शंकराचार्य ने प्रण लेते हुए कहा

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जब आदि शंकराचार्य ने प्रण लेते हुए कहा  – आचार्य, आपका बलिदान व्यर्थ नहीं जाने दूँगा, आपकी चिता की ये अग्नि अब मेरे ह्रदय में धधकेगी|
तिल तिल कर भूसे की अग्नि में आत्मदाह कर रहे कुमारिल भट्ट के समर्पण और बलिदान ने बचा लिया था “वैदिक धर्म” अन्यथा विलुप्त हो चुका होता।
लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व “भैरप्पा” की पुस्तक “सार्थ” पढ़ते समय “कुमारिल भट्ट” का प्रसंग आया, जो लगभग 30 पृष्ठों में निहित है। पहले भी इस प्रसंग से वाकिफ था लेकिन जितनी देर इसे पढ़ता रहा, उतने समय तक और फिर आह्लादित होकर पत्नी श्रीमती सुषमा को पुनः पूरा पढ़कर सुनाते हुए पूरी अवधि तक मेरी आँखों से अविरल अश्रुधारा झर झर बहती रही। लगा, ऐसे लोगों के त्याग और बलिदान का ही परिणाम है कि यह महान संस्कृति आज भी जीवित है। कैसी विडंबना है कि आज अधिकांश लोगों को इस अद्भुत प्रसंग का तो जाने दीजिये, महान विद्वान् और आचार्य “कुमारिल भट्ट” के नाम तक की जानकारी नहीं है|
छठवीं शताब्दी आते आते वृहत्तर भारत ही नहीं बल्कि तिब्बत, चीन, जापान और श्रीलंका के साथ साथ वर्तमान एशिया महाद्वीप के पूरे दक्षिण पूर्व इलाके में “बौद्ध धर्म” की तूती बोलने लगी थी। वेदों का तिरस्कार, वैदिक धर्म को निकृष्ट समझना आम बात हो चुकी थी। महान नालंदा विश्वविद्यालय सनातन संस्कृति के विरुद्ध प्रचार और बौद्ध धर्म के प्रसार के केंद्र के रूप में परिवर्तित हो चुका था। लगता था “सनातन या वैदिक धर्म” अब आखिरी सांसें गिन रहा है।
ऐसे में एक उद्भट विद्वान “कुमारिल भट्ट” ने बीड़ा उठाया – वैदिक धर्म को बचाने और बौद्ध धर्म के ऊपर इसकी श्रेष्ठता सिद्ध करने का। इस महान कार्य के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी खपा देने वाले भट्ट का मानना था कि “वेद” किसी मानव की नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर की रचना होने के कारण विशुद्ध हैं एवं परम सत्य का बखान करते हैं। दूसरी तरफ, बौद्ध धर्मग्रंथ और उनकी नीतियां मानव रचित होने के साथ साथ पाली भाषा एवं व्याकरण में अशुद्ध होने के कारण अग्राह्य हैं, वेदों की तुलना में तुच्छ हैं। कुमारिल भट्ट “पूर्व मीमांसा” और कर्मकांड के घोर समर्थक थे। वे महायान बौद्धदर्शन की तरह इस संसार को मिथ्या नहीं मानते थे| कुमारिल ने मीमांसा के माध्यम से यथार्थ ज्ञान की समीक्षा की और उस पर विस्‍तार से विवेचना की। कुमारिल भट्ट के अनुसार प्रमाण उसे कहते हैं जिसके माध्‍यम से सत्‍य वस्‍तु का ज्ञान किया जा सके। कुमारिल भट्ट के प्रमुख ग्रंथ हैं श्‍लोकवार्तिक और तंत्रवार्तिक जो शाबर भाष्‍य से संबंधित हैं। आज तक इस क्षेत्र के विद्वान निर्विवाद मानते हैं कि इन ग्रंथों में आचार्य कुमारिल भट्ट की अप्रतिम व असाधारण प्रतिभा और उनकी अमरता मौजूद है।
