पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म एवं मोक्ष

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चौथे अध्याय के श्र्लोक 9 से 14 में उपदेशित *कर्म सिद्धांत* और पुनर्जन्म एवं मोक्ष के सम्बन्ध में इन श्र्लोकों के भाव को समझने का प्रयास किया था।
13 वें श्र्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि गुण-कर्म विभाग के अनुसार ही मैने चतुर्वर्णमयी सृष्टि बनाई थी।
*चतुर्वण्यं मया सृष्टि गुण-कर्म विभागश:*।
इस सम्बन्ध में हमारे एक साथी और सुधी पाठक ने इसे  केवल *चतुर्वर्ण*
इस चतुर्वर्ण सृष्टि और *एकांगी भाव* से शब्दार्थ करते हुए चतुर्वर्ण के  शूद्र वर्ण को वर्तमान दलित राजनीति के *दलित* शब्द से जोड़ते हुए इसे विघटनकारी होने का संदेह प्रकट़ किया।
इस सम्बन्ध में विचार करते समय हमें आदिकाल में मनुष्य के सामाजिक विकास क्रम (social evolution of mankind) को समझना होगा।
इस के लिये अभी हम *मनुष्य के सामाजिक विकास* की पाश्चात्य और प्राच्य ( प्राचीन भारतीय) अवधारणा पर विचार करते हैं।
*पाश्चात्य अवधारणा*
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इस सम्बन्ध मे  पाश्चात्य जगत में उन्नीसवीं सदी (सन् 1871 में) प्रकाशित इंग्लैण्ड के चार्ल्स डार्विन की पुस्तक The Descent of Man के आधार पर *डार्विन के क्रमिक विकास* को आधार माना जाता है।
किन्तु भारतीय विकास सिद्धांत का मत इसके बिल्कुल विपरीत है।
अतः मनुष्य के सामाजिक विकास से पूर्व मनुष्य के प्राणी रूप में विकास की पाश्चात्य समाज में प्रचलित तथाकथित वैज्ञानिक अवधारणा पर संक्षेप में विचार कर लेना उचित होगा।
*डार्विन की कर्मिक विकास की अवधारणा*
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इस अवधारणा के मुख्य तत्व इस प्रकार हैं :-
1। सभी जीवित इकाईयों ( जीव, जन्तु, वनस्पति पेड़ पोधे) के पूर्वज एक हैं अतः सभी जीवित इकाईयां चाहे वह वह पक्षी हो अथवा केला, मछली हो अथवा फूल, सब एक दूसरे से सम्बन्धित हैं।
2। जीवन का विकास प्राकृतिक रूप से जड़ तत्व से हुआ है।
3। जटिल जीवों का विकास सरल जीवों से हुआ है। विकास क्रम में परिस्थतियों से तारतम्य बैठाने के क्रम में सरल जीवों की कोशिकाओं में आनुवांशिक (जेनेटिक) म्यूटेशन (परिवर्तन) हुआ। कालान्तर मे जीवों मे अस्तित्व की रक्षा के लिये ये आनुवांशिक परिवर्तन ( जेनेटिक म्यूटेशन) अगली पीढियों में ट्रान्सफर होते गये। इस प्रकार आनुवांशिक परिवर्तनों के स्थायी हो जाने के परिणामस्वरूप एक भिन्न जीव की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार काल की लम्बी अवधि में सरल जीवों (एक कोशीय जीवों) से  विभिन्न जटिल (बहुकोशीय) जीवों की उत्पत्ति हुई।
स्रोत : researchgate.net : a Darwin theory of evolution)
*मनुष्य के विकास की प्राचीन भारतीय  अवधारणा*
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प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में (धार्मिक रूप में) यह माना गया है की *प्रलय* के समय समस्त *भौतिक सृष्टि का तो नाश* हो गया था किन्तु *सूक्ष्म रूप से यह ब्रह्माण्ड में विद्यमान* थी।
अर्थात समस्त *सृष्टि बीज रूप में ब्रह्माण्ड में विद्यमान* थी।
सृष्टिकाल में इन्ही बीजों से उनका स्थूल रूप बना और सृष्टि का निर्माण हुआ।
अर्थात प्रलय काल के समय पृथ्वी पर उपस्थित विभिन्न जीव और वनस्पतियों के बीजों  से ही वर्तमान सृष्टि के विभिन्न जीवों और वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई।
वर्तमान समय के भूविज्ञान (geology) विषय में  जीवन की उत्पत्ति के विषय में जो वैज्ञानिक रूप से मान्य अवधारणा है उसके अनुसार पृथ्वी की आयु 4.54 अरब वर्ष है और पृथ्वी पर बायोजेनिक पदार्थ के अवशेष  3.70 अरब वर्ष पूर्व पश्चिम ग्रीनलैंड में और 4.1अरब वर्ष पूर्व पश्चिम आस्ट्रेलिया में पाये गये हैं।
शोधकर्ताओं के एक वर्ग के अनुसार अगर पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद इतनी जल्दी पृथ्वी पर जीवन के अवशेषों की उपस्थिति दर्शाती है कि ब्रह्माण्ड में अन्यन्त्र भी *जीवन* सामान्य रूप से विद्यमान था।
स्रोत : विकिपीडिया : (जीवन की उत्पत्ति) अजीवात् जीवोत्पत्ति एवं  क्रम विकास ।
शोधकर्ताओं के उक्त अनुमान से इस सम्बन्ध में प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा के ही विचारों की प्रतिध्वनि निकलती प्रतीत होती है।
जीवन का यह सूक्ष्मरूप कैसा था ? क्या जीवन के आधारभूत तत्व प्रलय मे भौतिक सृष्टि के विनाश के साथ ब्रह्माण्ड में स्थान्तरित हो गये थे ?
