मानव समाज का विकास
अब हम प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा मे वर्णित मनुष्य *समाज के विकास* की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं।
ज्ञातव्य रहे कि इस सम्बन्ध में पाश्चात्य और प्राच्य (प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा) अवधारणाएं एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। अतः वर्तमान समय में पाश्चात्य जगत में प्रचलित समाज के विकास की अवधारणा पल संक्षिप्त चर्चा कर लेते हैं ।
मानव विकास की *पाश्चात्य अवधारणा*
पाश्चात्य अवधारणा अट्ठारहवीं सदी के मानव विज्ञानी चार्ल्स डार्विन के *क्रमिक विकास की अवधारणा* पर आधारित हैं।
12/02/1809 में इंग्लेंड में जन्मे और *चार्ल्स डार्विन* एक प्रकृतिवादी, भूवैज्ञानिक और जीव विज्ञानी था जिसमें आधुनिक विज्ञान को *क्रमिक विकास* की अवधारणा दी।
उसके अनुसार सभी प्राणियों का *आदि पूर्वज* एक ही था। इस एक ही पूर्वज से सभी प्राणियों का क्रमिक विकास हुआ।
प्राणियों के इस क्रमिक विकास में अपने अपने *अस्तित्व के संघर्ष* के
लिये उन्होने *survival of fittest* की अवधारणा दी। इस अवधारणा के अनुसार प्राणियों के शरीर में वातावरण के अनुकूलन हेतु क्रमिक रूप से परिवर्तन और परिवर्धन हुए जो एक पीढी से दूसरी पीढी में ट्रान्सफर हुए। इन क्रमिक परिवर्तनों से ही प्राणी अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखने में सफल हुए। जो प्राणी वातावरण के अनुकूलन हेतु परिवर्तन नहीं कर पाये वे अपने अस्तित्व को सुरक्षित नहीं कर पाये और कालान्तर में विलुप्त हो गये। क्रमिक विकास की अपनी इस अवधारणा के आधार पर उन्होने मनुष्य की उत्पत्ति वानर से बताई।
क्रमिक विकास की इसी अवधारणा के आधार पर उसने आदि मानव को *अविकसित* बताते हुए उसके धीरे धीरे क्रमिक रूप से विकसित होते हुए आधुनिक *होमोसेपियन्स* के रूप में विकसित होने की परिकल्पना की। यहां यह स्मरण रखना आवश्यक होगा कि चार्ल्स डार्विन उन्नीसवीं सदी के उस *कालखण्ड* में पैदा हुआ था जिसमें *इंग्लैंड का प्रभुत्व सम्पूर्ण विश्व पर व्याप्त* था।
*ब्रिटिश शासन न केवल राजनैतिक वरन् धार्मिक रूप से भी अपने इस प्रभुत्व का विस्तार करना चाहता था*।
*ईसाई मिशनरियों के दवाब* से तत्कालीन *इंग्लैंड की सरकार ने *ऐसी नीतियों का निर्माण* कर उन्हे अपने उपनिवेश के रूप में शासित देशों पर लागू किया जिससे *धर्मान्तरण को बल* मिले। भारत उसका सबसे बड़ा उपनिवेश था और इसके अधिकांश निवासी हिन्दू ( सनातनी, जैन, सिख मतावलम्बी) थे अतः उनके *धर्म के विस्तार के लिए यह एक उर्वरक भूमि* थी।
अपने इस उद्देश्य की पूर्ती के लिये तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने *सन् 1835 में मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षानीति* को लागू किया।
इसमें हमारे देश की *स्वदेशी गुरूकुल आधारित शिक्षा प्रणाली को हतोत्साहित* कर *अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा को अनिवार्य* कर दिया गया।
यह भी ज्ञातव्य रहे कि अन्य *सभी अंग्रेजों / बड़े अंग्रेज अधिकारियों / विद्वानों की तरह उसके मन में भी पूरे विश्व में ईसाईयत के प्रचार-प्रसार का भाव* था।
चूंकि *गुरुकुल पद्धति* पर आधारित तत्कालीन भारतीय शिक्षा पद्धति भारतवर्ष में ईसाई मिशनरियों के *धर्मान्तरण के लिये सबसे बड़ी बाधा* बनी हुई थी अतः उसके मन में *भारतीयों और भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रति घृणा और तिरस्कार का भाव* भी था।