कुमारिल भट्ट ने अस्सी वर्ष से भी अधिक की आयु में “नालंदा” में यह झूठ बोलते हुए विद्यार्थी के रूप में प्रवेश लिया कि अब उनकी सनातन धर्म से आस्था समाप्त हो चुकी है और वे भी बौद्ध धर्म अपना रहे हैं। संयोग से पूर्व में ही बौद्ध धर्म अपना चुके भतीजे “धर्मकीर्ति” ही उनके आचार्य थे। एक दिन जब कक्षा में पढ़ाते हुए आचार्य धर्मकीर्ति वेदों की घोर निंदा कर रहे थे तब कुमारिल भट्ट अपने को रोक न सके और उनकी आंखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। धर्मकीर्ति समझ गए कि कुमारिल भट्ट अभी भी हृदय से वैदिक धर्म मानते हैं इसलिए वेद निंदा सहन नहीं कर पाये। कुमारिल भट्ट का रहस्य उजागर हो गया कि नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म की शिक्षा ग्रहण करने के पीछे उनका वास्तविक उद्देश्य इसके ऐसे नकारात्मक तत्वों को जानने का था जिसके आधार पर इसके विरुद्ध सनातन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की जा सके। आचार्य धर्मकीर्ति के आदेश पर सहपाठी विद्यार्थियों ने उन्हें पीटना शुरू कर दिया और मारते मारते अधमरा करने के बाद ऊंचे शिखर से नीचे फेकने का निर्णय लिया। कुमारिल भट्ट ने विश्वासपूर्वक कहा कि यदि हमारे वेद शुद्ध हैं और मेरा उनमें अटूट विश्वास है तो मुझे मृत्यु नहीं आयेगी। यही हुआ, इतनी अधिक ऊँचाई से फेके जाने के बाद भी कुमारिल भट्ट जीवित बच गए, उनकी सिर्फ एक आंख घायल हो गई।
कुमारिल भट्ट ने अपने जीवन के आगामी कुछ वर्ष अनेक ग्रंथों के माध्यम से वैदिक धर्म की सत्यता और बौद्ध धर्म के ऊपर श्रेष्ठता सिद्ध करने में ही लगाये। उधर दक्षिण भारत से एक बालब्रह्मचारी महान विद्वान किशोर (जिन्हें हम आदि शंकराचार्य के नाम से जानते हैं) भी सनातन धर्म की ध्वजा को पुनर्प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से संपूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए बद्रिकाश्रम होते हुए कुमारिल भट्ट से मिलने “प्रयागराज” पधारे। आदि शंकर ने भाष्य लिखा था और उन्हें भरोसा था कि यदि कुमारिल भट्ट इस पर अपनी टीका कर देंगे तो भारत के समस्त विद्वान् इसे प्रामाणिक मान लेंगे| परंतु देखते हैं कि कुमारिल भट्ट तो गंगा किनारे भूसे की चिता बनाकर आत्मदाह कर रहे हैं। कुमारिल भट्ट जलने की असीम पीड़ा को सहन करते हुए भी आदि शंकराचार्य को अपने सम्मुख देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। शिष्यों से उनकी पूजा करवाई। भिक्षा ग्रहण करने के बाद आदि शंकराचार्य ने अपना भाष्य पैरों तक जल चुके कुमारिल भट्ट को दिखाया।
कुमारिल भट्ट ने भाष्य ग्रंथ की प्रशंसा करते हुए कहा कि यदि मैं तुषाग्नि में जलने का प्रण न लिए होता तो अवश्य इसका पूर्ण अध्ययन और टीका करता। आदिशंकराचार्य ने जब उनसे इस प्रकार शरीर भस्म करने का कारण पूछा तब कुमारिल भट्ट ने कहा कि मैंने दो पाप किए हैं, पहला अपने बौद्ध गुरु से छद्म रूप धर कर झूठ बोला और दूसरा ईश्वर का खंडन। मैं जानता हूं कि मेरी अंतरात्मा शुद्ध है और मैं अपराधहीन हूँ लेकिन समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए यह प्रायश्चित कर रहा हूँ। यदि लकड़ी की चिता बनाता तो कुछ क्षणों में ही जल कर मर जाता इसलिए भूसे की अग्नि में कई दिनों तक तिल तिल कर जलूँगा| शंकराचार्य ने कहा कि आपके पवित्र चरित्र में पाप की संभावना तनिक भी नहीं है।