क्या यही सूक्ष्म तत्व सृष्टि के सृजन के कालखण्ड में अनुकूल परिस्थितियां पाकर पुनः पृथ्वी पर आ गये थे और इनसे ही जीव सृष्टि का निर्माण हुआ ?
इन विषयों पर प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण पर गहन अनुसंधान की आवश्यकता है।
*डार्विन के क्रमिक विकास मत के विरोध में तर्क*
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*पण्डित भगवद्दत्त शर्मा* ने अपने शोधग्रन्थ *भारतवर्ष का वृहद इतिहास* में इस मत पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि :
1। यूरोप के यहूदी और ईसाई विद्वानों के पास संसार का सत्य पुरातन इतिहास सुरक्षित नहीं था ।
2। ये लोग योग विद्या से भी शून्य थे।
3। (प्राचीन ज्ञान और इतिहास का आधार न होने के कारण) इन लोगों मे *नई बातों मे अन्धाधुन्ध रूचि* हो जाती है। जैसे कार्यालयों में काम करने वाली कुछ कुमारियों ने अपने  सिर के बाल कटा लिये तो यह प्रवृत्ति अन्य स्त्रियों में भी फैल गयी। यही हाल सिगरेट पीने के विषय में हुआ।
इसी प्रकार नूतनता का पुट लिया डार्विन का यह सिद्धांत धीरे धीरे पहले यूरोप में  फिर अमेरिका में सर्वव्यापी हो गया।
*भारत पर इसका प्रभाव*
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संसार की सब बाते इसी विकास मत के प्रकाश में देखी जाने लगी।
भारत में भी *अंग्रेजी राज और शिक्षा* के विस्तार के कारण आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा में शिक्षित लोगों पर इस मत का तीव्र प्रभाव पड़ा।
सभी प्राचीन विद्या और सिद्धांत,जो इस विकास मत को  प्रमाणित किये जाने में बाधक थे, असत्य ठहराये जाने लगे। इससे भारत के समस्त प्राचीन ज्ञान और कपोल कल्पना और मिथ कह कर इसकी न केवल उपेक्षा की गई वरन् इसे असत्य ठहराये जाने के प्रयास भी किये जाने लगे।
*डार्विन का  विकासमत और इसकी नवीन अवधारणाएं*
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डार्विन के विकासमत मत को माना लेने पर मनुष्य के ज्ञान की  क्रमिक उन्नति मानी गई और यह माना गया कि *मनुष्य पहले अज्ञानी था*, पत्थर के औजारों से अपना काम चलाता था, फिर उसने धातु का आविष्कार किया और फिर उत्तरोत्तर उन्नति करता गया।
इस प्रकार उन्होने प्रस्तर युग, धातु युग और पुरातनकाल का इतिहास जो उनकी संस्कृति में उपलब्ध ही नहीं था, को प्रागैतिहासिक काल का नाम देकर उसकी एक कल्पना  अवधारणा गठित कर ली।
 प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में मनुष्य के उद्भव से लेकर अब तक का इतिहास हमारे धर्म ग्रंथों में सुरक्षित है।
अतः प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा में प्रागैतिहासिक काल जैसा कोई काल नहीं है
किन्तु यह *प्राचीन भारतीय ज्ञान उनकी काल्पनिक अवधारणा के सांचे में फिट नहीं होता अतः पाश्चात्य जगत के इन तथाकथित विद्वानों ने   हमारे *प्राचीन काल के इस *ज्ञान-विज्ञान, जिसमें इतिहास आदि भी सम्मिलित हैं को *मिथ* कह कर उसे कपोल कल्पित ही घोषित कर दिया।
*पाश्चात्य जगत की अवधारणा की आलोचना*
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इस धारणा के विपरीत इसी यूरोप में, जहां वर्तमान सभ्यता पर बड़ा गर्व किया जाता है, अब भी अर्द्ध सभ्य लोगों के कई स्थानों पर निवास करते हैं। वहां के अति निर्धन लोग प्रस्तर आदि की वस्तुओं का आज भी उपयोग करते  हैं।
क्या उनके लिये यह युग प्रस्तर युग नहीं है ?