इसी भाव भूमि में उसने इस नयी शिक्षा पद्धति को अपने विवरण/ घोषणापत्र के रूप में तत्कालीन ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत कर इसे नीति के रूप में मान्यता दिलाई और इसे भारत में लागू करवाया।
इस शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य *भूरी / काली चमड़ी के अन्दर गौरे दिमाग का विकास करना* अर्थात कुछ ऐसे भारतीय लोगों का समूह विकसित करना था जो *शरीर से तो भारतीय हो किन्तु विचारों से अंग्रेज* हो।
इसका उद्देश्य इन्ही भारतीयों के माध्यम से अपने शासन-प्रशासन को मजबूत करना था जिससे उनका साम्राज्य चिरकाल तक स्थायी रहे।
इस पृष्ठभूमि में ब्रिटिश शासन का विश्व की सामाजिक, शैक्षणिक, दार्शनिक, और वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रभाव का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
*विश्व के समस्त सामाजिक शैक्षणिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक अनुसंधान ब्रिटिश अथवा ब्रिटिश समर्थित अवधारणाओं के इर्द-गिर्द ही घूमते थे*
भय और लोभवश बहुत से भारतीय विद्वानों ने ही स्वदेशी धर्मग्रन्थों की ब्रिटिश हितों के अनुकूल व्याख्या की। *मैक्समूलर* जैसे तथाकथित संस्कृत विद्वानों ने, जिन्हे भारत और उसकी प्राचीन विरासत के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी और जो कभी भारत आये ही नहीं थे, उन्होने भी भारतीय धर्मग्रंथों की व्याख्या इन धर्म ग्रन्थों के भावों के विपरीत और अपने employer अंग्रेजों के मत मुताबिक की।
ऐसी ही गलत व्याख्याएं वहां के बड़े विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों का भाग बनीं। ऐसी गलत शिक्षा वहां पर उच्च शिक्षा प्राप्त करने गये भारतीय और अन्य विद्यार्थियों को दी गई। इससे इन विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क में भारतीय ज्ञान के प्रति वितृष्णा का भाव भर दिया गया जिसने कालान्तर में समाज में भारतीय धर्म और धर्मग्रन्थों के प्रति श्रद्धा के भाव को न्यून कर दिया।
*किन्तु दयानन्द सरस्वती, बाल गंगाधर तिलक, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द जैसे जैसे कुछ बिरले विद्वान भी इस धरा पर अवतरित हुए जिन्होने समाज में भारतीय धर्म और धर्मग्रंथों की श्रद्धा को पुनर्स्थापित किया।*
इसी क्रम में प्रसिद्ध आर्य समाजी और विद्वान पण्डित भगवद्दत्त शर्मा ने अपने शोधग्रन्थ में पाश्चात्य विचारों का सप्रमाण खण्ड़न किया है
*चार्ल्स डार्विन के क्रमिक विकास मत की आलोचना*
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1। चार्ल्स डार्विन का यह मत पाश्चात्य विद्वानों को बड़ा रूचिकर लगा और उन्होने इसे अपनी अवधारणाओं में प्रतिस्थापित करते हुए तद्नुसार अपने वैज्ञानिक अनुसंधान किये और इसी मत को कसौटी मानते हुए अपने अपने निष्कर्ष निकाले।
हमें भी व्यवहार में यह मत लागू होता जान पड़ता है क्योंकि मनुष्य के रूप में हम भी वातावरण के अनुरूप अपने व्यवहार को परिवर्तित और परिवर्धित करते हैं।
व्यवहार में यह परिवर्तन अन्य प्राणियों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। किन्तु व्यवहार का यह परिवर्तन किसी भी रूप में शारीरिक परिवर्तन भी लाता है यह अभी तक बहुत ही अस्पष्ट है।
अगर क्रमिक विकास की यह अवधारणा सही है तो लाखों वर्षों पूर्व के बन्दर अभी तक भी बन्दर ही क्यों हैं ?