कुमारिल भट्ट ने शंकर से कहा – “चूँकि भाष्य पढ़ने और शास्त्रार्थ करने में काफी समय लगेगा और तब तक मेरी देह भस्म हो जाएगी अतः आप मेरे शिष्य मंडन मिश्र के पास जाकर उनसे शास्त्रार्थ करें। मिथिला राज्य के महिष्मति निवासी मंडन मिश्र भी मेरे समान ही विद्वान और वेद पारंगत हैं। मैं ये देह त्याग रहा हूँ, अब आप और मंडन मिश्र ही वैदिक सनातन धर्म के रक्षक बनेंगे।“ शंकराचार्य द्वारा मंडन मिश्र का पता पूछने पर कुमारिल भट्ट ने कहा जिस घर के बाहर तोते ईश्वर की सत्यता और वेदों के संदर्भ में परस्पर परिचर्चा कर रहे हों, समझ लेना वही उनका निवास स्थान है। आदि शंकर ने कहा – आचार्य श्रेष्ठ, आपका बलिदान व्यर्थ नहीं जाने दूँगा, आपकी चिता की यह अग्नि बुझेगी नहीं बल्कि अब से मेरे ह्रदय में धधकेगी| मैं वैदिक धर्म की रक्षा और प्रसार करने की शपथ लेता हूँ|
प्रयागराज से आदि शंकर पहुँचे मिथिला के महिष्मति शहर (कुछ लोग इसे मध्य प्रदेश का नर्मदा किनारे स्थित मंडलेश्वर भी मानते हैं)| महाविद्वान आचार्य मंडन मिश्र के दरवाजे पर पहुँच गए| किशोर ब्रह्मचारी को मंडन मिश्र की पत्नी “उभय भारती” ने पुत्रवत स्नेह देकर भोजन कराया, स्वागत किया| शास्त्रार्थ की तिथि तय हुई| भारत के कोने कोने से विद्वान् महिष्मती पहुँच गये| शंकर वेदांत के प्रतिपादक तो मंडन मीमांसा के और कर्मकांड के| दो महाविद्वानों के बीच तर्क-वितर्क सुनना एक अद्भुत अनुभव होना था| निर्णायक (जज) किसे बनाया जाये? शंकर ने माता भारती के नाम का प्रस्ताव किया| मंडन मिश्र ने कहा – तुम पराजित होने पर ये आक्षेप तो नहीं लगाओगे कि भारती ने मेरी पत्नी होने के नाते पक्षपात किया| आदि शंकर बोले – माता भारती विदुषी महिला हैं, देवी सरस्वती के समान हैं, मुझे भरोसा है पक्षपात नहीं करेंगीं|
कहा जाता है कि शास्त्रार्थ कई महीनों तक चला| दोनों पक्षों से अकाट्य प्रमाण और तर्क प्रस्तुत किये जाते| ब्रह्मचारी शंकर कहते कि “संन्यास धर्म” ही श्रेष्ठ है जबकि मंडन मिश्र का कहना था कर्मकांड और गृहस्थ से उत्त्तम कोई धर्म हो ही नहीं सकता| यदि गृहस्थ नहीं होंगे, विवाह, स्त्री पुरुष के बीच शारीरिक संबंध ही नहीं होंगे तो जीवन कैसे चलेगा, सृष्टि समाप्त हो जायेगी| आदि शंकर ने समुचित उत्तर दिया – “आचार्य, ब्रह्मचर्य और संन्यास अत्यंत कठिन मार्ग हैं, दुरूह हैं, साधारण व्यक्तियों का इनका पालन करना आसान नहीं है, अतः श्रेष्ठ होते हुए भी अधिक लोग अपना नहीं सकते, इसलिए सृष्टि समाप्त न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता”| शर्त ये भी थी कि यदि आदि शंकराचार्य जीते तो मंडन मिश्र घरबार त्याग कर शंकर के शिष्य सन्यासी बन जायेंगे और यदि मंडन मिश्र जीते तो शंकराचार्य विवाह कर मंडन मिश्र के शिष्य एवं गृहस्थ बन जायेंगे| अंततः शास्त्रार्थ में वह मोड़ आ ही गया जब आचार्य मंडन मिश्र कमजोर पड़ गये और माता भारती ने निर्णय सुनाया – मेरे पति और महाचार्य मंडन मिश्र पराजित हुए|
