है।
महाभाष्य पाणिनि के व्याकरण के “अष्टाध्यायी” ग्रंथ पर पतंजलि का भाष्य (commentary) है। पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण की संरचना को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया था, और महाभाष्य ने उस पर व्याख्या दी है, जिससे पाणिनि के सूत्रों को सरलता से समझा जा सकेमहाभाष्य (व्याकरण पर पाणिनि का भाष्य) में पतंजलि का व्याख्यान है, जो पाणिनि के अष्टाध्यायी (संस्कृत व्याकरण के प्रमुख ग्रंथ) पर आधारित है। पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के नियमों को व्यवस्थित रूप से सूत्रों में प्रस्तुत किया था, जिसे अष्टाध्यायी कहा जाता है। इसमें 3959 सूत्र होते हैं, जो संस्कृत भाषा के सभी व्याकरणिक नियमों का संक्षिप्त रूप में वर्णन करते हैं। पतंजलि ने इन सूत्रों पर महाभाष्य (जो पाणिनि के अष्टाध्यायी पर एक विस्तार से टिप्पणी है) लिखा। महाभाष्य में पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या की है, जिससे उनके संक्षिप्त और गहरे अर्थों को आसानी से समझा जा सके। महाभाष्य में पतंजलि ने पाणिनि के व्याकरणिक नियमों की स्पष्टता और व्यावहारिकता को उजागर किया।

महाभाष्य ने पाणिनि के व्याकरणिक नियमों की स्पष्टता और सटीकता को और अधिक बढ़ाया। इसमें संस्कृत के शब्द निर्माण, वर्णों की ध्वनियां, वर्तनी और संधि आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। महाभाष्य के माध्यम से पाणिनि के सूत्रों के बारे में विवेचना और व्याख्या की गई है, जो संस्कृत व्याकरण को समझने में मदद करती है।

महाभाष्य संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो आज भी संस्कृत भाषा के अध्ययन और व्याकरणिक शोध में उपयोग होता है।  यह ग्रंथ केवल पाणिनि के व्याकरण को ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शन, वेदांत, और संस्कृत साहित्य के अध्ययन में भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

महाभाष्य एक व्याकरणिक ग्रंथ है जो पाणिनि के सूत्रों का विस्तार से विश्लेषण करता है। यह न केवल संस्कृत भाषा के उपयोग में मदद करता है, बल्कि भारतीय दर्शन और साहित्य की गहरी समझ को भी प्रकट करता है।

 

बौद्धयन

भारतीय त्रिकोणमितिज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। कई सदियों पहले ही तरह-तरह के आकार-प्रकार की यज्ञवेदियां बनाने की त्रिकोणमितिय रचना-पद्धति बौद्धयन ने खोजी। दो समकोण समभुज चौकोर के क्षेत्रफलों का योग करने पर जो संख्या आएगी, उतने क्षेत्रफल का ‘समकोण’ समभुज चौकोन बनाना और उस आकृति का उसके क्षेत्रफल के समान के वृत्त में बदलना, इस तरह के कई मुश्किल सवालों का जवाब बौद्धयन ने आसान बनाया।

महर्षि दधीचि

महातपोबलि और शिव भक्त ऋषि थे। संसार के लिए कल्याण व त्याग की भावना रख वृत्तासुर का नाश करने के लिए अपनी अस्थियों का दान कर महर्षि दधीचि पूजनीय व स्मरणीय हैं। इस संबंध में पौराणिक कथा है कि एक बार देवराज इंद्र की सभा में देवगुरु बृहस्पति आए। अहंकार से चूर इंद्र गुरु बृहस्पति के सम्मान में उठकर खड़े नहीं हुए। बृहस्पति ने इसे अपना अपमान समझा और देवताओं को छोड़कर चले गए। देवताओं को विश्वरूप को अपना गुरु बनाकर काम चलाना पड़ा, किंतु विश्वरूप देवताओं से छिपाकर असुरों को भी यज्ञ-भाग दे देता था। इंद्र ने उस पर आवेशित होकर उसका सिर काट दिया।
विश्वरूप, त्वष्टा ऋषि का पुत्र था। उन्होंने क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए महाबली वृत्रासुर पैदा किया। वृत्रासुर के भय से इंद्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ इधर-उधर भटकने लगे। ब्रह्मादेव ने वृत्तासुर को मारने के लिए अस्थियों का वज्र बनाने का उपाय बताकर देवराज इंद्र को तपोबली महर्षि दधीचि के पास उनकी हड्डियां मांगने के लिये भेजा। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना करते हुए तीनों लोकों की भलाई के लिए उनकी अस्थियां दान में मांगी। महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिए अपना शरीर दान कर दिया। महर्षि दधीचि की हड्डियों से वज्र बना और वृत्रासुर मारा गया। इस तरह एक महान ऋषि के अतुलनीय त्याग से देवराज इंद्र बचे और तीनों लोक सुखी हो गए।

