*कर्म-सिद्धान्त* और इस पर आधारित *पुनर्जन्म सिद्धांत* पर पर्याप्त चर्चा की इन सिद्धांतो को जानने, समझने का कोई *फल* अर्थात इन सिद्धांतों को जानने से हमें कुछ लाभ भी प्राप्त भी होगा अथवा केवल यह एक *बौद्धिक विलास* है जिसमे हम अपनी बुद्धि से कुछ ऐसे वैसे सिद्धांतों पर चर्चा कर अपना समय काट़ रहे हैं।
क्योंकि कि न तो *कर्म-सिद्धान्त* और न ही *पुनर्जन्म के सिद्धांत* का कोई व्यवहारिक महत्व प्रतीत होता है। क्योंकि ये दोनो ही *व्यवहार में सिद्ध नहीं* किये जा सकते।
इस प्रकार की स्थूल दृष्टि से किया गया यह विश्लेषण केवल *प्रत्यक्ष ज्ञान* को ही *सत्य या वास्तविक ज्ञान* मानता है अतः उक्त सिद्धांतों के लिये *प्रत्यक्ष प्रमाण* की मांग करता है।
किन्तु कृष्ण श्रीकृष्ण यहां स्थूल दृष्टिकोण से नहीं वरन् *सूक्ष्म दृष्टिकोण से कर्म सिद्धांत और पुनर्जन्म सिद्धांत के मध्य सम्बन्ध* को बता रहे हैं।
जिस प्रकार हमें किसी भी वस्तु जैसे जल का स्थूल रूप तो दिखाई पडता है किन्तु इसके तत्व हाइड्रोजन और ऑक्सीजन हमें दिखाई नहीं पड़ते। इन तत्वों के दिखाई न पडने से ही हम यह नहीं कह सकते कि जल में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन उपस्थित ही नहीं है, जब कि वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो चुका है कि जल के तत्व हाइड्रोजन और ऑक्सीजन हैं। इनके बिना जल का अस्तित्व ही सम्भव नहीं हो सकता।
इसी प्रकार *जीवन रूपी जल के मूल तत्व कर्म और पुनर्जन्म* है। इनके प्रत्यक्ष नहीं दिखने से इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से केवल उनके द्वारा विवस्वान को इस ज्ञान को प्रदान करने के उपदेश के प्रति अपनी जिज्ञासा व्यक्त की थी, क्योंकि विवस्वान का जन्म प्राचीन समय में हुआ था और श्रीकृष्ण उसके समक्ष अभी इसी क्षण उपस्थित हैं।
इसके प्रत्युत्तर में श्री कृष्ण ने कहा कि इस जन्म से पहले दोनो के ही कई जन्म हो चुके है। अर्जुन को इसका ज्ञान नहीं है किन्तु श्रीकृष्ण अपने सभी जन्मों के बारे में जानते हैं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने *पुनर्जन्म* *का कर्म सिद्धांत से सम्बन्ध* बताते हुए उपदेश किया कि :-
*जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।*
*त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन*।। 4/9
*वीतराग अभय अक्रोधा मन्मया माम् उपाश्रिता:।*
*बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावम् आगता:।* 4/10
भले ही भौतिक रूप से इन सिद्धांतों को व्यवहार में सिद्ध करना कठिन है किन्तु अगर *किसी ने उक्त सिद्धांतों को तत्त्वतः* अर्थात मूल रूप (सूक्ष्म रूप) और सिद्धांतत: (fundamentally) समझ लिया तो वह अपने इस *ज्ञानतप* से वह *वीतरागी* *अभय* और *अक्रोध* अर्थात *शान्त मना* हो जायेगा और वह मेरे ही *स्वरूप* को प्राप्त हो जायेगा अर्थात *जैसा मेरे मन में भाव है उन्ही भावों को वह प्राप्त कर लेगा* और मेरे *जन्म और कर्म दिव्यता को वह समझ जायेगा*।
इस प्रकार मेरे *दिव्य जन्म* अर्थात मेरे *निर्गुण निराकार रूप से सगुण साकार रूप में अवतरण* और *दिव्य कर्म* अर्थात अपने मानुस रूप में *मानवता के कल्याण के लिये मेरे द्वारा किये जाने वाले निष्काम (निःस्वार्थ) कर्म* को उसके *तत्वतः* (मूल / सूक्ष्म रूप में ) जान लेने के पश्चात जब वह अपनी देह को त्याग करेगा तो उसके उपरान्त वह *जन्म मरण के चक्र से मुक्त* हो जायेगा और उसे *पुनर्जन्म नहीं* लेना पडेगा।
इन श्र्लोकों के भाव को समझने के लिये यहां निम्न शब्दों का भावार्थ जानना आवश्यक है। हमारे मतानुसार इन शब्दों का भावार्थ निम्नानुसार है :
*ज्ञान तप* :यह ज्ञान आसानी से समझ नहीं आता, इसके लिये किसी सद्गुरु की शरण लेकर इसके तत्व को जानने का पुरूषार्थ करना पडता है। किसी भी विषय को जानने, उसमें विशेषज्ञता हासिल करने के लिये मनोयोग से कड़े परिश्रम करने की आवश्यकता होती है।
मनोयोग से कड़े परिश्रम कर विशेषज्ञता हासिल करने को ही *तप* कहा जाता है।
*वीतराग* : राग-द्वेष , सुख-दुख से परे मन की अवस्था।
*अभय*- *भय* हमारे मन में *आत्म-विश्वास की कमी का परिणाम* है जो किसी गलत काम किये जाने से हमारे मन में उत्पन्न होता है।
अगर हम किसी भी प्रकार के *गलत काम से दूर* रहेंगे तो मन में *किसी प्रकार का भय नहीं* रहेगा – यही *अभय* है।
*अक्रोध* : *क्रोध* कामनापूर्ति में बाधक तत्वों के प्रति हमारे *मन में उत्पन्न द्वेष भावना* है।
*मन* में अपने लिये *कोई कामना न* रहने से उसे *क्रोध ही नहीं* आयेगा। यही *अक्रोध* की स्थिति है।