जहाँ मंडन मिश्र ने एक क्षण गंवाये बिना वल्कल वस्त्र पहन कर घर त्याग दिया वहीं उनकी पत्नी “उभय भारती” ने भरी सभा में घोषणा की “ठहरिये, अभी शास्त्रार्थ समाप्त नहीं हुआ| एक गृहस्थ की पत्नी उसकी अर्धांगिनी होती है, दोनों एक होते हैं| मेरे पति को पूर्णतया पराजित तभी माना जायेगा जब शंकराचार्य मुझे भी शास्त्रार्थ में पराजित कर देंगे|” सभी सभासद अवाक| शंकर ने हाथ जोड़कर माता भारती से शास्त्रार्थ करना स्वीकार किया| पुनः कई दिनों तक विद्वत्ता का अद्भुत प्रदर्शन सारी दुनिया ने देखा| अचानक भारती ने ब्रह्मचारी शंकराचार्य से स्त्री पुरुष के बीच कामक्रीड़ा और अन्य ऐसे विषयों पर तर्क करना प्रारंभ कर दिया, प्रश्न पूछे जिन्हें सिर्फ गृहस्थों द्वारा कामरत होने के बाद ही जाना जा सकता| शंकर हत्प्रभ| कहा – “माता, मुझे इस विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कुछ माह का समय दीजिये”| भारती को विश्वास था कि संन्यास और ब्रह्मचर्य का प्रण लेने वाले शंकर यह ज्ञान कभी प्राप्त नहीं कर पायेंगे, हाँ कर दी|
शंकराचार्य अपने दोनों शिष्यों को लेकर घोर जंगल स्थित एक गुफा में पहुँचे| मन को ध्यानस्थ किया तो पता चला अभी अभी एक ऐसे राजा की मृत्यु हुई जो अपने जीवनकाल में अनेक रानियों के साथ भोग विलास और ऐश्वर्य में ही डूबा रहता| शंकर ने शिष्यों को निर्देश दिया – “मैं योगक्रिया से प्राणों को अपने शरीर से निकालकर उस राजा के शरीर में प्रवेश करवाने जा रहा हूँ| तुम दोनों मेरे प्राणहीन शरीर को विशेष लेप लगाकर इसी दुर्गम गुफा में रखना और हिंसक पशुओं से रक्षा करना| राजा के शरीर से कुछ अनुभव लेकर मैं शीघ्र अपने प्राणों को इस शरीर में वापिस लेकर आ जाऊँगा| आत्मा कभी दूषित नहीं होती, अपवित्र नहीं होती|” वही हुआ, शंकराचार्य ने राजा के शरीर के माध्यम से वे सारे अनुभव प्राप्त किये, कामक्रीड़ायें कीं जिनके बारे में भारती शास्त्रार्थ कर रही थीं| लौटकर शास्त्रार्थ हुआ, अंततः भारती भी पराजित हुईं|
मंडन मिश्र और भारती अलग अलग सन्यासी बने| सुरेश्वराचार्य के नाम से मंडन मिश्र और शंकराचार्य ने अनेक वैज्ञानिक ग्रंथों की रचना के माध्यम से, संपूर्ण भारत में भ्रमण कर, पीठों और धामों की, आश्रमों की स्थापना करते हुए वैदिक धर्म की, सनातन धर्म की पताका फहराई| सैकड़ों बौद्ध मठों में जा जाकर शास्त्रार्थ किया, वैदिक धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की| वृहत्तर भारत में एक क्रान्ति सी आ गयी. बौद्ध धर्म के पैर उखड़ने लगे, भारत और उसकी महान सनातन संस्कृति अपने मूल स्वरुप और ऐश्वर्य की ओर लौटने लगी|
आज हमें चाहिए कि हम “कुमारिल भट्ट” के प्रति कृतज्ञ हों, उन्हें वह सम्मान दें जिसके वे वास्तविक अधिकारी हैं, उनके नाम को वह यश मिले जिसे हम पूर्णतया भुला चुके हैं| इस संदर्भ में मुझे प्रेरित करने के लिए अद्भुत लेखक श्री Devanshu Jha जी का सस्नेह आभार जिनकेे लेखों ने कुमारिल भट्ट के प्रति मेरी और भी अधिक रूचि जाग्रत की| तस्वीरें प्रयागराज के गंगा किनारे उस पवित्र स्थान की जहाँ कुमारिल भट्ट ने तुषाग्नि (भूसे की चिता) में आत्मदाह कर अपनी देह का अंत भले ही कर दिया हो लेकिन सनातन धर्म की रक्षा कर ली|

सुदेश चंद्र शर्मा

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