महर्षि अगस्त्य

वैदिक मान्यता के मुताबिक मित्र और वरुण देवताओं का दिव्य तेज यज्ञ कलश में मिलने से उसी कलश के बीच से तेजस्वी महर्षि अगस्त्य प्रकट हुए। महर्षि अगस्त्य घोर तपस्वी ऋषि थे। उनके तपोबल से जुड़ी पौराणिक कथा है कि एक बार जब समुद्री राक्षसों से प्रताड़ित होकर देवता महर्षि अगस्त्य के पास सहायता के लिए पहुंचे तो महर्षि ने देवताओं के दुःख को दूर करने के लिए समुद्र का सारा जल पी लिया। इससे सारे राक्षसों का अंत हुआ।

कपिल मुनि

भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक अवतार माने जाते हैं। इनके पिता कर्दम ऋषि थे। इनकी माता देवहूती ने विष्णु के समान पुत्र की चाहत की। इसलिए भगवान विष्णु खुद उनके गर्भ से पैदा हुए। कपिल मुनि ‘सांख्य दर्शन’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इससे जुड़ा प्रसंग है कि जब उनके पिता कर्दम संन्यासी बन जंगल में जाने लगे तो देवहूती ने खुद अकेले रह जाने की स्थिति पर दुःख जताया। इस पर ऋषि कर्दम देवहूती को इस बारे में पुत्र से ज्ञान मिलने की बात कही। वक्त आने पर कपिल मुनि ने जो ज्ञान माता को दिया, वही ‘सांख्य दर्शन’ कहलाता है। इसी तरह पावन गंगा के स्वर्ग से धरती पर उतरने के पीछे भी कपिल मुनि का शाप भी संसार के लिए कल्याणकारी बना। इससे जुड़ा प्रसंग है कि भगवान राम के पूर्वज राजा सगर के द्वारा किए गए यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के करीब छोड़ दिया। तब घोड़े को खोजते हुआ वहां पहुंचे राजा सगर के साठ हजार पुत्रों ने कपिल मुनि पर चोरी का आरोप लगाया। इससे कुपित होकर मुनि ने राजा सगर के सभी पुत्रों को शाप देकर भस्म कर दिया। बाद के कालों में राजा सगर के वंशज भगीरथ ने घोर तपस्या कर स्वर्ग से गंगा को जमीन पर उतारा और पूर्वजों को शापमुक्त किया।

शौनक ऋषि

वैदिक आचार्य और ऋषि शौनक ने गुरु-शिष्य परंपरा व संस्कारों को इतना फैलाया कि उन्हें दस हजार शिष्यों वाले गुरुकुल का कुलपति होने का गौरव मिला। शिष्यों की यह तादाद कई आधुनिक विश्वविद्यालयों की तुलना में भी कहीं ज्यादा थी।

ऋषि वशिष्ठ

वशिष्ठ ऋषि राजा दशरथ के कुलगुरु थे। दशरथ के चारों पुत्रों राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने इनसे ही शिक्षा पाई। देवप्राणी व मनचाहा वर देने वाली कामधेनु गाय वशिष्ठ ऋषि के पास ही थी।

कण्व ऋषि

प्राचीन ऋषियों-मुनियों में कण्व का नाम प्रमुख है। इनके आश्रम में ही राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला और उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था। माना जाता है कि उसके नाम पर देश का नाम भारत हुआ। सोमयज्ञ परंपरा भी कण्व की देन मानी जाती है।
विश्व में जितनी भी खोजे हुई हैं वो हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान की गहराई में जाकर खोजी हैं जिनकी आज के वैज्ञानिक कल्पना भी नही कर सकते हैं। आज ऋषि-मुनियों की परम्परा अनुसार साधु-संत चला रहे हैं । उनको राष्ट्र विरोधी तत्वों द्वारा षडयंत्र के तहत बदनाम किया जा रहा है और जेल भिजवाया जा रहा है । अतः देशवासी षडयंत्र को समझें और उसका विरोध करें ।

क्या आप इस पोस्ट को रेटिंग दे सकते हैं?

इसे रेट करने के लिए किसी स्टार पर क्लिक करें!

औसत श्रेणी 0 / 5. वोटों की संख्या: 0

अब तक कोई वोट नहीं! इस पोस्ट को रेट करने वाले पहले व्यक्ति बनें।

Leave a Comment