इसी प्रकार भारत में मोहन जो दारो, सिन्धुघाटी, कालीबंगा इत्यादि में प्राचीन विकसित सभ्यता  अवशेष मिल रहे हैं।
ऋगवेद में आज के लगभग 10000 वर्ष पूर्व के एक विकसित समाज और उनकी सामाजिक व्यवस्था, धार्मिक आस्था, कर्मकांड और यहां तक कि उनके राजनैतिक चरित्र का वर्णन मिलता है ।
इसी ग्रन्थ में दाशराज्ञ युद्ध का वर्णन मिलता है जो 10000 वर्ष पूर्व के ऋग्वेदिक समाज की राजनीतिक व्यवस्था का चित्रण करता है।
वर्तमान समय में आधुनिक वैज्ञानिक आधार पर खोजी गई ये प्राचोन भारतीय सभ्यताएं और ऋग्वेद में वर्णित प्राचीन मानव समाज की धार्मिक और राजनैतिक स्थितियां उन्नीसवी सदी में विकसित डार्विन के क्रमिक विकास मत  की अवधारणा का खोखलापन ही सिद्ध कर रहे हैं।
2। डार्विन की अवधारणा *तार्किक कसौटी पर खरी नहीं* उतरती।
विकासमत के अनुयायियों ने अमीबा जैसे एक कौशिय जीव से लेकर मनुष्य योनियों के *शरीर की समानता को देखकर एक जाति से दूसरी जाति के उद्भव के मत* को प्रकट किया।
उसका यह मत किसी *तर्क पर आधारित नहीं* था। केवल *दृष्टान्त* देकर ही उन्होने अपने को सिद्ध किया।
जब कि किसी भी *ज्ञान को अनुमान से सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत अनुमान प्रमाण में उनके द्वारा प्रस्तुत दृष्टान्तों के मध्य स्वाभाविक सम्बन्ध रखने वाला कोई हेतु  होना चाहिए*।
तर्क शास्त्र में *बिना हेतु* किसी अनुमान को  सिद्ध नहीं माना जा सकता। अतः तर्कशास्त्र की भाषा में उनका सिद्धान्त *सिद्ध* अर्थात proven नहीं है अतः इसे सत्य नहीं माना जा सकता।
3। प्राणियों की जाति का प्रमुख लक्षण आपस में प्रजनन कर संतति उत्पन्न करना है।
एक गौ से दूसरी गौ और एक अश्व से दूसरा अश्व उत्पन्न होता है अतः वे एक जाति के हैं। इस प्रकार एक अश्व और जेब्रा से तथा अश्व और गधे के मेल से सन्तति उत्पन्न हो सकती है अतः वे एक जाति के हैं।
किन्तु गौ और अश्व मिलकर सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकते अतः वे एक जाति के नहीं हो सकते।
इसी प्रकार मनुष्य और वानर के मेल से सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती, भले ही उनकी शरीर रचना में समानता हो। अतः वे एक जाति के नहीं हो सकते।
इसका कारण यह है कि एक जाति के बीजों मे विभिन्न अणुओं का एक निश्चित क्रम रहता है। यह क्रम बीज के स्वतः स्वभाव से अन्यत्व को प्राप्त नही हो सकता अर्थात एक बीज के गुण दूसरे बीज के गुण के समान नहीं हो सकते अतः इनके परस्पर मेल से सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती।
आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसको *गुणसूत्र* कहा जाता है। प्रत्येक जीव के एक ही जाति के गुणसूत्रों की संख्या समान होती है किन्तु दूसरी जाति के गुणसूत्रों की संख्या से भिन्न होती है। गुण सूत्रों कि इस भिन्नता के कारण दो भिन्न जातियों के प्राणियों के मिलन से उनकी सन्तान उत्पन्न नहीं हो सकती।
अतः इस  *हेतु*/ कारण से डार्विन द्वारा प्रस्तुत हेतुओं का निराकरण हो जाता है और इस प्रकार उनके द्वारा प्रस्तुत *जातियों की उत्पत्ति का सिद्धान्त* कल्पना / कल्पित सिद्ध हो जाता है

सुदेश चंद्र शर्मा

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