श्री मद्भगवद्गीता मञ्जरी

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अवतार का कारण

श्री मद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय के चौथे श्र्लोक – जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि तेरे और मेरे कई  जन्म हो चुके हैं- में अन्तर्निहित *पुनर्जन्म* के सिद्धांत की भारतीय ज्ञान परम्परा, पाश्चात्य ज्ञान परम्परा, आधुनिक पाश्चात्य समाज मे विभिन्न धार्मिक आन्दोलनों और मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के आलोक में  पर्याप्त विवेचना की। साथ ही इस सिद्धांत के सामाजिक प्रभाव – कि *पाप – पुण्य* और *इसके परिणाम दु:ख और सुख* के ज्ञान से  तथा समाज विरोधी कर्मों  के लिये निर्मित *दण्ड़-व्यवस्था*  के भय से लोग समाज अनुकूल व्यवहार करते हैं।
इससे सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से संचालित होती है।
इस प्रकार यह स्पष्ट करने प्रयास किया गया कि *मनुष्य के पुनर्जन्म का आधार उसके कर्म* हैं।
अब अर्जुन का इसी  प्रश्न के प्रत्युत्तर के क्रम में श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अपने जन्म जिसे हम *अवतार* कहते हैं, के सम्बन्ध में अर्जुन को उपदेश देते हैं कि :
*अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानाम् ईश्वरो ऽपि सन्।*
*प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठाय सम्भवामि आत्ममायया।।*
(गीता अध्याय4 । श्र्लोक 5)
अर्थात मैं *अज* अर्थात अजन्मा हूं , *अव्यय* हूं अर्थात मेरा नाश नहीं होता- मैं *अविनाशी* हूं  (मेरा जन्म और मरण नहीं होता), मैं सब भूतों – अर्थात इस जड़ चेतन (प्राणीमात्र) का एक मात्र ईश्वर अर्थात *स्वामी* हूं। फिर भी *अपनी प्रकृति में अधिष्ठित* होकर अपनी योगमाया से मैं *प्रकट* होता हूं।
इस श्र्लोक के दो भावार्थ हैं 1। आध्यात्मिक और ।2। व्यवहारिक
1। आध्यात्मिक विवेचना
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आध्यात्मिक रूप से इसकी विवेचना करते हुए बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रन्थ *गीता रहस्य* में इसे *सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया* के रूप में निरूपित किया है और लिखा है कि इसमें श्रीकृष्ण ने सांख्य दर्शन और वेदान्त दर्शन की सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का मेल कर दिया है।
*सांख्य दर्शन* के अनुसार प्रकृति स्वयं ही अपने *तीनो गुणों* से इस *सृष्टि का निर्माण* करती है । वेदान्त कहता है कि *ब्रह्म* अपनी अपनी अचिन्त्य शक्ति *माया* के *द्वारा सृष्टि का निर्माण* करता है।
यहां गीता में  श्री कृष्ण कह रहे है कि मैं ( *ब्रह्म*)  प्रकृति में *अधिष्ठित* होकर अपनी *योगमाया* से इस सृष्टि का निर्माण करता हूं ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने सांख्य और वेदान्त दोनो के सिद्धांत को मिलाते हुए सृष्टि निर्माण की अपनी अवधारणा को उजागर किया है।
*आधुनिक विज्ञान* अभी तक *सृष्टि निर्माण* के सम्बन्ध में किसी एक मत पर नहीं पहुंच पाया है। आधुनिक विज्ञान में सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया महाविस्फोट (big bang) से मानी जाती है किन्तु इस महाविस्फोट से पहले क्या था ? इस पर आधुनिक विज्ञान मौन है।
2।व्यावहारिक दृष्टिकोण
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इस श्र्लोक में श्रीकृष्ण ने स्वयं को अजन्मा, अविनाशी और समस्त जड़ चेतन सृष्टि का एक मात्र स्वामी (ईश्वर)  बताते हुए कहा है कि वह प्रकृति में (प्रकृति के गुणों – सत्व, रज और तमस- में नहीं) अधिष्ठित होकर अपनी योगमाया से इस पृथ्वी पर प्रकट होते हैं।