इसमें *मन शान्त* रहता है। *शान्त मन से मनुष्य परिस्थियों को निरपेक्ष भाव से, केवल दृष्टा भाव से देखते हुए उनका सही विश्लेषण करता है। इससे उसके निर्णय सही होते हैं*।
(इन गुणों को श्रीकृष्ण ने सोलहवें अध्याय में दैवीय गुणों की संज्ञा दी है।)
*निष्काम कर्म* और *इसके फल* के रूप में *पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति (मोक्ष)*(सूक्ष्म तत्त्व) का उपदेश करने के पश्चात उन्होन स्थूल *सांसारिक फलों* के लिये किये जाने वाले *सकाम कर्म* और उनके फल प्रदान करने वाले *देवताओं* के सम्बन्ध में कहा कि वे भी इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से मेरी ही शरण में आते हैं अर्थात देवताओं के रूप में मेरी ही उपासना करते हैं और मैं उनकी कामना की पूर्ती करता हूं।
साथ ही यह भी कहा कि सकाम कर्म करने से सांसारिक विषयों की उपलब्धि शीध्र हो जाती है।
इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से उन्होने पिछले श्र्लोक में *निष्काम कर्म* को *ज्ञान तप* क्यों कहा,उसे भी स्पष्ट कर दिया।
अगले श्र्लोकों में इन्हीं भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया हैं :
*ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान्स्तथैव भजाम्यहम्।*
*मम वत् र्म अनुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वशः।।* 4/11
हे पार्थ! जो जिस प्रकार मेरी शरण लेता है मै उसे उसी प्रकार का आश्रय देता हूं।
*काँक्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।*
*क्षिप्रा हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।* 4/12
कर्मों की सिद्धि चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं।क्योंकि मनुष्य लोक में *कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि* शीघ्र मिल जाती है।
अगले श्र्लोक में श्रीकृष्ण कर्म की उत्पत्ति और इनके गुण और कर्म से विभाग करते हुए समाज में चतुर्वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की सृष्टि(उत्पत्ति) का आधार बताया है।
*चातुर्वण्यं मया सृष्टि गुणकर्मविभागशः।*
*तस्य कर्तारम् अपि मां विद्ध् कर्तारम् अव्ययं।।* 4/13
*न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफल स्पृहा।*
*इति मां योऽभिजानाति कर्मभिः न बध्यते।।* 4/14
मेरे द्वारा गुण और कर्म विभाग पूर्वक चारों वर्णों की रचना की गई है।इस रचना का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी को अकर्ता जान।
कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये कर्म मुझे लिप्त नहीं करता।
जो मुझे इस तत्व से जान लेता है वह कर्मों से नहीं बन्धता।
चौथे अध्याय के श्र्लोक 9 में श्री कृष्ण ने उपदेश किया था कि जो इस कर्म सिद्धांत को तत्वतः अर्थात (सूक्ष्म/ मूल रूप में,fundamentally) जान लेता है वह पुनर्जन्म के चक्र मे नहीं पड़ता।
और कर्म सिद्धांत के इसी तत्व को उन्होने श्र्लोक 13 में स्पष्ट करते हुए श्र्लोक 14 मे पुनः कहा है कि जो इस तत्व को जान लेता है वह अपने कर्मों से नहीं बंधता।
जो कर्म सिद्धान्त के इस सूक्ष्म तत्व को न जान कर कर्मफल की अभिलाषा से कर्म करता है उसका परिणाम श्र्लोक 11और 12 में बताये गये हैं।
इसका अर्थ है कि कर्म सिद्धांत को समझने के लिये हमें श्र्लोक 09 से श्र्लोक 14 तक को एक साथ ध्यान में रख कर कर्म सिद्धांत को समझना होगा।
*इस सम्बन्ध में हमारे एक वरिष्ठ साथी और सुधी पाठक ने श्र्लोक 13 का एकाकी भाव से शब्दार्थ करते हुए चतुर्वर्ण में शामिल शूद्र वर्ण को वर्तमान दलित राजनीति से जोड़ा और इसे समाज के विघटन का कारण बताया।
साथ ही यह भी शंका भी व्यक्त की कि क्या भगवान ने ही शूद्रों (वर्तमान राजनैतिक परिभाषा के अनुसार दलितों और पुराने सामाजिक दृष्टिकोण के अनुसार अस्पृश्यों) को उत्पन्न किया था।
उन्होने इस विषय को और अधिक स्पष्ट करने का आग्रह किया था।
हमारे विचार से ग्रन्थ पर अपनी विवेचना के क्रम में इस विषय पर चर्चा करने का यह उपयुक्त समय है। हम चतुर्वर्ण के मूल सिद्धांतों को, मानव समाज के विकास के आलोक में, उसके मूल परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करेंगे।
चूंकि कई साथियों को *जाति और वर्ण* में अन्तर स्पष्ट नहीं है अतः हम इस विषय पर भी यथामति चर्चा करने का प्रयास करेंगे।
इस प्रकार अगली कडियों में हम इन श्र्लोकों पर समेकित रूप विचार कर चतुर्वर्ण ,कर्म, जाति और पुनर्जन्म सिद्धांत की विवेचना करेंगे।