इस अवधारणा के अनुसार तो उन्हे भी अब तक मनुष्य बन जाना चाहिये।
तर्क शास्त्र में किसी अवधारणा का अनुमान लगाने के लिये अनुमान प्रमाण का सहारा लिया जाया है जिसमें अनुमान को सिद्ध करने के लिये किसी *हेतु* की आवश्यकता होती है जो इस मत में कहीं है ही नहीं।
केवल शारिरिक साम्यता से यह *अनुमान* कर लिया गया जिसे सिद्ध करने के लिये आवश्यक किसी *हेतु का अभाव* इस मत को असिद्ध करने के लिये पर्याप्त है।
हां, यह सम्भव है कि वातावरण के अनुकूलन के लिये उसके कुछ अंग अतिरिक्त रूप से विकसित हो जायें अथवा कुछ अंग अविकसित रहते हुए विलुप्त भी हो जायें। जैसे कि घने जंगलों में रहने वाले लाल मुंह के बन्दरों की पूंछ कुछ लम्बी हो जाती है तो वहीं कुछ लाल बन्दरों की पूंछ छोटी ही रहती है।
किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि शरीर के अंगों में किंचित विकास से उसका अन्य जाति के प्राणियों में विकास (रूपान्तरण) हो जाता है।
2। जैसा कि पूर्व कडी में चर्चा की जा चुकी है कि केवल शारीरिक साम्यता से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि यह क्रमिक विकास का परिणाम है।
क्योंकि *प्राणियों की एक जाति प्रजनन से अपनी ही जाति उत्पन्न* करती है।
जैसे गाय और अश्व के प्रजनन से कोई नयी जाति का जीव नहीं उत्पन्न हो सकता।
गौ जाति के नर से प्रजनन करके गाय केवल गाय और अश्व अपनी ही जाति के नर से प्रजनन कर अश्व उत्पन्न कर सकता है।
यहां तक कि प्रजनन की आधुनिकतम तकनीक कृत्रिम गर्भाधान में भी उसी जाति के *सीमन* का उपयोग किया जाता है जिस जाति के पशु में कृत्रिम गर्भाधान किया जाना है।
गुण सूत्र के सिद्धांत के आधार पर आधुनिक जीव विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है।
इस प्रकार भारतीय ज्ञान परम्परा में डार्विन का क्रमिक विकास का यह मत स्वीकार्य नहीं है।
इसी प्रकार मनुष्य के सामाजिक विकास में भी पाश्चात्य अवधारणा है कि
@ आदि मानव अविकसित था, सामिष भोजी था –
@@ छोटे छोटे जानवरों के शिकार के लिये उसने पहले पत्थरों के औजारों का निर्माण किया
@@@ फिर लोहे के औजारों और फिर विकसित होकर उसने ताम्बे के औजारों का निर्माण किया।
इसी आधार पर पाश्चात्य विद्वानों ने मनुष्य के सामाजिक विकास में पहले प्रस्तर युग, फिर लोह युग और फिर ताम्र युग का आरम्भ हुआ।
पण्डित भगवद्दत्त शर्मा ने उक्त पाश्चात्य अवधारणा का भी भारतीय वाङमय के आधार पर सप्रमाण खण्डन करते हुए बताया कि कालान्तर में *मानव समाज का विकास* नहीं वरन् ह्रास हुआ है।
अगली कड़ी में हम *युग* की भारतीय अवधारणा और इन युगों में मनुष्य के नैतिक व्यवहार में क्रमिक ह्रास पर चर्चा करेंगे।