इसका आशय यह है कि जब जब समाज ने ऐसी भयंकर अराजकता होती है तो ऐसे समय ईश्वर किसी ऐसे संसारी व्यक्ति को इस अराजकता की स्थिति से संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं जिसका दृष्टिकोण व्यापक होता है और जो मानवता के कल्याण के बारे में न केवल सोचता है वरन् अपनी समस्त ऊर्जा मानव कल्याण के कार्य में झोंक देता है।
वह समान विचारधारा के लोगों को एकत्रित करता है, संगठित करता है और  प्राप्त करने के उनकी ऊर्जा को केन्द्रित कर उसे मानव कल्याण की दिशा में मोड़ देता है।
अपनी नेतृत्व क्षमता और सामान्य और पीडित लोगों की संगठित शक्ति के बल पर वह इन अराजक और आततायी शक्तियों को चुनौती देता है, उनसे संघर्ष करता है और सत्य और न्याय के प्रति अपनी अटूट निष्ठा और आत्मबल के आधार पर इन शक्तिशाली अराजक और आततायी शक्तियों को पराजित कर समाज में  अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा का भाव पैदा कर समाज में पुन: सद्भाव और सहयोग का वातावरण उत्पन्न करता है। इससे सज्जन और सत्पुरूष पुनः समाज में प्रतिष्ठित होते है और समाज में शान्ति स्थापित होती है जिससे समाज में विकास सुनिश्चित होता है।
अगर हम राजकुमार राम और ग्वाले कृष्ण की जीवनी को ध्यान पूर्वक पढे तो हमें यह प्रक्रिया स्पष्ट हो जायगी।
राजकुमार राम से भगवान राम की जीवन यात्रा
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अयोध्या के राजकुमार *राम* का  *भगवान राम* के रूप में रूपान्तरण उस समय हुआ जब उन्होने अपना *व्यक्तिगत स्वार्थ*( अयोध्या के अपने राजतिलक) को त्याग कर  पिता की आज्ञा मान कर *परिवार हित* और *कालान्तर में सम्पूर्ण समाज के हित को सर्वोपरि*  माना और अपनी भार्या सीता और भ्राता लक्ष्मण सहित वन को चले गये।
ऋषियों मुनियों पर राक्षसों के अत्याचार की भयावहता को *वृहद सामाजिक परिपेक्ष्य* में देखा और  इसे सामाजिक समस्या के रूप में देख कर *वृहद समाज के हितों की रक्षार्थ उन्होने स्वार्थी और आततायी राक्षसो को नाश करने की शपथ* ली।
सीताहरण जैसी व्यक्तिगत समस्या को वृहतर समाज की समस्या के रूप में देखा और इसी समस्या से पीडित वानर राज सुग्रीव से मित्रता की। अपने कुशल नेतृत्व से उन्हे बिखरे हुए वनवासी / आदिवासी समाज को संगठित किया और उनमें आत्म विश्वास का संचार किया।
इन निर्बल लोगों को संगठित कर उन्हे एक बडी शक्ति में रूपान्तरित कर अपने आत्मबल से रावण जैसे आततायी और शक्तिशाली राक्षस राजा का समूल विनाश कर दिया। नीतिज्ञ और धर्मज्ञ विभीषण और सुग्रीव को उनके उनके राज्य का संचालन सौंप दिया और  स्वयं ने अयोध्या आकर ऐसी जनहित की योजनाए लागू की जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अधिकार मिला।
सभी लोगों को अपने अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिये स्वैच्छिक रूप से तैयार किया और ऐसे *राज्य / शासन व्यवस्था* विकसित जो आज भी *राम राज्य* के रूप में किसी समाज के लिये आदर्श शासन व्यवस्था मानी जाती है।
गौपालक कान्हा से भगवान कृष्ण की यात्रा
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श्री कृष्ण को बचपन से ही अपने ही मामा कंस के अत्याचारों को सहना पडा। इसी क्रम में उन्होने निरन्तर राक्षसों से संघर्ष किया और उन्हे पराजित किया।
 अपने किशोर वय में ही मथुरा गये और  युक्ति बल से  शक्तिशाली राक्षस रक्षकों सहित कंस को मार दिया।
उन्होने तत्कालीन आततायी और शक्तिशाली राज्यों, जिसमें मगध का राजा जरासंध भी शामिल था, के विरूद्ध नीतिज्ञ और पीडित राज्यों / लोगों को संगठित किया।
रिश्ते में अपने भाई पाण्डवो, जो कि अपने चचेरे भाई दुर्योधन के षडयन्त्रों के शिकार रहे, के माध्यम से उन्होने एक समानान्तर शक्तिशाली राजनैतिक शक्ति का निर्माण कर लिया। उन्होने पाण्डवों के हित की रक्षार्थ  कौरव और पाण्डवों के मध्य सन्धि के माध्यम से शान्ति की स्थापना का प्रयास किया।
किन्तु स्वार्थी दुर्योधन की हठधर्मिता के कारण अपने सभी प्रयासो के निष्फल होने पर मजबूरी वश उन्होने युद्ध को स्वीकार किया।
उनके ही बुद्धि और युक्ति के बल पर पाण्डवों ने अपने से कहीं अधिक और विशाल कौरव सेना को पराजित किया।
सम्पूर्ण जीवन में श्रीकृष्ण समाज में *शान्ति और सद्भाव (धर्म) की स्थापना* में ही प्रयास रत रहे। इसके लिये यथासम्भव मेल-मिलाप और सन्धि का रास्ता उन्होने चुना, किन्तु इसमें असफल रहने पर उन्होने बल प्रयोग  भी किया।
युद्ध उनके लिये अन्तिम विकल्प होता था किन्तु वृहतर समाज में सुख और शान्ति ( *मानव कल्याण रूपी वृहत्तर धर्म*) की रक्षा के लिये  वे इस अन्तिम  विकल्प का भी उपयोग करते थे।
 अपने वचन पालन  को ही अपना धर्म ( *व्यक्ति धर्म को सर्वोपरी* ) मानने वाले पितामह भीष्म को और भरी राजसभा में द्रोपदी (नारी)  की अस्मिता पर आक्रमण पर भी चुप चाप बैठे रहने वाले महानगर पराक्रमी   गुरू द्रोणाचार्य जैसे सम्मानित लोगों का भी उन्होने युक्तिपूर्वक वध कराने में संकोच नहीं किया क्योंकि कौरवों (कुरूसम्राट) के प्रति उनकी व्यक्तिगत निष्ठा (कर्तव्य, धर्म) समाज में अधर्म ( अराजकता) को बढा रही थी और  उनका बल और कौशल  *समाज के वृहत्तर कल्याण की अपेक्षा समाज मे अधर्म को बढा रहा था*।
इस प्रकार वृहद समाज के हितों के लिये अनवरत रूप से कार्य करने और इसमें बाधा पहुचाने वाले शक्तिशाली किन्तु स्वार्थी लोगों का अपने बल और बुद्धि से नाश करने वाले राजकुमार राम और सामान्य गौपालक कृष्ण हजारों वर्ष बाद आज भी समाज में *भगवान* के रूप में वन्दनीय और पूज्यनीय है।
धार्मिक रूप में अवतार की अवधारणा
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धार्मिक लोगों के लिये इसका एक आशय यह है कि *अवतार* के रूप में प्रकट होने वाली शक्ति *प्रकृति के तीनो गुणों – सत्व, रजस् और तमस् – से परे* रहती है। उसका *स्वयं का नियन्त्रण स्वयं पर* रहता है।
 चूंकि इस मृत्युलोक (पृथ्वी) पर जन्म लेने के लिये प्रकृति  अर्थात प्रकृतिक शक्तियां ही एक मात्र साधन हैं जिससे ब्रह्म स्वयं को अपने अति सूक्ष्म *अव्यक्त* – अर्थात दिखाई न पडने वाले – रूप से स्थूल *व्यक्त* रूप में प्रकट कर सकता है। इसी मर्यादा के दृष्टिगत ब्रह्म प्रकृति में स्वयं को अधिष्ठित करता है।
 चूंकि प्रकृति  *सामान्य* जीवों को उनके *कर्मों के अनुसार उचित शरीर प्रदान* करती है इसलिये (पुनर्जन्म)  का आधार है।
विश्व को *धारण करने वाली शक्ति- जो प्रकृति के तीनों गुणों से परे* है- को प्रकृति अपने माध्यम से संसार में प्रकट़ नहीं नहीं कर सकती अतः ब्रह्म स्वयं की उच्चस्तरीय शक्ति *योगमाया* के माध्यम से इस धरा पर अवतार लेते हैं।
*अवतार क्यों*
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 यह बड़ा सरल प्रश्न है।
*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानि:भवति भारत।*
*अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदा आत्मानम् सृजानि अहम्।।*
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।*
*धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भावामि युगे युगे।।*
गीता 4/7,8
हे अर्जुन! जब जब भी *धर्म की हानि* होती है और *अधर्म का उत्थान* होता है, तब तब मैं *साधूओं* का परित्राण अर्थात रक्षा करने लिये और *अधर्म / पाप कर्म करने वालों का विनाश* करने का लिये अपने को इस धरा पर प्रकट करता हूं।
श्री कृष्ण ने अपने (भगवान) के अवतार के *पांच  कारण* बताये हैं।
1। धर्म की हानि,
2। अधर्म का उत्थान,
3। साधूओं/ सत्पुरुषों की रक्षा,
4। दुष्टों / अधर्म करने वालों का विनाश और
5। धर्म की (पुनः) स्थापना
वस्तुतः अवतार का एक ही कारण *धर्म की पुनर्स्थापना* है। क्योंकि लोगों द्वारा अपने अपने कर्तव्य पालन न किये जाने से समाज में कर्तव्य पालन का भाव कम होता जाता है। इससे समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होती है। समाज में इन नियमित रूप से ऐसी अव्यवस्थाओं के चलते दुष्ट़ प्रकृति के लोग इसका लाभ उठाते हैं और वे समाज में सज्जनों और सत्पुरुषों को दु:ख देना / उन्हें परेशान करना शुरू कर देते हैं। इससे समाज में धर्म की ग्लानि होते हुए भी किसी तरह समाज व्यवस्था को संभाले रखने वाले सत्पुरूष भी हतोत्साहित हो जाते हैं। ऐसा होने से समाज में अव्यवस्था अब अराजकता के स्तर तक पहुंच जाती है। इस स्तर पर  केवल दुष्ट और शक्तिशाली लोगों का ही समाज पर प्रभुत्व रहता है।
समाज में चारों और छट-कपट, लूट-खसोट का वातावरण छाया रहता है इससे प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से हमेशा सशंकित रहता है और चारों और अविश्वास का वातावरण छाया रहता है।
ऐसी स्थिति मे सामान्य और सज्जन लोगों का समाज में अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।
जब समाज में ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो जाती है जहां सज्जनों और सामान्य लोगों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है तब पापकर्म अपने चरम पर होते हैं।
ऐसी ही स्थितियों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में *अधर्म* कहा है
*परहित सरिस धर्म धरम नहीं भाई।*
*पर पीरा सम नहीं अधमाई।।*
जब समाज में इस प्रकार *अधर्म* व्याप्त होता है तब *भगवान* इस धरा पर अपनी योगमाया से *अवतार* लेते हैं।
*भगवान  अवतार कैसे लेते हैं*
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भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुसार भगवान जब भी *अवतार* लेते हैं वे सामान्य मनुष्य की तरह *प्राकृतिक रूप* से अपनी मां के गर्भ से उत्पन्न नहीं होते।
भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण के रूप में प्राकट्य से पूर्व उन्होने पहले अपने अलौकिक – शंख -चक्र -गदा-पद्म धारी – चतुर्भुज स्वरूप का दर्शन अपनी माताओं क्रमश: कौशल्या और देवकी को कराया था।
माता कौशल्या के गर्भ से प्रकट होने से पूर्व इस अलौकिक छवि के दर्शन और शिशुरूप प्राकट्य को गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस प्रकार छन्द बद्ध किया है :
भले प्रगट कृपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी।
हर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।।
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा *निज आयुध भुज चारी*।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारि।।……….
इस अलौकिक रूप के दर्शन कर इससे मोहित हुई माता कौशल्या फिर प्रार्थना करती है कि
माता पत्नि बोली सो मति डोली तजहुं तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा ।।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा ।
इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के लिये श्री मद्भागवत में आया है कि
उपसंहर  विश्वात्मन्नदो रूपम् अलौकिकम्।
शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टम् चतुर्भुजम्। ।
श्री मद्भागवत 10/03/30
पित्रोः सम्पशयतोः सद्यो बभूव प्राकृत शिशु:।
(श्री मद्भागवत 10/03/46)
माता देवकी ने कहा – वीश्वात्मन् !शंख, चक्र, गदा और पद्म की शोभा से युक्त इस चार भुजाओं वाले अपने अलौकिक दिव्य रूप को अब छिपा लीजिये। तब भगवान ने माता-पिता के देखते देखते तत्काल अपनी माया से एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया।
कहने का आशय  है कि सनातन धर्म की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जब जब भी पृथ्वी पर धर्म की हानि और अधर्म (पाप) का बोलबाला हो जाता है तब इस सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु इस धरा पर अवतार लेकर पापियों का नाश करते हैं और पुन: धर्म की स्थापना (समाज में व्यवस्था कायम) कर सज्जनों की रक्षा करते हैं।

सुदेश चंद्र शर्मा

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